पृथ्वी माता दु:खी हैं, आकाश पिता कुपित। समूचा सौर मण्डल रोष में है। भूमण्डल का ताप बढ़ा है। लोभी मनुष्य ने क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर को प्रदूषित किया है। वनस्पतियां रो रही हैं, वन उपवन कट रहे हैं, कीट-पतंगे और तितलियां गायब हो रहे हैं। गोरैया ओझल हो रही है। सावन भादों रसवर्षा नहीं लाते, मार्गशीर्ष और फागुन महकते हुए नहीं उमंगते। ऋतुराज वसंत भी उदास-हताश हैं। मधुमास मधुमय नहीं रहता। गंगा सहित सभी नदियां प्रदूषित हैं, यमुना कचरा पेटी बना दी गई है। सरस्वती पहले ही नाराज होकर अन्तध्र्यान हो गयीं। विकास का औद्योगिक माडल प्रकृति और मनुष्यता का विनाश लेकर आया है। प्रकृति का हिंसक शोषण और भोग ही यूरोपीय-अमरीकी जीवन दृष्टि है। प्रकृति से संघर्ष ही विकास का मूल मंत्र है- ऐसी सोच और सभ्यता के चलते विश्व पर संकट है, प्राणि जगत, मनुष्य, मनुष्यता और पृथ्वी के अस्तित्व पर भी।
पहले मूल को पहचानो
पर्यावरण संकट का मूल कारण पश्चिम की लोभी औद्योगिक सभ्यता है। यूरोप में 1890 के दशक में पर्यावरण की चिन्ता सतह पर आई। यूरोपीय देशों ने 1902 में एक अन्तरराष्ट्रीय शपथ पत्र पर हस्ताक्षर किये। छिटपुट विचार-विमर्श चले, फिर 1948 में “इण्टरनेशनल यूनियन फार कंजरवेशन ऑफ नेचर एण्ड नेचुरल रिसोर्सेज” की स्थापना हुई। वनस्पति शास्त्री आÏस्टन ने पर्यावरण के पांच घटक बताए – पदार्थ, परिस्थिति, ऊर्जा, प्राणी और समय। यहां पदार्थ में मिट्टी, जल व परिस्थिति में ताप व प्रकाश गिने गये और ऊर्जा में वायु व गुरुत्वाकर्षण। 1954 में डौरनमिर ने मिट्टी, हवा, पानी, आग, ताप, प्रकाश व जीव-जंतु को पर्यावरण के घटक बताया। यूरोपीय विद्वान यूं ही हाथ-पैर मार रहे थे। उन्होंने भारतीय चिंतन के पांच महाभूतों-पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश पर ध्यान नहीं दिया। ध्वनि का मूल आकाश व वायु हैं और ताप व प्रकाश अग्नि के रहस्य हैं।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यू.एन.ई.पी.) 1972 में बना। उद्देश्य था जनजागरण और प्राकृतिक आपदाओं की पूर्व सूचना देना। 1992 में पर्यावरण और विकास पर आयोजित संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन ने “कार्यक्रम-21” जारी किया। इसके लिए 1993 में सतत् विकास आयोग बना। “कार्यक्रम-21” दरअसल पर्यावरण प्रबंधन से ही जुड़ा था। सन् 2000 में पेरिस में “अर्थ चार्टर कमीशन” में विश्व के ढेर सारे वैज्ञानिक तीन दिन बैठे। दो दिन के विचार मंथन के बाद 21 सूत्र खोजे गये। तीसरे दिन भारतीय प्रतिनिधियों ने अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त की चर्चा की। अथर्ववेद में पर्यावरण संरक्षण के सारे सूत्र हैं। लेकिन अथर्ववेद के देश भारत में वेदों की चर्चा करना भी साम्प्रदायिकता कही जाने लगी। बहरहाल सन् 2005 में संयुक्त राष्ट्र का “सहस्राब्दी पर्यावरण आकलन” जारी हुआ। 95 देशों के 1360 विद्वानों ने धरती के अस्तित्व को खतरा बताया, भूगर्भ जल स्तर नीचे गया है, 12 प्रतिशत पक्षी, 25 प्रतिशत स्तनपायी और एक तिहाई मेढक नष्ट प्राय: हैं। वनस्पति जगत की तमाम प्रजातियां नष्ट हो रही हैं आदि, आदि।
