चिपको आंदोलन की आज 45वीं वर्षगांठ है. इस मौके पर गूगल ने एक खूबसूरत डूडल इसे समर्पित किया है. साथ ही इस आंदोलन के बारे में गूगल ने लिखा है कि यह एक ‘ईको-फेमिनिस्ट’ आंदोलन था जिसका पूरा ताना-बाना महिलाओं ने ही बुना था.
चिपको आंदोलन का जब भी जिक्र होता है तो यह कहा तो जाता है कि इस आंदोलन में महिलाओं की मुख्य और सक्रिय भूमिका रही है, लेकिन उनकी इस मुख्य भूमिका को बस एक पंक्ति में ही समेट दिया जाता है जो कहती है – ‘चिपको आंदोलन का नेतृत्व महिलाओं ने किया था.’ इसके अलावा चिपको आंदोलन का पूरा श्रेय कुछ चुनिंदा लोगों तक ही सीमित कर दिया जाता है.
इसमें कोई दोराय नहीं कि चिपको आंदोलन में चंडी प्रसाद भट्ट और सुंदरलाल बहुगुणा जैसे लोगों ने मुख्य और सक्रिय भूमिका निभाई है जिसके चलते उन्हें रेमन मैगसेसे, गांधी शांति पुरस्कार, पद्मभूषण और पद्मविभूषण जैसे सर्वोच्च सम्मान भी मिले हैं. लेकिन जिन महिलाओं ने इस पूरे आंदोलन की जमीन तैयार की और इसे खड़ा किया, उन महिलाओं के नामों पर बेहद कम ही चर्चा हो पाती है.
मशहूर सामाजिक कार्यकर्ता वंदना शिवा ने अपनी चर्चित किताब ‘स्टेइंग अलाइव: वीमेन इकोलॉजी एंड सर्वाइवल इन इंडिया’ में चिपको आंदोलन के इस पहलू पर विस्तार से लिखा है. उन्होंने इस किताब में उन तमाम महिलाओं का जिक्र किया है जिनके कारण चिपको एक बड़े आंदोलन में तब्दील हो सका. राजस्थान में हुए चिपको आंदोलन से शुरुआत करते हुए वे लिखती हैं, ‘लगभग तीन सौ साल पहले राजस्थान में बिश्नोई समुदाय के तीन सौ से भी ज्यादा लोगों ने अपने पेड़ों को बचाने के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे. अमृता देवी नाम की एक स्थानीय महिला के नेतृत्व में ये लोग पेड़ों को कटने से बचाने के लिए उनसे लिपट गए थे. इसी घटना के साथ ‘चिपको’ के लिखित इतिहास की शुरुआत होती है.’
70 के दशक में उत्तराखंड से शुरू हुए चिपको आंदोलन के बारे में वंदना शिवा इस किताब में लिखती हैं, ‘हालिया चिपको आंदोलन को प्रमुखतः महिलाओं का आंदोलन कहा जाता है. इसके बावजूद इसकी चर्चा में सिर्फ पुरुष कार्यकर्ताओं के नाम ही सामने आते हैं. इस आंदोलन में महिलाओं के योगदान को नज़रंदाज़ किया गया और इस पर कम ही चर्चा हुई. जबकि चिपको का इतिहास असल में बेहद साहसी महिलाओं के संकल्प और प्रयासों का इतिहास है.’
महिलाओं की भूमिका पर चर्चा करने को बेहद जरूरी बताते हुए वंदना लिखती हैं, ‘जिन महिलाओं ने चिपको को एक बड़े आंदोलन में बदलने के लिए उत्प्रेरक की भूमिका निभाई वे थीं मीरा बेन, सरला बेन, बिमला बेन, हिमा देवी, गौरा देवी, गंगा देवी, बचना देवी, इतवारी देवी, छमुन देवी और कई अन्य.’ वे आगे लिखती हैं, ‘सुंदरलाल बहुगुणा, चंडी प्रसाद भट्ट, घनश्याम ‘शैलानी’ और धूम सिंह नेगी जैसे आंदोलन से जुड़े पुरुष इन्हीं महिलाओं के छात्र और अनुयायी रहे हैं.’
