Saturday, November 23, 2024
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उत्तर आधुनिकता, साहित्य और मीडिया पर एक उपयोगी पुस्तक

यों तो उत्तर आधुनिक विमर्श पर केंद्रित अनेक पुस्तकें बाजार में उपलब्ध हैं जो विद्वत्तापूर्ण सामग्री से लबरेज हैं, किंतु उनकी एक बड़ी सीमा यह है कि प्रायः विद्वत्ता के बोझ के कारण विषय की संप्रेषणीयता खतरे में पड़ जाती है और सामान्य पाठक कोई दिशा प्राप्त करने के बजाय फतवेबाजी के भवंरजाल में फँसकर रह जाता है. ऐसी क्लिष्ट पांडित्यपूर्ण पुस्तकों के नीचे दबे पाठक को ऋषभदेव शर्मा और गुर्रमकोंडा नीरजा द्वारा संपादित ‘उत्तर आधुनिकता : साहित्य और मीडिया’ (2015) को देख-पढ़कर अवश्य ही ताजी हवा के झोंके का अहसास होगा. इसमें दो राय नहीं कि हिंदी साहित्य और समसामयिक मीडिया की विभिन्न विधाओं और धाराओं को कथ्य, रूप, भाषा और प्रस्तुती के स्तर पर उत्तर आधुनिक विमर्श ने गहराई तक प्रभावित किया है. ख़ासतौर से हाशिए के समुदायों की अधिकारचेतना की जो अभिव्यक्ति लिखित और मौखिक शब्द के माध्यम से पिछले दशकों में निरंतर तीव्रतर होती गई है, वह उत्तर आधुनिकता का ही प्रताप है – भले ही हम उसे दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श, पर्यावरण विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श, किन्नर विमर्श, समलैंगिक विमर्श, मीडिया विमर्श जैसे अनेकानेक बहुकेंद्रीयता सूचक नाम देते रहें. दरअसल यह लोतांत्रिक बहुकेंद्रीयता ही उत्तर आधुनिक विमर्श की पहचान और उपलब्धी है. इसे सरल-सहज ढंग से रेखांकित करने में प्रस्तुत पुस्तक पूर्णतः सफल है. इस हेतु संपादकद्वय और पुस्तक में सम्मिलित लेखकगण साधुवाद के पात्र हैं.

उत्तर आधुनिक विमर्श को पाठ, संरचना और उत्तर संरचना के संदर्भ में नए आयाम प्रादान करेने वाला प्रो. दिलीप सिंह का आलेख ‘उत्तर आधिनिक विमर्श : एक बहस’ इस पुस्तक का घोषणापत्र कहा जा सकता है जिसमें यह दर्शाया गया है कि ‘भाषा और साहित्य के स्तर पर हिंदी में उत्तर आधुनिकता के लक्ष्ण भारतेंदु युग से ही दिखाई देने लगते हैं तथा आज समाज और संस्कृति को प्रभावित करने वाले तमाम ज्वलंत मुद्दे उत्तर आधुनिक हैं.’ इसके अतिरिक्त प्रो. एम. वेंकटेश्वर का ‘उत्तर आधुनिक विमर्श का स्वरूप’ और डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा का ‘विभिन्नता की बुनियाद पर उत्तर आधुनिक विमर्श’ भी उत्तर आधुनिकता की सैद्धांतिकी की सरल शब्दों में व्याख्या करने वाले आलेख हैं. डॉ. मृत्युंजय सिंह के ‘मत कहो आकाश में कुहरा घना है’ और डॉ. बलविंदर कौर के ‘उत्तर आधुनिक विमर्श और पहचान का संकट’ शीर्षक आलेखों में भी इस विमर्श को खोलने की खोशिश दिखाई देती है जबकि डॉ. पेरिसेट्टि श्रीनिवास राव और डॉ. भीम सिंह ने अपने आलेखों में क्रमशः स्त्री और दलित लेखन के सवाल उठाए हैं. आदिवासी संदर्भ डॉ. घनश्याम और डॉ. प्रणव कुमार ठाकुर के आलेखों में बखूबी विवेचित है. डॉ. करन सिंह ऊटवाल का लेख नाटक और रंगमंच की उत्तर आधुनिकता को खोजता है तो डॉ. विष्णु भगवान शर्मा उत्तर आधुनिक भाषा संकट के संदर्भ में राजभाषा हिंदी से जुड़े विचारोत्तेजक प्रश्न उठाते दिखाई देते हैं.

