जम्मू-कश्मीर से हिंदू समाज को बाहर करने की तैयारी तो मुसलमानों ने आजादी के समय 1947 से पहले शुरू कर दी थी। पर उस समय तब उनकी आबादी इतनी ज्यादा नही थी, लेकिन बहुसंख्यक समाज पर उनके अत्याचार शुरु होने शुरु हो गए थे। 1980 के दशक में आते-आते उन्होंने हिंदुओं को सरेराह पीटना शुरु कर दिया था और माताओं बहनों की इज्जत को सरेराह बीच बाजार उतारना शुरू कर दिया था। 19 जनवरी 1986 में भी अनंतनाग में भी हिंदुओं पर मुसलमानों ने हमला किया था। जिसमें काफी लोगों को चोटें आई थी। इस तरह हिंदुओं पर घाटी में हमले की शुरूआत हो चुकी थी।
जनवरी 1990 आते-आते घाटी में अलगाववादी ताकतों का हिंदुओं पर अत्याचार लगातार बढ़ रहा था। अगर घाटी में रहना है तो अल्लाह हू अकबर कहना होगा। कश्मीर बनेगा पाकिस्तान बिना कश्मीरी हिंदू मर्दों के और हिंदू औरतों के साथ, इस प्रकार के नारे लगाए जा रहे थे । घाटी के हिंदुओं ने अपनी मां, बहन, बेटियों और पत्नियों को अपने ही घर में केरोसिन तेल की बोतलें हाथों में देकर छिपाया था और कहा अगर जालिम तुम्हारी इज्जत पर हमला करें तो खुद को आग लगा लेना। बांदीपोरा में शिक्षिका गोरी टिक्कू की गैंगरेप के बाद हत्या कर दी गई। टीकालाल टप्लु और नीलकंठ गंजू को सरेराह बीच बाजार में मार दिया गया। एडवोकेट प्रेमनाथ भट्ट की भी निर्मम हत्या कर दी गई। एक नही अनगिनत जम्मू-कश्मीर के हिंदुओं की निर्मम हत्या कर दी गई। 4 जनवरी 1990 को आफताब समाचार पत्र और अलसभा समाचार पत्र ने हिज्बुल मुजाहिद्दीन का संदेश छापा, जिसमें सीधे-सीधे लिखा था, काफिरों (हिंदुओं) घाटी छोड़कर चले जाओ। पूरे जम्मू-कश्मीर की मस्जिदों से घोषणा होने लगी कश्मीर बनेगा पाकिस्तान।
“जागो-2 सुबह हुई रूस ने बाजी हारी है, हिंदुओं पर लजरा तारी है, अब कश्मीर की बारी है” इस प्रकार के नारे भीड़ गलियों में बीच चौराहों और मस्जिदों में हाथों में बंदूके लहराते हुई बोले जा रहे थे। इंसानियत के दुश्मनों ने तो हद तो उस समय कर दी, जब इन्होंने दो महीनों के बच्चों और गर्भवती महिलाओं के साथ भी बलात्कार कर उनकी हत्या कर दी। इस प्रकार के घिनौने अपराधियों के ऊपर एक एफआईआर तक दर्ज नही हुई। हिंदुओं के घरों पर कब्जा कर लिया गया और मंदिरों को ढ़हा दिया गया।
इस घटना से घाटी के हिंदू समाज के हृदय पर गहरा आघात लगा और लोगों ने 19 जनवरी 1990 को घाटी छोड़ दी। विस्थापित लोगों को जम्मू के शरणार्थी शिविरों में रहना पड़ा जहां सांप के काटने से और गर्मी के कारण लोगों की मौत होने लगी। विस्थापन का इतना बड़ा दंश झेला है, घाटी के हिंदू समाज ने।
आज रोहिंग्या मुस्लामानों के प्रति देश के तथाकथित राजनेताओं के दिल में प्यार उमड़ता दिख रहा है, लेकिन उस समय किसी भी दल के नेता के दिल में घाटी से विस्थापित बहुसंख्यक समाज के प्रति कोई प्यार नजर नहीं आया। जम्मू-कश्मीर की सरकार और साथ में केंद्र की सरकार यह तमाशा महाभारत में पांचाली के चीरहऱण की भांति देख रही थी। आज जब कश्मीर में मिनी आतंकवादियों (पत्थरबाजों) के खिलाफ सेना पैलेट गन का प्रयोग करती है तो लोकतंत्र का चौथे स्तंभ के सिपाहियों में उन पत्थरबाजों के अंदर बेचारापन नजर आता है। जिसकी आवाज को यें कलम के सिपाही एक विशेष एजेंडा के तहत चलाते है। यही हाल मानवाधिकार आयोग के ठेकेदारों का है। इतना कुछ खोने के बाद भी घाटी के मूल मालिक अपने घरों की ओर ताकते रहते हैं। इंतजार करते हैं, क्या मिलेगा उनको न्याय, क्या मिलेगा उनको अपना घर जो उनका अपना है ?
(लेखक सामाजिक व राजनीतिक विषयों पर लिखते हैं)