इन महिलाओं के बारे में विस्तार से बताते हुए वंदना शिवा लिखती हैं, ‘मीरा बेन महात्मा गांधी की सबसे करीबी अनुयायियों में से एक थी जो 40 के दशक के अंत में हिमालय क्षेत्र में आ गई थी. ऋषिकेश और हरिद्वार के बीच उन्होंने मवेशियों के एक केंद्र की भी शुरुआत की जिसका नाम ‘पशुलोक’ है. गढ़वाल में रहने के दौरान उन्होंने पर्यावरण का गहन अध्ययन किया और इसके बारे में स्थानीय लोगों से ज्ञान हासिल किया. मीरा बेन के इस ज्ञान की विरासत सुंदरलाल बहुगुणा को मिली जिन्होंने उनके साथ भिलंगना घाटी में काम किया.’
इस किताब में यह भी बताया गया है कि शुरूआती दौर में महिलाएं और पुरुष अलग-अलग कारणों के चलते चिपको आंदोलन से जुड़े थे. जंगलों पर अपनी निर्भरता को महिलाएं अपने अस्तित्व के रूप में देखती थीं. उनके लिए जंगल बचाना अपने अस्तित्व को बचाने जैसा था और यही चिपको आंदोलन की नींव भी बना. उधर, पुरुष इस आंदोलन से अपने व्यावसायिक हितों के चलते जुड़े. 60 के दशक के अंत तक पहाड़ों में स्थानीय सहकारी समितियों की मदद से कई लघु उद्योग बन गए थे. दशोली ग्राम स्वराज संघ, पुरोला ग्राम स्वराज संघ, गंगोत्री ग्राम स्वराज संघ, बेरीनाग ग्राम स्वराज संघ, कत्यूर ग्राम स्वराज संघ, ताकुला ग्राम स्वराज संघ आदि के अंतर्गत कई आरा मशीनें और पेड़ों से निकलने वाले गोंद की फैक्ट्री चल रही थीं. इनसे जुड़े लोगों को डर था कि पेड़ काटने के ठेके यदि बाहरी ठेकेदारों को दिए जाएंगे तो कच्चे माल का संकट पैदा हो जाएगा. शुरूआती दौर में स्थानीय पुरुष इन ‘बाहरी ठेकेदारों’ के विरोध में ही चिपको से जुड़े थे.
इस दौर में सुंदरलाल बहुगुणा ने मजबूती से महिलाओं की चिंता की वकालत की. उन्होंने और मीरा बेन ने ही हिमालयी पहाड़ों को बचाने का दार्शनिक और वैचारिक ढांचा तैयार किया. जबकि महिला आंदोलन को संगठनात्मक रूप देने की जिम्मेदारी गढ़वाल में सरला बेन और बिमला ने तो कुमाऊं में राधा भट्ट ने निभाई. 60 के दशक में ही पहाड़ों में महिलाओं के नेतृत्व में शराब-विरोधी आंदोलन भी चल रहा था. इस आंदोलन की विरासत भी आगे चलकर चिपको आंदोलन को मिली.
सरला बेन ने महिला सशक्तिकरण के उद्देश्य से कौसानी में लक्ष्मी आश्रम की स्थापना की थी. बिमला बेन ने यहां उनके साथ सात साल बिताए और फिर इस काम को विस्तार देते हुए टिहरी जिले के सिलयारा में नवजीवन आश्रम की शुरुआत की. चिपको आंदोलन को चलाने में इस आश्रम की भी अहम भूमिका रही. इस तरह से 70 के दशक की शुरुआत में ही महिलाओं का संगठनात्मक ढांचा तैयार हो चुका था.
