प्रहलाद पटेल 16 साल बाद एक बार फिर केंद्र सरकार के मंत्रिमंडल का हिस्सा बने.. कभी अटलबिहारी वाजपेयी सरकार में कोयला राज्य मंत्री की भूमिका निभाने वाले प्रहलाद को इस बार नरेंद्र मोदी ने राज्य मंत्री स्वतंत्र प्रभार के तौर पर पर्यटन और संस्कृति विभाग का दायित्व सौंपा है.. उमा भारती के कट्टर समर्थक प्रहलाद पटेल ने पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के साथ राजनीति में कदम आगे तब बढ़ाए.. जब अविभाजित मध्यप्रदेश से कैलाश विजयवर्गीय, नरेंद्र तोमर जैसे नेता छात्र राजनीति से निकलकर युवा मोर्चा से आगे बढ़कर भाजपा का चेहरा बन रहे थे..
तमाम चुनौतियों और झंझावात से बाहर प्रहलाद पटेल सिवनी-बालाघाट तो दमोह से लगातार दूसरा चुनाव जीतकर संसद में पहुंचे.. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कमलनाथ के खिलाफ छिंदवाड़ा में लोकसभा चुनाव लड़कर हार गए.. प्रहलाद के मुकाबले प्रदेश भाजपा अध्यक्ष राकेश सिंह को उनका सहयोगी माना जाता रहा.. प्रहलाद और राकेश श्री बाबा श्री के शिष्य हैं.. गोटेगांव-नरसिंहपुर की सियासत में स्वामी स्वरूपानंद से उनकी कभी नहीं बनी.. महाकौशल से निकलकर दमोह से लगातार लोकसभा के दो चुनाव जीतकर उस बुंदेलखंड का बड़ा चेहरा बन गए, जहां से कभी उमा भारती निकलकर राष्ट्रीय क्षितिज पर जा पहुंची..
भाजपा में पीढ़ी परिवर्तन के इस दौर में प्रहलाद ने बड़ी छलांग लगाकर धमाकेदार एंट्री उस वक्त मारी है, जब कैलाश विजयवर्गीय पश्चिम बंगाल के प्रभारी रहते एक आक्रामक और संघर्षशील नेता के तौर पर अमित शाह के बाद संगठन का एक बड़ा जाना पहचाना चेहरा बन चुके.. तो मध्य प्रदेश के ही नरेंद्र सिंह तोमर केंद्रीय मंत्रिमंडल में पंचायत एवं ग्रामीण विकास के साथ बतौर कृषि मंत्री पॉवरफुल होकर उभरे हैं.. मध्य प्रदेश का दलित चेहरा और केंद्रीय मंत्री थावरचंद गहलोत या फिर आदिवासी चेहरा फग्गन सिंह के मुकाबले प्रहलाद पटेल पिछड़ा वर्ग का प्रतिनिधित्व करते एक जुझारू और आक्रामक कार्यशैली के तौर पर पहचाने जाते हैं..
अटल सरकार में रहते करीब एक साल ही वह भले मंत्री रहे, लेकिन मंत्रिमंडल का अनुभव उनके पास है.. शायद यही वजह है कि उन्हें नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्र प्रभार दिया यानी बेहतर परफॉर्मेंस और मोदी की अपेक्षाओं पर यदि प्रहलाद अगले 2 साल में खरे उतरे तो अगले चुनाव से पहले उनकी पदोन्नति पक्की और महत्वपूर्ण विभाग भी मिलना तय हो जाएगा.. अमित शाह की वर्किंग को संगठन से जुड़े रहते प्रह्लाद ने बखूबी समझा तो अब सरकार में रहते मोदी के उस रोड मैप को भी समझना होगा जो न्यू इंडिया के लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ रहे.. जिन्होंने अपनी कार्यशैली अटल बिहारी के मुकाबले कुछ अलग बना ली है..
57 वर्षीय प्रहलाद सिंह पटेल कुशल वक्ता, जो स्थानीय एवं राष्ट्रीय मुद्दों पर गहरी पकड़ रखते हैं.. पांच बार के सांसद पटेल 2003 में केन्द्र की राजग सरकार में कोयला राज्य मंत्री थे.. कभी बुंदेलखंड के ही नोहटा उपचुनाव के दौरान संगठन से मतभेदों के चलते बाद में प्रहलाद भी उमा भारती के साथ हो गए थे.. पटेल ने अपने राजनीतिक जीवन में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं.. 2005 में वह भाजपा से अलग होकर भारतीय जनशक्ति में उमा भारती के साथ रहे थे.. हालांकि तीन साल बाद ही मार्च 2009 में उन्होंने भाजपा में घर वापसी कर ली और 2014 में पांच साल बाद दमोह लोकसभा सीट से चुनाव लड़े और भाजपा के सांसद बने..
