यदि कोई संस्था अपनी सारी गतिविधियों को जारी रखते हुए 100 वर्ष की यात्रा पूरी कर लेती है, तो यह आज के समय में बड़ी बात मानी जाती है। यह भी कह सकते हैं कि यह उस संस्था के लिए सबसे बड़ी उपलब्धि है। यह उपलब्धि प्राप्त करने वाली संस्था है कोलकाता का श्री बड़ाबाजार कुमारसभा पुस्तकालय। 1918 में स्थापित यह पुस्तकालय बांग्ला-भाषी पश्चिम बंगाल में हिंदी का दीपक जलाने में बड़ी भूमिका निभा रहा है। पुस्तकालय ने अपने कार्यकर्ताओं के त्याग और समर्पण के बल पर हिंदी भाषा एवं साहित्य के प्रति जो निष्ठा दिखाई है, उसकी गूंज पूरे भारत में सुनाई देती है। यह मात्र एक पुस्तकालय नहीं है, बल्कि राष्ट्रीय विरासत को आगे बढ़ाने वाली साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संस्था है। यह पुस्तकालय हर वर्ष दो बड़े सम्मान (विवेकानंद सेवा सम्मान और डॉ. हेडगेवार प्रज्ञा सम्मान) देता है।
विवेकानंद सेवा सम्मान 1987 से प्रतिवर्ष एक ऐसी विभूति को दिया जाता है, जो स्वामी विवेकानंद के चिंतन एवं आदर्श को अपनाकर समाज के उपेक्षित, पीड़ित और अभावग्रस्त लोगों के कल्याण के लिए काम करती है। वहीं डॉ. हेडगेवार प्रज्ञा सम्मान उन लोगों को दिया जाता है, जो भारत की सनातन प्रज्ञा को अपने जीवन का पाथेय बनाकर देश के विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत हैं।
पुस्तकालय ने अपनी 100 वर्ष की यात्रा किन परिस्थितियों और किन कंटकाकीर्ण मार्गों पर तय की है, यह बताने के लिए एक स्मारिका का प्रकाशन किया गया है। यह स्मारिका पांच खंड में विभाजित है। पहले खंड में पुस्तकालय की 100 वर्ष की यात्रा को बताने का प्रयास किया गया है। दूसरे खंड में पुस्तकालय की गतिविधियों, कार्यक्रमों, अनुष्ठानों आदि की दुर्लभ तस्वीरें हैं। तीसरे खंड में पुस्तकालय, पुस्तक संस्कृति और पठनीयता का संकट आदि को लेखों के माध्यम से बताया गया है। खंड चार को ‘विविधा’ नाम दिया गया है। इसमें महत्वपूर्ण निबंध हैं। खंड पांच में पुस्तकालय के स्नेही-सहयोगी बंधुओं के प्रतिष्ठानों के विज्ञापन संजोए गए हैं।
इस पुस्तकालय का इतिहास कैसा रहा है, इसके कार्य कैसे रहे हैं, इसने भारतीयता को स्थापित करने में कितनी बड़ी भूमिका निभाई है, इन सब पर अनेक विद्वानों के लेख स्मारिका में संकलित हैं। कर्नाटक के पूर्व राज्यपाल टी.एन. चतुर्वेदी ने अपने शुभकामना संदेश में पुस्तकालय के बारे में लिखा है, ‘‘यह पुस्तकालय केवल पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं का भंडार नहीं है। स्थापना के समय से ही इसकी अवधारणा विशद् और कल्पनाशील रही है। भारतीय नवजागरण के मध्य उत्पन्न इस संस्था ने नवजागरण की प्रक्रिया को और अधिक बलवती एवं समृद्ध करने में अपना योगदान दिया है। यह इस संस्था की एक विशिष्टता एवं अनुकरणीय उपलब्धि है।’’ यह पुस्तकालय राष्टÑीय विचारों को प्रचारित करने के लिए भी जाना जाता है। 1922 में ही इसने प्रकाशन का काम शुरू कर दिया था। उन दिनों ‘यंग इंडिया’ में गांधी जी के लेख अंग्रेजी में प्रकाशित होते थे। पुस्तकालय ने उनके लेखों को अनूदित कर छापना शुरू किया, ताकि गैर-अंग्रेजी भाषी भी उन लेखों को पढ़ सकें। 1974 तक तक प्रकाशन का काम जरूरत के हिसाब होता था। 1975 से प्रकाशन का काम नियमित रूप से हो रहा है। पुस्तकालय हर वर्ष अनेक पुस्तकों का प्रकाशन कर रहा है।
इस पुस्तकालय के संस्थापक थे राधाकृष्ण नेवटिया। वे प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी थे। स्मारिका में उन्हें समर्पित एक लेख है- ‘प्रणम्य पुरुष कर्मयोगी राधाकृष्ण नेवटिया।’ इसके लेखक महावीर बजाज ने लिखा है, ‘‘1916 में अपने कतिपय मित्रों के सहयोग से आपने (नेवटिया जी) ‘बालसभा पुस्तकालय’ की स्थापना की, जो 1918 में ‘श्री बड़ा बाजार कुमारसभा पुस्कालय’ के रूप में परिणत हुई। 1920 से 1935 तक वे पुस्तकालय के मंत्री रहे तथा 1936 से 1943 तक सभापति। 1920 में उनके मंत्रित्व में पुस्तकालय स्वतंत्रता आंदोलन की गतिविधियों का केंद्र बनकर ‘चरखेवाली सभा’ के नाम से विख्यात हो गया…। ’’
यह स्मारिका पुस्तकालय के कार्यकर्ताओं की निष्ठा और समर्पण को बताने के साथ-साथ संदेश यह देती है कि किसी भी संस्था को आगे बढ़ाने के लिए उसके कार्यकर्ता कितने महत्वपूर्ण होते हैं। स्मारिका के आवरण पर वाग्देवी की प्रतिमा है, जिसे देखकर एक सुखद अहसास होता है। -अरुण कुमार सिंह
स्मारिका का नाम : शताब्दी स्मारिका
संपादक मंडल : डॉ. प्रेम शंकर त्रिपाठी, महावीर बजाज, वंशीधर शर्मा, दुर्गा व्यास, योगेशराज उपाध्याय, तरुण प्रकाश मल्लावत
प्रकाशक : श्री बड़ा बाजार कुमारसभा पुस्तकालय 1-सी, पहली मंजिल, मदनमोहन बर्मन स्ट्रीट, कोलकाता-700007