माता पृथ्वी-पिता आकाश
पर्यावरण संकट अन्तरराष्ट्रीय बेचैनी है। लेकिन भारत में तो ऋग्वैदिक काल से ही धरती माता और आकाश पिता माने गए हैं। नदियां, वनस्पतियां माताएं और देवी हैं। हमारे पूर्वज समूची प्रकृति को देवरूप ही देखते थे। शान्त वातायन-पर्यावरण आनंदित करते हैं। अशान्त माता पृथ्वी और पिता आकाश हमारी अशान्ति का कारण बनते हैं। यजुर्वेद में एक लोकप्रिय मंत्र में समूचे पर्यावरण को शान्तिमय बनाने की स्तुति है। इस मंत्र में द्युलोक, अंतरिक्ष और पृथ्वी से शान्ति की भावप्रवण प्रार्थना है। ।। ॐ द्यौ शांतिरन्तरिक्ष: शांति: पृथ्वी शांतिराप: शान्ति: रोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिब्रह्म शान्ति: सर्वं: शान्ति: शान्र्तिरेव शान्ति: सा मा शान्तिरेधि ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: ॐ।।
-(यजुर्वेद- 36.17)
अर्थात- “जल शान्ति दे, औषधियां-वनस्पतियां शान्ति दें, प्रकृति की शक्तियां – विश्वदेव, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड शान्ति दे। सब तरफ शान्ति हो, शान्ति भी हमें शान्ति दें।” यहां शान्ति भी एक देवता हैं।
मधुमय पर्यावरण ऋग्वैदिक ऋषियों की सहज प्यास है। प्रकृति में रूप है, रस है, गन्ध है, ध्वनियां हैं। वे दिग्दिगन्त “मधु” कामना करते हैं, “मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धव:। माध्वीर्न: सन्त्वोषधी:।। मधु नक्तमुतोष सो मधुमत्पार्थिवं रज:। मधु घौरस्तु न: पिता।। मधुमान्नो वस्पतिर्म धुमां अस्तु सूर्य:। माध्यवीर्गावो भवन्तु न:।। (ऋग्वेद 1.90/6, 7, 8)
वायु मधुमय है। नदियों का पानी मधुर हो, औषधियां, वनस्पतियां मधुर हों। माता पृथ्वी के रज कण मधुर हों, पिता आकाश मधुर हों, सूर्य रश्मियां भी मधुर हों, गाएं मधु दुग्ध दें। अथर्ववेद के भूमि सूक्त में कहते हैं, “देवता जिस भूमि की रक्षा उपासना करते हैं वह मातृभूमि हमें मधु सम्पन्न करे। इस पृथ्वी का हृदय परम आकाश के अमृत से सम्बंधित रहता है। वह भूमि हमारे राष्ट्र में तेज बल बढ़ाये। पृथ्वी सूक्त के 12.1.7 व 8 श्लोक कहते हैं “हे पृथ्वी माता आपके हिम आच्छादित पर्वत और वन शत्रुरहित हों। आपके शरीर के पोषक तत्व हमें प्रतिष्ठा दें। यह पृथ्वी हमारी माता है और हम इसके पुत्र- माता भूमि पुत्रो अहं पृथिव्या:। (वही 11-12) स्तुति है “हे माता! सूर्य किरणें हमारे