1972 में बाहरी ठेकेदारों द्वारा जंगलों की कटाई का जगह-जगह विरोध शुरू हुआ. इसी दौर में घनश्याम रतूड़ी ने कुछ जनगीत लिखे जो बेहद चर्चित हुए और हर जगह विरोध के स्वर बन गए. प्रदेश भर में महिलाओं के विकेंद्रित नेतृत्व में आंदोलन ने जोर पकड़ना शुरू किया. सुंदरलाल बहुगुणा, चंडी प्रसाद भट्ट और धूम सिंह नेगी जैसे लोगों ने इस दौर में आंदोलन के संदेश को गांव-गांव में पहुंचाने का काम किया.
वंदना शिवा लिखती हैं, ‘मार्च 1973 में एक व्यापारी को तीन सौ पेड़ नीलाम कर दिए गए थे. लेकिन जब इन्हें काटने का समय आया तो गांव के लोग ढ़ोल बजाते हुए जंगलों की तरफ बढे और उन्होंने पेड़ नहीं कटने दिए. इस व्यापारी को यहां से तो लौटना पड़ा लेकिन सरकार ने इसके बदले उसे केदार घाटी में रामपुर फाटा के जंगलों को काटने की अनुमति दे दी. लोगों को जब इसकी खबर हुई तो उन्होंने केदार घाटी की तरफ बढना शुरू किया. 72 वर्षीय श्यामा देवी ने इन लोगों का नेतृत्व किया जिन्हें 60 के दशक के शराब-विरोधी आंदोलन का भी अनुभव था. श्यामा देवी ने स्थानीय महिलाओं को एक किया और पूरा रामपुर फाटा चिपको के नारों से गूंज उठा. अंततः यहां भी व्यापारियों को हार माननी पड़ी.’
इसके बाद चिपको आंदोलन अलकनंदा घाटी की तरफ बढ़ा. रैणी गांव में घास काट रही महिलाओं ने जब कुछ लोगों को हाथ में कुल्हाड़ी लिए देखा तो उन्होंने तुरंत ही अपनी सभी महिला साथियों को बुलाया और कुल्हाड़ी लिए इन लोगों को घेर लिया. इन महिलाओं का नेतृत्व गौरा देवी ने किया और गंगा देवी, रुपसा, भक्ति, मासी, हरकी, मालती, फगली और बाला देवी जैसी कई महिलाओं ने उनके कंधे से कंधे मिलाया. इन तमाम महिलाओं का जिक्र करते हुए वंदना शिवा अपनी किताब में बताती हैं कि इन महिलाओं ने जंगलों की निगरानी के लिए कई छोटी-छोटी टुकड़ियां बनाईं और तब तक वे जंगलों की रखवाली करती रहीं जब तक सरकार पूरी अलकनंदा घाटी में पेड़ों के कटान को प्रतिबंधित करने पर मजबूर नहीं हो गई.
इसके बाद चिपको आंदोलन को और भी तेजी मिली. आंदोलनकारियों ने मांग की कि उत्तर प्रदेश के सभी पहाड़ी जिलों में जंगलों के व्यवसायिक दोहन पर पूर्ण प्रतिबंध लगे. इस पूर्ण प्रतिबंध की मांग की सबसे मजबूत पैरवी भी हिमा देवी नाम की एक 50 वर्षीय महिला ने ही की. हिमा देवी ने गांव-गांव घूमकर लोगों को यह संदेश दिया कि ‘मेरी बाकी बहनें इस वक्त खरीफ की फसल लगाने में व्यस्त हैं. मैं अपनी सभी बहनों का संदेश लेकर आप लोगों के बीच आई हूं कि हमें पेड़ों को बचाने की लड़ाई लड़नी है.’
