‘बेशक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में कूटनीतिक स्तर पर हिंदी कुछ आगे बढ़ी है, लेकिन हिंदी को उसका उचित स्थान दिलाने का सपना अब भी अधूरा है।’ हिंदी दैनिक अखबार हिन्दुस्तान में छपे अपने आलेख के जरिए ये कहा उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय के प्रोफेसर गोविंद सिंह का। उनका पूरा आलेख आप यहां पढ़ सकते हैं:
अमेरिका में हिंदी की छत्रछाया समझे जाने वाले डॉक्टर राम चौधरी का पिछले दिनों 20 जून को निधन हो गया। राम चौधरी के जाने का तो दुख है ही, इससे भी दुखद यह है कि हिंदी मीडिया में इसकी सूचना नहीं दिखी। आप कहेंगे कि कौन थे राम चौधरी? वह उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के भूलपुर गांव में पैदा हुए थे। अपने गांव के पहले व्यक्ति थे, जो हाईस्कूल पहुंचे। उनकी प्रतिभा उन्हें अमेरिका ले गई, जहां उन्होंने पीएचडी और आगे की पढ़ाई की। वह न्यूयॉर्क की ओसवेगो यूनिवर्सिटी में भौतिक शास्त्र के प्रोफेसर बनाए गए। वहां वह मृत्युपर्यंत (88 साल की उम्र तक) एमिरेटस प्रोफेसर रहे। बेशक फिजिक्स की शिक्षा में उनका बड़ा योगदान था, लेकिन हम उन्हें यहां उनकी हिंदी-सेवा के लिए याद कर रहे हैं।
प्रोफेसर चौधरी अमेरिका में थे, पर वह अपने गांव को कभी नहीं भूले। उन्होंने अपने गांव में गरीब लड़कियों के लिए एक इंटर कॉलेज बनवाया, जिसके लिए अपनी जेब से एक लाख डॉलर दिया, अपनी पैतृक संपत्ति दी और अमेरिका से काफी चंदा भी जुटाया। हिंदी को उसका स्थान दिलाने के लिए आजीवन संघर्षरत रहे प्रोफेसर चौधरी ने अमेरिका में पहले अंतरराष्ट्रीय हिंदी समिति और बाद में विश्व हिंदी न्यास गठित कर संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को पहुंचाने की कोशिशें कीं। जो लोग कहते थे कि विज्ञान को हिंदी में नहीं पढ़ाया जा सकता, उन्हें उन्होंने हिंदी में विज्ञान की किताबें लिखकर करारा जवाब दिया।
हिंदी जगत, बाल हिंदी जगत, विज्ञान प्रकाश आदि पत्रिकाएं प्रकाशित करके हिंदी की मशाल जलाए रखी। ये पत्रिकाएं अमेरिका में तो हिंदी भाषियों के बीच सेतु का काम करती ही थीं, साथ ही विश्व भर में फैले हिंदी प्रेमियों के लिए भी संबल थीं। कुछ समय तक मुझे विज्ञान प्रकाश के प्रकाशन से जुड़ने का मौका मिला था, तब उनसे बात करने का अवसर मिला। वह अक्सर कहा करते थे कि हमें सदियों पहले मॉरिशस, फिजी, ट्रिनिडाड पहुंचे गिरमिटिया मजदूरों से सबक लेना चाहिए, जिन्होंने तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी भाषा व संस्कृति को बचाकर रखा।
हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनवाने के लिए प्रोफेसर चौधरी अमेरिका में सकारात्मक माहौल बनाने में लगे थे। वह अमेरिकी विश्वविद्यालयों में हिंदी चेयर स्थापित करवाने की कोशिशों में भी लगे हुए थे। एक चेयर की स्थापना पर करीब एक करोड़ अमेरिकी डॉलर खर्च होते हैं। भारतवंशी अमेरिकियों के पास धन की कमी नहीं, मगर प्रोफेसर चौधरी इस बात पर चिंता जताते कि धार्मिक कार्यों के लिए तो वे जी भरकर धन देते हैं, लेकिन हिंदी के लिए नहीं। वह प्राय: चीनियों का उदाहरण देते कि किस तरह से वे अपनी भाषा-संस्कृति को दुनिया भर में स्थापित करने की जुगत में लगे रहते हैं। बेशक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में कूटनीतिक स्तर पर हिंदी कुछ आगे बढ़ी है, लेकिन हिंदी को उसका उचित स्थान दिलाने का सपना अब भी अधूरा है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
(साभार: दैनिक हिन्दुस्तान एवं http://www.samachar4media.com/ से )