लिए वाणी लायें। आप हमें मधु रस दें, आप दो पैरों, चार पैरों वाले सहित सभी प्राणियों का पोषण करती हैं।” यहां पृथ्वी के सभी गुणों का वर्णन है लेकिन अपनी ओर से क्षमायाचना भी है, “हे माता हम दायें- बाएं पैर से चलते, बैठे या खड़े होने की स्थिति में दुखी न हों। सोते हुए, दायें- बाएं करवट लेते हुए, आपकी ओर पांव पसारते हुए शयन करते हैं- आप दुखी न हों। हम औषधि, बीज बोने या निकालने के लिए आपको खोदें तो आपका परिवार, घासफूस, वनस्पति फिर से तीव्र गति से उगे-बढ़े। आपके मर्म को चोट न पहुंचे।” 63 मंत्रों में गठित इस पृथ्वी सूक्त को अमरीकी विद्वान ब्लूमफील्ड ने विश्व की श्रेष्ठ कविता बताया है।
पर्यावरण में मधुमयता
शुद्ध पर्यावरण में मधुमयता है। पृथ्वी, आकाश मधुमय हैं। ऋग्वेद में स्तुति है, “हे द्यावा पृथिवी, मधु मिमिक्षताम् – “आप दोनों हम सबको मधुर रस से युक्त करो। माता का स्वभाव ही पुत्रों को मधुरस देना है। कहते हैं, “आप – मधुश्च्युता – मधुर रस का स्राव करने वाली हो।”, मधुदुधे – मधुर रस की वर्षा करने वाली हो, मधुव्रते – “मधुर रस देना तुम्हारा स्वभाव ही है।” (6.70.5) सृष्टि में परस्परावलम्बन है। ब्रह्माण्ड का एक-एक कण, जीव, उल्का, ग्रह नक्षत्र हमारे परिजन हैं। यह सब मिलाकर हमारा परिवार है और यही पर्यावरण।
वृहदारण्यकोपनिषद् (अध्याय 2, ब्राह्माण्ड 5) में याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी को समझाया, “इयं पृथ्वी सर्वेषा भूतानां मध्वस्यै पृथिव्यै सर्वाणि भूतानि मधु – यह पृथ्वी सभी भूतों (मूल तत्वों) का मधु है और सब भूत इस पृथ्वी के मधु।” (वही, 1) इसी प्रकार “यह अग्नि समस्त भूतों का मधु है और समस्त भूत इस अग्नि के मधु हैं।” (वही 2) “यह वायु समस्त भूतों का मधु है और समस्त भूत वायु के मधु हैं।” (वही, 3) फिर आदित्य और दिशा चन्द्र, विद्युत मेघ और आकाश को भी इसी प्रकार “मधु” बताते हैं। (वही, 4-10) फिर कहते हैं “यह धर्म और सत्य समस्त भूतों का मधु है और समस्त भूत इस सत्य व धर्म के मधु है।” (वही, 11-12) यहां धर्म का अर्थ समूची सृष्टि प्रकृति को परिवार जानना और बरतना ही है। प्रकृति चाहती है सब जिएं, सबको जीने दें, सब सुखी हों, सब आनंद मग्न रहें। मधुमय हो सबका जीवन। प्रगाढ़ संवेदना की तरंग में इसी अनुभूति से जन्म लेती है – मधुप्रीति और मधुप्रीति से युक्त कोई भी व्यक्ति पर्यावरण का नाश नहीं कर सकता।
प्रकृति के नियम
