Sunday, November 24, 2024
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छोटे उद्यमियों की बड़ी आस है मुद्रा

पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा लांच किए जाने के साथ 'मुद्रा बैंक" (माइक्रो यूनिट्स डेवलपमेंट रिफाइनेंस एजेंसी) अस्तित्व में आ गया। यह बेशक 5.77 करोड़ छोटे व लघु कारोबारियों के उस लक्षित वर्ग की खातिर उठाया गया एक बड़ा कदम है, जिसे फॉर्मल बैंकिंग सेक्टर से कर्ज पाने में दिक्कतें पेश आती हैं। आखिर ये कोई नई-नवेली तकनीकी कंपनियां नहीं हैं, जिनके कि पावर प्वाइंट बिजनेस प्लान किसी कैफे कॉफी डे जैसे आउटलेट्स में बैठकर तैयार होते हैं, वैसे इन इकाइयों के साथ भी वित्तीय समस्याएं होती हैं। ये तो वास्तव में दुकानदार, वेंडर्स, शिल्पकार, बुनकर जैसे छोटे निजी कारोबारी हैं, जिनके लिए वित्त जुटाना हमेशा एक समस्या रही है। हालांकि ये अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं और रोजगारों के सृजन में इनका बड़ा योगदान है।

वाणिज्यिक बैंक इन्हें कर्ज देने के प्रति अनिच्छुक होते हैं क्योंकि इन्हें उच्च-जोखिम वाले उद्यमों की तरह देखा जाता है, जिनके नाकाम होने का खतरा ज्यादा होता है। और चूंकि इनमें से ज्यादातर शुरुआती उद्यमी होते हैं, लिहाजा इनके कामकाजी प्रदर्शन की कोई पृष्ठभूमि भी नहीं होती, जिसके आधार पर इनका आकलन किया जा सके। जब बैंक इन्हें कर्ज देते हैं तो ब्याज दरें भी उच्च (दो अंकों में) होती हैं। इसके लिए कोई बैंकों को दोष नहीं दे सकता। आखिरकार उन्हें भी मार्केट में बने रहते हुए अपनी लाभदायकता को बरकरार रखना है, लेकिन इससे छोटे कारोबारियों की जिंदगी जरूर मुश्किल हो जाती है। भारतीय रिजर्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2007-08 से 2013-14 के बीच वाणिज्यिक बैंकों द्वारा कुल दिए गए कर्जों में छोटे व लघु उद्योगों की हिस्सेदारी महज 6 फीसदी रही। यहां तक कि कर्ज की प्राथमिकता वाले सेक्टरों में भी इस अवधि के दौरान उनकी हिस्सेदारी 17-18 प्रतिशत ही रही। इसके अलावा मुद्रा बैंक के लक्षित सेक्टर का महज 4 फीसदी लोग ही इस अल्प संस्थागत वित्त का लाभ उठा रहे हैं।

असंगठित क्षेत्र के उद्यमों के लिए राष्ट्रीय आयोग (एनसीईयूएस) के मुताबित 5 लाख रुपए तक निवेश करने वाली इकाइयों को कर्ज ज्यादातर प्रधानमंत्री रोजगार योजना जैसी सरकार प्रायोजित योजनाओं के जरिए मिलता है। इसका मतलब है कि बैंक अपने कार्यक्रमों के तहत उन्हें कर्ज नहीं देते। शिल्पकारों और ग्रामीण उद्योगों को वाणिज्यिक बैंकों की ओर से एक फीसदी से भी कम कर्ज मिला। ग्रामीण इलाकों में स्थिति और विकट है, जहां निजी सूदखोर महाजन अनुसूचित जाति के उद्यमियों को कर्ज नहीं देते, यानी यहां जाति का फैक्टर भी काम करता है।

एनसीईयूएस के मुताबिक 'इस सेक्टर की वृहद संभावनाओं को देखते हुए कह सकते हैं कि यदि इसे समुचित कर्ज मिलता, तो यह कहीं ज्यादा रोजगारों के अवसर सृजित करता, इसका आउटपुट कहीं ज्यादा होता और निर्यातों में भी इजाफा होता।" प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी मुद्रा बैंक की लांचिंग के वक्त कुछ ऐसी ही बातें कही।

हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि पहले की सरकारों ने इस समस्या को नजरअंदाज किया। लघु उद्योग क्षेत्र को कर्ज देना बैंकों के लिए कर्ज के तय मानदंडों में प्राथमिकता में शुमार है। लघु व छोटे उद्यमों को वित्तीय मदद देने की खातिर वर्ष 1990 में भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक (सिडबी) की स्थापना भी हुई थी। साफ है कि इस सबसे मदद नहीं मिली, इसीलिए अब मुद्रा बैंक की स्थापना की गई।