वंदना शिवा ने अपनी किताब में जिक्र किया है कि साल 1975 की शुरुआत में ही पहाड़ी महिलाओं ने उत्तरकाशी से कौसानी तक की 75 दिनों की पदयात्रा भी की. देवप्रयाग से नौगांव तक की भी 50 दिनों की एक अन्य पदयात्रा इस दौरान की गई. बिमला बेन और राधा भट्ट ने इन पदयात्राओं में हिस्सा लिया और लोगों को समझाया कि कैसे जंगलों के कटने से महिलाओं पर बोझ बढ़ रहा है.
चिपको आंदोलन में एक अहम पड़ाव और महिलाओं की इसमें भागीदारी का एक प्रमाण टिहरी की हेंवलघाटी में मौजूद अदवाणी नाम का जंगल भी है. अक्टूबर 1977 में इस जंगल की नीलामी कर दी गई. सुंदरलाल बहुगुणा इस नीलामी के खिलाफ भूख हड़ताल पर भी बैठे लेकिन लाख विरोध के बावजूद भी नीलामी नहीं रुकी और दिसंबर के पहले हफ्ते में पेड़ों का कटान तय कर दिया गया. एक बार फिर से महिलाओं के समूह ने इसका पुरजोर विरोध किया और इस बार नेतृत्व की कमान संभाली बचनी देवी ने. बचनी देवी उसी ग्राम प्रधान की पत्नी थी जिसे पेड़ों को काटने का ठेका मिला था. लेकिन उन्होंने अपने पति के खिलाफ भी बगावत का झंडा उठाया और सैकड़ों महिलाओं से साथ जंगलों में पेड़ों की रखवाली के लिए तैनात हो गईं.
13 से 20 दिसंबर के बीच कुल 15 गांव की महिलाओं ने पेड़ों को राखी बांधकर उनकी रक्षा का वचन लिया और अदवाणी के जंगलों में तैनात हो गईं. अंततः पेड़ काटने आए लोगों को खाली हाथ ही लौटना पड़ा. लेकिन एक महीने बाद ही ये ठेकेदार हथियारबंद पुलिस दल से साथ लौटा. दो ट्रक भरकर आए पुलिस वालों की रणनीति यह थी कि जंगल को चारों तरफ से घेर लिया जाए और जब तक कटान हो किसी भी ग्रामीण को जंगल में घुसने ही न दिया जाए. लेकिन आंदोलन से जुड़े लोगों को इस रणनीति की भनक लग गई थी. पुलिस की टीम जब जंगल पहुंची तो देखा एक-एक पेड़ से तीन-तीन लोग चिपक कर खड़े थे.
चिपको आंदोलन में यदि महिलाओं की सक्रिय भूमिका नहीं होती तो शायद ये कभी इतना बड़ा और ऐतिहासिक आंदोलन नहीं बन सकता था. क्योंकि शुरूआती विरोध के बाद पेड़ काटने का ठेका निजी ठेकेदारों की जगह सरकारी एजेंसियों को दे दिया गया था. इसके बाद स्थानीय पुरुषों द्वारा पेड़ काटने का विरोध लगभग ख़त्म ही हो चुका था. ऐसे में महिलाएं ही थीं जिन्होने न सिर्फ इस आंदोलन को जारी रखा बल्कि इसे और भी व्यापक रूप दिया. महिलाओं के लिए यह मायने नहीं रखता था कि पेड़ कोई बाहर वाला काट रहा है या उनके अपने लोग. उन्हें हर हाल में अपने जंगल बचाने थे जिसके लिए बचनी देवी जैसी महिलाओं ने अपने ही पति के खिलाफ भी आंदोलन किया. लिहाजा बहुत से लोग अब यह जरूरी मानते हैं कि चिपको आंदोलन का जब भी जिक्र किया जाए, इसमें महिलाओं की भूमिका को मात्र एक पंक्ति में न समेट दिया जाए. उन्हें आंदोलन का पूरा श्रेय देते हुए उनके योगदान को विस्तार से दोहराया जाए.
साभार- https://satyagrah.scroll.in से