प्रकृति की सभी शक्तियां एक सुनिश्चित विधान में चलती हैं। वैदिक भाषा में इसे ऋत कहा गया। ऋत नियमों से बड़ा कोई नहीं। अग्नि प्रकृति की विराट शक्ति हैं। वे भी “ऋतस्य क्षत्ता” हैं। (6.13.2) अग्नि ऋत-सत्य के प्रकाशक “ऋतस्य दीदिवं” है। नदियां भी ऋतावरी हैं। नियमानुसार बहती हैं। ऋत नियम का धारण करना धर्म है। विष्णु बहुत बड़े देवता हैं। लेकिन “धर्मान्” – धर्म धारण करते हुए तीन पग चलते हैं। (1.22.18) तेजस्वी सूर्य भी “धर्मणा” हैं। (1.60.1) सविता द्युलोक, अंतरिक्ष और पृथ्वी को “स्वायधर्मणे” – अपने धर्म के कारण प्रकाश से भरते हैं। (4.53.3) जो ऋत है, वह सत्य है, ऋत और सत्य का अनुसरण धर्म है। प्रजापति इसीलिए “सत्यधर्मा” हैं। (10.121.9) प्रकृति की सभी शक्तियां नियमबद्ध हैं तो मनुष्य का आचरण भी नियम आबद्ध होना चाहिए।
पृथ्वी के बाद पर्यावरण का मुख्य घटक है जल। ऋग्वेद में जल को विश्व का जन्म देने वाली श्रेष्ठ-मां कहा गया – मातृतमा विषस्य स्थातुर्जगतो जनित्री। (6.50.7) सृष्टि विकास का डारविन सिद्धांत भी जीवों की उत्पत्ति जल से मानता है। यूनानी दार्शनिक थेल्स भी ऐसा ही मानते हैं। जल हमारे जीवनरस का आधार है। भारत के सारे तीर्थों का उद्गम पवित्र जलराशि है। ऋग्वेद में कहते हैं “हे यज्ञ प्रेमियो! हम सब जल को प्रतिष्ठा दें।” (वही 10.31.14) कहते हैं “जल प्रवाह सदा अंतरिक्ष से आते हैं, वे जल-माताएं – देवियां हम सबकी रक्षा करें।” (वही 10.49.1) स्तुति है, “जो दिव्य जल (आपो दिव्या) आकाश से आते हैं, नदियों में प्रवाहित हैं, जो खोदकर (कुआं आदि) प्राप्त होते हैं जो स्वयं प्रवाहित, शुचिता लाते हैं, वे जल माताएं हम सबकी रक्षा करें।” (वही 2) 4 मंत्रों के इस सूक्त में प्रत्येक मंत्र के अंत में जुड़ा हुआ है कि “आपो देवीरिह मामवन्तु – वे जल देवियां हमारी रक्षा करें।” इस सूक्त में भी जल मधुश्यचुत: शुचयो- अर्थात् मधुरसयुक्त पवित्र हैं। (वही – 3) ऋग्वेद में जल को सूर्य के निकटस्थ बताया गया है। जल श्रेेष्ठतम भिषक-वैद्य भी है।
जल यानी जीवन
ऋग्वेद में जल संस्कृति का कल-कल प्रवाह है। जल आचमनीय था, पवित्र करता था। प्राण और पोषण था। हम सब उसका संरक्षण करते थे। ऋग्वेद की ही जल संस्कृति और परम्परा का विकास अथर्ववेद में भी है। स्तुति है “जल माता-देवी हमारा कल्याण करे। (अथर्ववेद 1.6.1) ऋषि दीर्घजीवन के अभिलाषी हैं। इसलिए स्तुति है, “जल माता हमें आरोग्यवद्र्धक पुण्य औषधियां दे।” (वही) वे प्रत्येक जल से स्तुति करते हैं “सूखे प्रदेश का जल कल्याण दे, जल से भरे प्रदेश का जल सुख दे, भूगर्भ जल सुखप्रद हो, लोटा-गिलास का जल शान्ति दे और वर्षा जल भी सुख शान्ति दे।” (वही 4) वे जल हमारा पोषण मां की तरह करते हैं। कहते हैं, “जैसे वात्सल्यपूर्ण माताओं का स्नेह उमड़ता ही रहता है, उन्हीं माताओं की भांति आप हमें अपने रस से पूर्ण करें।” (अथर्ववेद 1.5.2)