यह तो हुई उत्तर आधुनिकता की सैद्धांतिकी तथा साहित्य और भाषा पर पड़ रही उसकी छाया की बात. प्रो. गोपाल शर्मा इनसे आगे बढ़कर समकालीन मीडिया लेखन और उत्तर आधुनिक मीडिया विमर्श की पड़ताल करते हैं जबकि डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा प्रयोजनमूलक हिंदी और प्रिंट मीडिया पर दैनिक पत्रों के संदर्भ में प्रकाश डालते हुए यह दर्शाती है कि उत्तर आधुनिकता के विस्फोट के कारण हिंदी में नई नई प्रयुक्तियों तथा उप-प्रयुक्तियों का विकास अत्यंत शुभलक्ष्ण है.

डॉ. ऋषभदेव शर्मा के इस पुस्तक में चार आलेख हैं. एक आलेख में उन्होंने भूमंडलीकरण की चुनौतियों के साथ जोड़कर मीडिया के रूपों और हिंदी के स्वरूप पर चर्चा की है तो दूसरे में उत्तर आधुनिक मीडिया और साहित्य के संबंधों की पड़ताल की है. उनका तीसरा आलेख कुछ हटकर है – ‘स्त्री और उपभोक्ता संस्कृति’. इसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि उपभोक्तावाद और उपभोक्ता संस्कृति दो भिन्न चीजें हैं तथा स्त्री समूह उपभोक्ता संस्कृति के निर्माण में रचनात्मक भूमिका निभाकर स्त्री को ‘भोग्या’ छवि से निकालकर ‘नारी से नागरिक’ बनाने की क्षमता रखते हैं. डॉ. शर्मा का अंतिम आलेख ‘हिंदी सिनेमा की उत्तर आधुनिकता’ अपने आप में एक पूरे शोधप्रबंध की रूपरेखा सरीखा है जिसमें उत्तर आधुनिक कला के बारह लक्षणों का प्रतिपादन करते हुए हिंदी सिनेमा की विवेचना की गई है. कहना न होगा कि यह शोधपूर्ण आलेख इस पुस्तक को अत्यंत मूल्यवान बनाने में समर्थ है.

कुलमिलाकर ‘उत्तर आधुनिकता : साहित्य और मीडिया’ संदर्भित विषय पर एक ऐसी पुस्तक है जिसे छात्र और शोधार्थी तो उपयोगी पाएँगे ही सामान्य जिज्ञासु पाठक भी रोचक और जानकारीपूर्ण पाएँगे.

अमन कुमार
सह-संपादक ‘मनमीत’ और ‘शार्प रिपोर्टर’
Aa A 7, आदर्श नगर, नजीबाबाद – 246763
मोबाइल – 09897742814
ईमेल – amankumarnbd@gmail.com
 
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समीक्षित पुस्तक : ''उत्तरआधुनिकता : साहित्य और मीडिया''
संपादक : ऋषभदेव शर्मा, गुर्रमकोंडा नीरजा
प्रकाशक : जगत भारती प्रकाशन , सी-3, 77 दूरवाणी नगर, एडीए, नैनी, इलाहाबाद-211008 / मो. 09936079167.
संस्करण : 2015.
ISBN : 978-93-5104-236-5.        
पृष्ठ : 135.
मूल्य : 295 रुपए (हार्ड बाउंड).

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