आजकल रोहिंग्या मुसलमानों का मुद्दा सुर्ख़ियों में है. यूं तो इसका प्रत्यक्ष तौर पर भारत से कोई नाता नहीं है, लेकिन सीमा पार से आ रहे शरणार्थियों ने इसे नई दिल्ली के लिए भी अहम् मुद्दा बना दिया है. दरअसल म्यांमार में अल्पसंख्यक माने जाने वाले रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ हिंसा का माहौल है, जिसके चलते वो दूसरे मुल्कों का रुख करने को विवश हैं. इस विवशता ने भारत सहित कई अन्य देशों के सामने शरणार्थियों की समस्या को जन्म दिया है और आने वाले दिनों में इस समस्या के गंभीर होने की आशंका है. क्योंकि इस तरह की घटनाएं चेन रिएक्शन जैसी होती हैं. रोहिंग्या मुसलमान अकेले म्यांमार में ही नहीं हैं, श्रीलंका में भी वो अल्पसंख्यक जीवन व्यतीत कर रहे हैं. इसके अलावा चीन में भी जब-तब उइगुर मुस्लिमों के शोषण के खिलाफ आवाज़ बुलंद होती रहती है. कुछ साल पहले वहां के हालात म्यांमार जैसे हो गए थे.
माना जाता है कि रोहिंग्या मुसलमान 1400 ई. के आस-पास बर्मा (म्यांमार) में आकार बसे. उन पर अत्याचार का सिलसिला उस दौर से ही जारी है, जिसकी वजह से इस समुदाय का एक बड़ा तबका बांग्लादेश में निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहा है. रोहिंग्या मुस्लिमों को म्यांमार की नागरिकता भी प्राप्त नहीं है. संयुक्त राष्ट्र सहित कई देश म्यांमार के हालात पर चिंता जाहिर कर चुके हैं और इसके लिए सीधे तौर पर आंग सान सू ची की सरकार को दोषी ठहराया जा रहा है. इसके अलावा इन मुस्लिमों को पनाह देने की मांग भी लगातार उठ रही है.
बेमतलब के तर्क
भारत के अंदर भी बड़े पैमाने पर यह माना जा रहा है कि संकट की इस घड़ी में हमें रोहिंग्या का साथ देना चाहिए, हालांकि मोदी सरकार इसके लिए तैयार नज़र नहीं आती. प्रधानमंत्री मोदी जब बीते दिनों म्यांमार की यात्रा पर गए, तो संपूर्ण विश्व टकटकी लगाए देख रहा था कि वे रोहिंग्या समस्या पर वहां के शासकों से क्या बात करते हैं. इसलिए जब मोदी ने इस मुद्दे को अपने एजेंडे से बिल्कुल अलग रखा, तो उन पर सवाल खड़े किए जाने लगे. सिद्धार्थ वरदराजन जैसे वरिष्ठ पत्रकारों ने तो रोहिंग्या की मदद के लिए आगे न आने को मोदी और भाजपा के हिंदुत्व एजेंडे से जोड़ डाला. ये बेहद दुःख की बात है कि बुद्धिजीवी कहा जाने वाला तबका भी आम लोगों की तरह हर मुद्दे को एक ही नज़रिए से देखने की मानसिकता से ग्रस्त है. इसमें कोई दोराय नहीं कि पिछले कुछ वक़्त में अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा के मामले बढ़े हैं, और इसके लिए हिंदूवादी एजेंडे को कुसूरवार माना जा रहा है. लेकिन रोहिंग्या मुसलमानों की समस्या को क्या इसी चश्मे से देखना नासमझी नहीं?
हैं कुछ मजबूरियां
भारत सरकार यदि रोहिंग्या मुस्लिमों से दूरी बनाए हुए है, तो उसके कई वाजिब कारण हैं. यह मसला अगर देश की सीमा के भीतर का होता तो इस दूरी को जायज ठहराया जा सकता था, लेकिन यहां सरकार को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने कूटनीतिक और आर्थिक हितों को भी ध्यान में रखना है. म्यांमार में प्राकृतिक ऊर्जा का भंडार है, जो भारत की उर्जा ज़रूरतों को बड़े पैमाने पर पूरा कर सकता है. इसके अलावा उत्तरपूर्वी राज्यों में सक्रिय उन आतंकियों के खिलाफ भी भारत को म्यांमार के साथ की ज़रूरत रहती है, जो छुप-छुप पर देश विरोधी गतिविधियों को अंजाम देते हैं.
भारत की सबसे बड़ी समस्या चीन और म्यांमार के बीच बढ़ती नजदीकी भी है. चीन म्यांमार के सबसे बड़े समर्थक के रूप में उभरकर सामने आ रहा है. नोबल पुरस्कार विजेता मलाला ने जब रोहिंग्या मुस्लिमों पर अत्याचार के लिए बर्मा सरकार को कोसा, तो उनका विरोध करने वालों में चीन पहले नंबर पर था. 2006 में जब म्यांमार पर प्रतिबंध लगाने के लिए सुरक्षा परिषद में प्रस्ताव पेश किया गया था, तो चीन और रूस ने ही उसे वीटो किया था. 1993 में जब भारत ने आंग सान सू ची को नेहरू सम्मान से नवाज़ा था, तो बर्मा सरकार ने हमारे बागियों से शिकंजा ढीला कर लिया. इसी तरह 2001 में भारत के इस आरोप के जवाब में कि अल कायदा से जुड़े परमाणु वैज्ञानिक म्यांमार में छुपे हैं, वहां की सरकार ने तकरीबन 200 आतंकियों को मुक्त कर दिया था.
पहले विचार करें
म्यांमार के साथ भारत की सीमा 1300 किमी लंबी है. हमारा समस्याग्रस्त पूर्वोत्तर क्षेत्र म्यांमार से लगा हुआ है, ऐसे में यदि हमारा कोई कदम वहां की हुकूमत को नाराज़ करता है, तो परिणाम गंभीर हो सकते हैं. वैसे गौर करने वाली बात यह भी है कि मानवाधिकारों की मूरत कही जाने वालीं आंग सान सू ची सत्ता में होने के बावजूद खामोश हैं. जो अत्याचार संपूर्ण विश्व को नज़र आ रहा है, वो उन्हें क्यों नहीं? राष्ट्रपति की कुर्सी पर भले ही वे विराजमान न हों, लेकिन सब जानते हैं कि सत्ता की बागडोर उन्हीं के हाथ है. ठीक वैसे ही जैसे कभी मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते हुए सोनिया गांधी सत्ता संभाल रहीं थीं. ऐसे में भारत रोहिंग्या मुसलमानों को पनाह देकर या उनके समर्थन में आवाज़ उठाकर बेवजह म्यांमार से दुश्मनी मोल क्यों ले? इस मुद्दे पर नई दिल्ली की ख़ामोशी पूरी तरह जायज है, क्योंकि राष्ट्रीय हितों की कुर्बानी देकर वैचारिक लकीर का फ़कीर बनने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है.
साभार-http://samachar4media.com/ से