लगता है हमारी नई पीढ़ी की सोच अब बदल रही है और साथ ही उसे नया आयाम भी मिल रहा है। क्योंकि, ऐसे समय में जब लोग अधिक से अधिक वेतन वाली नौकरी की तलाश में रहते हैं, लाखों रुपए की नौकरी छोड़कर समाजिक कार्य करना बहुत बड़ी बात है। आईआईटी बॉम्बे से पास कुछ छात्रों ने जन कल्याण के लिए इतना बड़ा कदम उठाया है। उनमें से कुछ का शिक्षक बनने का सपना है तो कुछ ने सामाजिक उद्यमिता को अपनाया है और कुछ समजिक कार्य पर अपना ध्यान केंद्रित कर रहे हैं।
जी हाँ ! आईआईटी बॉम्बे के 2010 बैच के प्रत्युष राठौड़ गुड़गांव में एक कंपनी में नौकरी करते थे, जिसका हेड क्वॉर्टर न्यूयॉर्क में है। उनको 44 लाख का पैकेज मिल रहा था, साथ में भत्ता भी। लेकिन, उन्होंने पढ़ाने के अपने सपने को पूरा करने के लिए अपनी नौकरी छोड़ दी, जबकि उनके माता-पिता ने इसका विरोध भी किया था। तीन सालों तक आईआईटी की प्रवेश परीक्षा के लिए छात्रों को प्रशिक्षण देने के बाद राठौड़ ने स्कूल बनाने के लिए अपने पैतृक शहर मध्यप्रदेश के सिरले के करीब छोटे से गांव में जमीन खरीद ली है। उन्होंने जमीन पर निर्माण से संबंधित आवेदन दे रखा है और उनके प्लान को स्थानीय अथॉरिटी की ओर से मंजूरी मिलने का इंतजार है।
इसी तरह 2014 में पास सिद्धार्थ शाह ने भी किसी कंपनी में नौकरी करने की बजाए दो साल के रेजिडेंशल प्रोग्राम गांधी फेलोशिप को चुना, जिसमें उन्हें प्रिंसिपलों और टीचरों में लीडरशिप क्वॉलिटी लाने के लिए छोटे शहरों की स्कूल में प्रशिक्षण देना पड़ता है। शाह ने बताया कि मेरी इच्छा थी कि मैं ऐसा कार्य करूं जिसकी माध्यम से समाजिक परिवर्तन लाने में सहायता कर सकूं। मैं कम आय में ही संतुष्ट हूं। प्रोग्राम पूरा होने के बाद मैं कभी भी रिसर्च के लिए वापस जा सकता हूं।
2011 बैच के मेकेनिकल इंजीनियर अंकुर तुलसियान ने एक मल्टिनैशनल कंपनी के ऑफर के स्थान पर यंग इंडिया पेलोशिप को प्राथमिकता दी। फेलोशिप मिलने से वह लिबरल आर्ट्स और लीडरशिपर में ग्लोबल एक्सपर्ट्स से एक साल तक अध्ययन करने का मौका मिला। उन्होंने बताया, प्रोग्राम से मुझे उन कोर्सो को सीखने का मौका मिला जिसका अध्ययन करने का आईआईटी में अवसर नहीं मिला था।
आईआईटी बॉम्बे की पूर्व छात्र सुहानी मोहन एक मल्टिनैशनल बैंक में जॉब करती थीं, जहां उनको कैश इन हैंड 20 लाख रुपए से अधिक मिलता था। अब वह एक कंपनी की स्थापना पर गौर कर रही हैं जो ग्रामीण भारत के लिए कम कीमत की सैनिटरी नैपकिन बनाएगी। सुहानी ने बताया कि हमें पता था कि इस प्रॉडक्ट को बनाने के लिए हमारी स्किल का इस्तेमाल हो सकता है। यह एक स्टार्ट-अप है और इसमें निवेश करने के लिए हम अपने संसाधनों का इस्तेमाल कर रहे हैं। उन्होंने अपने दो दोस्तों के साथ मिलकर कंपनी आरंभ की है। कुछ छात्रों का मानना है कि कैंपस प्लेसमेंट के दौरान मिलने वाले कुछ ऑफर की तुलना में फेलोशिप प्रोग्राम बेहतर विकल्प है।
दवा के रिएक्शन पर आप लें एक्शन !
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आजकल उपभोक्ताओं के हितों को नज़रअंदाज करना भारी पद सकता है। मसलन एक नई पहल के तहत किसी भी दवा के रिएक्शन करने पर या दवा खाने के बाद हुए बुरे अनुभव के बारे में अब उपभोक्ता फोन कर सीधे रिपोर्ट कर सकेंगे। स्वास्थ्य मंत्रालय ने एक टोल फ्री नंबर शुरू किया है, जहां लोग फोन कर दवा के साइड इफेक्ट, उससे हुई समस्या आदि के साथ ही यदि किसी दवा के खाने के बाद किसी दुष्प्रभाव के होने का संदेह है, तो भी उसकी शिकायत की जा सकती है।
फार्मासिस्ट, हॉस्पिटल और अन्य स्वतंत्र क्लीनिक्स के लिए यह जरूरी किया जाएगा कि वे जनहित में टोलफ्री नंबर 18001803024 को प्रदर्शित करें। इस योजना को लागू करने के पीछे मकसद है कि उपभोक्ताओं को अधिक मजबूत किया जाए ताकि वे दवाओं के दुष्प्रभाव पर खुद रिपोर्ट कर सकें। इससे ऐसा माहौल बनेगा, जिससे दवाओं के दुष्प्रभाव की रिपोर्ट देश के हर हिस्से से मिल सकेगी।
वर्ष 2011 से देशभर से दवाओं के दुष्प्रभाव के करीब एक लाख 10 हजार मामले सामने आए। हालांकि, यह तब मुमकिन हो सका, जब सरकार ने अस्पतालों में फार्माकोविजिलेंस सेल बनाना अनिवार्य कर दिया। हालांकि, अधिकारियों का कहना है कि देश में चुनिंदा अस्पताल ही इस प्रक्रिया का पालन कर रहे हैं। फिलहाल देशभर में 150 अस्पतालों में ही फार्माकोविजिलेंस सेल काम कर रही हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय और ड्रग नियंत्रक ऐसी सेल को बढ़ाने की कोशिश कर रही हैं।
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प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, शासकीय
दिग्विजय महाविद्यालय,राजनांदगांव।
मो.9301054300