पटेल, इस बार भी दमोह से जीतकर लोकसभा पहुंचे हैं.. पटेल तब चर्चा में आए थे जब 2000 में देश में गौहत्या पर प्रतिबंध के लिये एक निजी विधेयक लोकसभा में लाये थे.. पटेल सबसे पहले 1989 में लोकसभा के सदस्य चुने गये.. वह एक अनुभवी सांसद हैं.. इसके साथ ही वह लोकसभा की अनेक समितियों के सदस्य भी रहे हैं.. जिसे कभी अपनों का साथ मिला तो अपनों का तिरस्कार भी जिसने झेला.. गैरों की चोट ने जिसे सबक सिखाया ..फिर भी दो टूक बात वह भी बेबाकी से करने वाले प्रहलाद को ऐसा नही सियासत में समझौते नहीं करने पड़े ..लेकिन एक सीमा तक..
विपरीत परिस्थितियों में गजब का धैर्य और संयम लेकिन जिसने उसूलों और सिद्धांतों से कोई समझौता नहीं किया ..सियासत में जो लड़खड़ा लेकिन जिसने खुद को संभाल कर सही समय का इंतजार किया ..और अपनी लाइन बड़ी कर शानदार जानदार वापसी कर काबिलियत भी सिद्ध कर दी.. जिसने संसदीय सीट बदली तो जिसे इलाका भी बदलना पड़ा लेकिन यदि नहीं बदला तो उसका अपना सियासी अंदाज.. जिस पर आखिर नरेंद्र मोदी की निगाह पड़ी गई और जैसे अमित शाह ने मौका और अवसर उपलब्ध कराया.. यानि मौका और दस्तूर कुछ नया करने का अवसर तो पटेल को केंद्रीय मंत्री के तौर पर अपनी पारी यादगार साबित करना होगी..
पटेल अपने छात्र जीवन से ही राजनीति में सक्रिय हो गये थे.. 1980 में वह जबलपुर विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष चुने गये.. इसके बाद उन्होंने राजनीति में पलटकर नहीं देखा और लगातार आगे बढ़ते गये.. इसके बाद वह भाजपा की युवा शाखा भारतीय जनता युवा मोर्चा के प्रदेश में कई अहम पदों पर रहे.. उमा भारती ने 2003 के विधानसभा चुनाव में जब प्रदेश में दिग्विजय सिंह के नेतृत्व वाले कांग्रेस के दस वर्षीय शासन को उखाड़ा, तब पटेल, उमा के साथ चट्टान की तरह खड़े थे..
पटेल उन गिने-चुने राजनेताओं में से हैं, जिन्होंने नर्मदा परिक्रमा की है.. नर्मदा नदी के दोनों किनारों पर लगभग 3300 किलोमीटर की यह पैदल परिक्रमा नर्मदा भक्तों में पवित्र मानी जाती है.. वह विशुद्ध शाकाहारी हैं तथा हिंदुत्व की राह पर चलने वाले नेता हैं.. संघ से सीधी निकटता भले ही ज्यादा नहीं रही, लेकिन सिद्धांत और विचारधारा की सियासत में उसूलों के पक्के नेता के तौर पर उन्होंने अपनी पहचान बनाई.. पटेल की पहचान मुद्दों पर मतभेद और बिना लाग लपेट के दो टूक अपनी बात कहने वाले नेताओं में होती है.. उन्होंने उस वक्त बहुत संघर्ष किया..
जब मतभेद साध्वी उमा भारती से तो शिवराज सिंह चौहान से भी सामने आते रहे.. भाजपा से मोह भंग होना और फिर घर वापसी के साथ अब प्रहलाद का सत्ता संचालन से जुड़ने के साथ लंबा इंतजार खत्म हुआ है.. जब लगातार दमोह से दूसरा चुनाव जीतने के बाद उन्हें मोदी सरकार में शामिल किया गया.. इससे पहले संगठन पर रहकर बिना किसी पद यानी महासचिव, उपाध्यक्ष, सचिव से दूर मणिपुर की जिम्मेदारी निभाकर वे मोदी और शाह के चहेते बनकर उभरे.. राष्ट्रीय राजनीति में पिछड़े वर्ग के नेता के तौर पर अपने पैर जमा चुके हैं..