जल वर्षा है। वर्षा से अन्न है। अन्न से प्राणी है और इसी से पोषण है। जल से ही वनस्पतियां-औषधियां हैं। जीवन जगत के सभी प्रपंच जलतरंग से जुड़े हैं। ऋषि अन्न के लिए जलस्तुति करते हैं और वनस्पतियों, औषधियों के लिए भी। जल सुखी और समृद्ध जीवन का आधार है। शतपथ ब्राह्मण में तो “आपो वै प्राण: – जल को ही प्राण बताया गया है। सभी देव जल में ही प्रतिष्ठित हैं – यद् देवा अद: सलिले, सुंरब्धा अतिष्ठत्। (वही 10.72.6) देवों तक अपनी स्तुतियां पहुंचाने के लिए भी जल ही साधन है। वे ही पितरों तक पिंडदान पहुंचाते हैं। लेकिन विश्व जल संकट के कगार पर है। जलाशय सूखे हैं। वन-उपवन नंगे-उजाड़ हैं। बादल बिना बरसे ही घूम फिरकर लौट जाते हैं। वैदिक ऋषियों ने जलमाताओं से संवाद किया था, स्मृतियों में जल संरक्षण को महान पुण्य बताया गया है। वृहस्पति ने कहा है “नया जलाशय बनवाने या पुराने को संरक्षण देने वाले का कुल मिलाकर उद्धार होता है।” पाराशर ने जल दूषित करने वाले को कुत्ते की योनि में भेजा है। उन्होंने जल दूषित करने वाले विद्वान ब्राह्मण को भी यही सजा सुनाई है। लेकिन आधुनिक सभ्यता में जल को माता, दिव्यता मानने और जानने की परम्परा समाप्त हो गयी।
प्राण यानी वायु
पर्यावरण का एक मुख्य घटक वायु भी हैं। वायु से आयु है। वायु प्रत्येक प्राणी का प्राण हैं लेकिन देवों का प्राण भी वायु ही है “आत्मा देवानां।” (10.10.168.4) वायु प्रत्यक्ष देव हैं और प्रत्यक्ष ब्रह्म भी। ऋग्वेद (1.90.9) में स्तुति है “नमस्ते वायो, त्वमेव प्रत्यक्ष ब्रहमासि, त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि। तन्मामवतु – वायु को नमस्कार है, आप प्रत्यक्ष ब्रह्म हैं, मैं तुमको ही प्रत्यक्ष ब्रह्म कहूंगा। आप हमारी रक्षा करें।” ऋग्वेद का यही मन्त्र यजुर्वेद (36.9) अथर्ववेद (19.9.6) व तैत्तिरीय उपनिषद् (1) मंे भी जस का तस आया है। कहते हैं, “वायु ही सभी भुवनों में प्रवेश करता हुआ प्रत्येक रूप रूप में प्रतिरूप होता है- वायुर्थेको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो वभूव:। सभी जीवों में प्राण की सत्ता है। प्राण वस्तुत: वायु है। मनुष्य पांच तत्वों से बनता है। मृत्यु के समय सभी तत्व अपने-अपने मूल में लौट जाते हैं। ऋग्वेद (10.16.3) में स्तुति है “तेरी आंखें सूर्य में मिल जायें और आत्मा वायु में। तैत्तिरीय उपनिषद् में कहा गया “अग्नि तत्व अग्नि में जाए और प्राण तत्व वायु में- भुव इति वायौ।
वायु सबके संरक्षक हैं। (वही 20) वशिष्ठ के सूक्तों में इन्हें अति प्राचीन भी बताया गया है “हे मरुत, आपने हमारे पूर्वजों पर भी बड़ी कृपा थी”। (वही, 23) फिर मरुतों का स्वभाव बताते हैं “वे वर्षणशील मेघों के भीतर गर्जनशील हैं। (1.166.1) कहते हैं, “वे गतिशील मरुद्गण भूमि पर दूर-दूर तक जल बरसाते हैं। वे सबके मित्र हैं। (1.167.4) यहां मरूद्गण वर्षा के भी देवता है। वे मनुष्यों को अन्न पोषण देते हैं। (1.169.3) प्रकृति में एक