 

मुद्रा बैंक अपने 20,000 करोड़ रुपए के कोष के साथ अन्य कर्जदाता संस्थाओं को रिफाइनेंसिंग के जरिए मदद करेगा, जो छोटे व लघु उद्यमियों को कर्ज देंगी। ऐसा एक चैनल सूक्ष्म-वित्त संस्थाओं और और अन्य गैर-बैंकिंग कंपनियों का है। ये संस्थाएं तकरीबन 13 फीसदी की दर पर उधार लेती हैं और इसे आगे 20 प्रतिशत की दर पर दूसरों को देती हैं। मुद्रा बैंक इसे निम्न दर पर रिफाइनेंस करेगा और इससे छोटे व लघु उद्यमों को सस्ती दरों पर कर्ज मिल सकेगा। इसके अलावा मुद्रा बैंक माइक्रो-फाइनेंस संस्थाओं के लिए नीतिगत दिशा-निर्देश भी तैयार करेगा, उनका आकलन और नियंत्रण करेगा।

 

हालांकि मुद्रा बैंक एक अहम जरूरत को साध रहा है, फिर भी यह सवाल तो उठता है कि क्या इस जरूरत की पूर्ति का यह सही तरीका है? यदि सिडबी उन समस्याओं का निराकरण करने में सफल नहीं रहा, जिनकी वजह से इसे स्थापित किया गया था, तो क्या ऐसी ही एक और संस्था स्थापित करना इस दिशा में आगे बढ़ने का सही तरीका है? क्या सिडबी की भूमिका और कामकाज को उस असल मुद्दे के समाधान के लिहाज से नहीं बदला जा सकता था, जिसके लिए मुद्रा बैंक की स्थापना की गई है?

 

बैंकिंग इंडस्ट्री के सूत्रों का कहना है कि राजनीतिक और ब्यूरोक्रेटिक दखलंदाजी की वजह से सिडबी उतना सफल नहीं हो सका, जितना कि इसके बारे में सोचा गया था। ये समस्या तो मुद्रा बैंक के साथ भी रह सकती है क्योंकि यह भी सरकारी तंत्र के अधीन ही स्थापित है। अभी यह पूरी तरह साफ नहीं है कि इसे इस तरह की दखलंदाजी से अछूता रखने के लिए कौन-से सुरक्षा-उपाय अपनाए जाएंगे।

 

मुद्रा बैंक प्रधानमंत्री की एक पसंदीदा परियोजना है, लिहाजा इस बात की पूरी संभावना है कि इसे सफल बनाने के लिए तमाम अवरोधों को दूर किया जाएगा। हालांकि इससे वित्त की चाहत रखने वाली परियोजनाओं के प्रति जरूरी सतर्कता में कमी आ सकती है। छोटे उद्यमियों के पीछे बड़ी राजनीतिक ताकत होती है और यदि पर्याप्त सुरक्षा-उपाय नहीं अपनाए गए तो हम छोटे व लघु उद्यमियों के नाम पर एक तरह के लोन मेेले का आयोजन होता भी देख सकते हैं। इस तरह देखा जाए तो कम समय में सफलता पाने का दबाव मुद्रा बैंक की दीर्घकालीन सफलता की संभावनाओं पर असर डाल सकता है। वाणिज्यिक लीक पर चलते हुए ही इसे दीर्घकालिक सफलता मिल सकती है।

 

वित्तीय क्षेत्र के विश्लेषकों ने यह अंदेशा भी जताया है कि मुद्रा बैंक शैडो बैंकिंग की वृत्ति को संस्थागत रूप दे सकता है। शैडो बैंकिंग यानी वाणिज्यिक बैंक जो परंपरागत रूप से करते हैं, वह गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थाओं द्वारा किया जाना। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के मुताबिक वैश्विक वित्तीय तंत्र के नाकाम होने के पीछे शैडो बैंकिंग भी एक कारण रहा, जिसके चलते 2008 में व्यापक मंदी आई। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शैडो बैंकिंग को लेकर चिंता बढ़ रही है और भारतीय रिजर्व बैंक भी इसे बढ़ने से रोकने के लिए कदम उठा रहा है।

 

मुद्रा बैंक का विचार भले ही बहुत अच्छा हो और छोटे व लघु उद्यमियों को इसके जरिए तमाम मदद मिल सकती है, लेकिन यह भी पूर्ववर्ती योजनाओं की तरह नाकाम न हो जाए, इस खातिर हमें उपरोक्त मसलों पर भी गौर करना होगा।

(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं

साभार http://naidunia.jagran.com/ से 

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