पिछड़े और लोधी वर्ग की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने यदि लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ा तो केंद्रीय मंत्रिमंडल से भी वह दूर हो चुकी हैं.. पिछड़े वर्ग के ही पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी दिल्ली से दूरी बना रखी है और पूरा फोकस मध्य प्रदेश पर बनाए हुए हैं.. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मध्यप्रदेश के मंत्रिमंडल में जिस सोशल इंजीनियरिंग के साथ क्षेत्रीय संतुलन बनाया.. उसमें क्षत्रीय, दलित, आदिवासी के अलावा पिछड़े वर्ग के प्रहलाद पटेल ही शामिल हैं.. मध्यप्रदेश की रोजमर्रा की राजनीति में उनकी दिलचस्पी देखने को नहीं मिली और एक सांसद के तौर पर अपने क्षेत्र और दिल्ली पर ही फोकस बनाया..
अलबत्ता संसदीय क्षेत्र दमोह से जुड़े नेताओं खासतौर से जब शिवराज की सरकार थी.. उसमें शामिल मंत्रियों से उनकी अनबन की खबरें जरूर चर्चा का विषय बनती रहीं, लेकिन इस बार गोपाल भार्गव हों या फिर जयंत मलैया, सभी ने मोदी की इस सुनामी में प्रहलाद के साथ कदमताल किया.. जब 2003 से लगातार तीन बार भाजपा प्रदेश की सरकार में रही तब प्रहलाद का ज्यादा वक्त संघर्ष में ही बीता..
कद-काठी से दूसरे भाजपा नेताओं की तुलना में कुछ अलग और प्रहलाद पटेल ने गन्ना किसानों को उनका हक दिलाने के लिए यदि सड़क पर लड़ाई लड़ी तो प्रदेश के गिने-चुने नेताओं में उनकी गिनती होती है, जिन्होंने नक्सलियों से भी लोहा लिया.. भाजपा में असंगठित मजदूरों के लिए एक बड़ा नेटवर्क उन्होंने तैयार कर उसे पार्टी का वोट बैंक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी.. मोदी सरकार पार्ट 2 में इन मजदूरों के लिए भी आर्थिक सहायता मुहैया कराई गई है..
मध्यप्रदेश में सियासत से जुड़े नर्मदा के जिन भक्तों के नाम चर्चा में रहे उसमें स्वर्गीय अनिल दवे, शिवराज सिंह चौहान और दिग्विजय सिंह, प्रहलाद पटेल ने नर्मदा परिक्रमा के जरिए अलग पहचान बनाई.. केंद्रीय मंत्री के तौर पर नर्मदा को पर्यटन से जोड़ने की संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता.. भले ही पर्यटन की अपार संभावनाओं का केंद्र खजुराहो, ओंकारेश्वर, ग्वालियर, उज्जैन, सांची, मांडू बने, लेकिन उनकी प्राथमिकताओं के बावजूद दमोह और बुंदेलखंड को उनसे ज्यादा उम्मीदें रहेंगी..
दूसरे महत्वपूर्ण विभाग संस्कृति से संघ की भी अपेक्षाएं लाजमी हैं, चाहे फिर वह धार्मिक, सांस्कृतिक और पारंपरिक कलाओं से ही क्यों न जुड़ा हो.. वह भी तब जब नरेंद्र मोदी ने पूरा चुनाव राष्ट्रवाद के नाम पर लड़ा और समर्थन भी हासिल किया.. देखना दिलचस्प होगा जिम्मेदारी केंद्रीय मंत्रिमंडल में पर्यटन और संस्कृति विभाग की लेकिन इस पिछड़े वर्ग की तेजतर्रार जुझारू नेता का उपयोग मोदी और शाह सिर्फ सत्ता संचालन के लिए ..या फिर बुंदेलखंड के इस नौजवान का उपयोग देश की राजनीति में ओबीसी और खासतौर से लोधी समुदाय का भरोसा जीतने के लिए भी किया जाता है..
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