प्रीतिकर यज्ञ चल रहा है। वायु प्राण हैं, अन्न भी प्राण हैं। अन्न का प्राण भी वर्षा है। वायुदेव/मरुतगण वर्षा लाते हैं। ऋग्वेद में मरुतों की ढेर सारी स्तुतियां हैं। कहते हैं “आपके आगमन पर हम हर्षित होते हैं, स्तुतियां करते हैं।” (5.53.5) लेकिन कभी-कभी वायु नहीं चलती, उमस हो जाती है। प्रार्थना है, “हे मरूतो आप दूरस्थ क्षेत्रो में न रुकें, द्युलोक अंतरिक्ष लोक से यहां आयें। (5.53.8) भारत का भावबोध गहरा है। वायु प्राण है, वायु जगत् का स्पंदन है। वैदिक मंत्रों में प्राणवायु की सघनता है। हम सब वैदिक संस्कृति के उत्तराधिकारी हैं, बावजूद इसके यूरोपीय, अमरीकी सभ्यता के प्रभाव में हम देव स्वरूप वायु को प्रदूषित करते हैं।
वैदिक परम्परा के सूत्र आज भी लोक रीति में हैं। तुलसी पूजा, पीपल पूजा और वटवृक्ष की पूजा के तत्व वन संरक्षण से ही जुड़े हुए हैं। गांवों में आज भी पेड़ काटने को पाप और वृक्षारोपण को पुण्य बताया जाता है। नदियों के दीपदान का अर्थ नदी का सम्मान करना है। यज्ञ हवन के कर्मकाण्ड रूढ़ि नहीं हैं, इनमें प्रकृति की प्रीति और वातायन शुद्धि की ही आकांक्षा है। यजुर्वेद के एक सुंदर मंत्र (6.21) में कहते हैं, “यह हवि-स्वाहा समुद्र को मिले। यह स्वाहा अन्तरिक्ष जाये। यह स्वाहा सूर्य को प्राप्त हो, यह मित्र वरुण को, यह रात्रि-दिवस को, यह पृथ्वी को, यह सोम वनस्पतियों और यह स्वाहा सभी दिव्य शक्तियों को और यह स्वाहा छन्दस को।” यहां छन्दस् पर्यावरण का ही पर्यायवाची है।
ध्वनि प्रदूषण से मनुष्य तनावग्रस्त है। प्रीतिपूर्ण वार्तालाप का ध्वनिस्तर 20 डेसीबिल, जोरदार बहस का 60, मिक्सी का 85, मोटर साइकिल का 90, जीपों-कारांे का 95-100, वायु यान 105-110 बताया जाता है। राजधानी दिल्ली का औसत ध्वनि स्तर 80-150 है। कोलकाता का 80-147, मुम्बई 71-104 लेकिन लखनऊ का 70-80 है। सभी शहरों का ध्वनि स्तर सामान्य (50-60 डेसीबिल) से ज्यादा है। इसका मनुष्य की श्रवण शक्ति पर बुरा प्रभाव पड़ा है। परिवहन साधनों व अंधाधुंध मशीनीकरण के कारण प्राणलेवा कोलाहल है। यही स्थिति वायु प्रदूषण की है। तमाम गैसों के उत्सर्जन से धरती आकाश के बीच स्थित ओजोन परत को खतरा है। अराजक खनन के कारण पृथ्वी घायल है। रेडियोधर्मा विकिरण ने अंतरिक्ष को भी आहत किया है। भूमण्डलीय ताप सहित सम्पूर्ण पर्यावरण पर तमाम अंतरराष्ट्रीय बैठकें/समझौते हुए हैं लेकिन “विकास के बहाने” ताकतवर राष्ट्र इन पर अमल नहीं करते। विश्व मानवता के सामने जीवन-मरण का प्रश्न है। भारत की संस्कृति में पर्यावरण संरक्षण के सारे सूत्र हैं। वैदिक परम्परा और संस्कृति का विज्ञान लेकर भारत को ही विश्व का नेतृत्व करना चाहिए।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधान सभा के अध्यक्ष हैं)