उत्तम समाज उस समाज को माना जाता है, जहां वीरों और शहीदों को सदा स्मरण किया जाए क्योंकि इन्हें स्मरण करने से नवयुवकों को नई प्रेरणा मिलती है और वह कुछ कर गुजरने के लिए स्वयं को तैयार करते हैं| आर्य समाज ने अनगिनत शूरवीर, बलिदानी योद्धा तथा धर्मानुरागी नौजवानों की टोलियाँ सदा है तैयार की हैं| इतना ही नहीं इनके द्वारा किये गये बलिदानों की गाथाएँ भी सदा ही गाते आये हैं| इन्हें यथोचित सम्मान देते हुए इनके जीवनों से प्रेरणा भी प्राप्त की है| यह ही तो कारण था कि देश विदेश में आर्य समाज का इतनी तीव्र गति से विस्तार हुआ कि किसी अन्य संस्था ने इतनी तीव्र गति नहीं पकड़ी| इसी श्रंखला में हम हमारे वीर बलिदानी चौ.ताराचंद जी का आज स्मरण करते हैं|
श्रावण वदी ११ संवत् १९७३ वि. को जिला मेरठ के गाँव लुम्बा के जाटों के चौहान गौत्र के चौ.केहरसिंह तथा माता भगवानी देवी के तीन पुत्रों में से तृतीय श्री तारा चन्द जी ही थे| ताराचंद जी अभी मात्र आठ वर्ष के ही थे कि पिता उन्हें माता की गोद में छोड़कर इस संसार से विदा हो गए| बालक ने जैसे तैसे आठ कक्षाए पास कीं| इस बालक पर अपने चचा महादेव जी का पूरा प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता था| महादेव जी सन् १९१५ ईस्वी को एक आर्य संन्यासी के सदुपदेश से आर्य समाज के साथ जुड़ गए थे| इन्हीं के प्रभाव से यह तीनों भाई भी वेद मार्ग के अनुगामी बन गए| चाचा जी के पौषण से ही आर्य महाविद्यालय किरठल शिक्षा के प्रचार तथा प्रसार में लगा हुआ था| इतना ही नहीं वह देश की सेवा करते हुए तीन बार जेल यात्रा भी कर चुके थे|
हैदराबाद में निजाम के विरुद्ध सत्याग्रह आन्दोलन का शंखनाद होने से थोड़ा पहले ही ताराचंद जी का विवाह श्रीमती परमेश्वरी देवी गाँव कुटबा जिला मुजफ्फरनगर निवासी से हुआ था| परमेश्वरी देवी मात्र एक बार ही ससुराल गई थी कि हैदराबाद में सत्याग्रह आन्दोलन की दुन्दुभी बज गई|
ताराचंद जी अपने चचेरे भाई विरजानंद जी सहित पंडित जगदेव सिंह सिद्धान्ती जी के साथ किरठल से चलकर अनेक स्थानों पर आर्य समाज का प्रचार करते हुए पहले भाग्यनगर और फिर शोलापुर पहुंचे| यहाँ से वरशी होते हुए तुलजापुर के मोर्चे पर जा डटे| जब आप लोग प्रचार करते हुए सत्याग्रह के लिए जा रहे थे तो मार्ग में अनेक स्थानों पर मुसलमानों का सामना भी करना पडा| यहाँ पहुंच कर इस दल ने सत्याग्रह करते हुए स्वयं को निजाम की पुलिस के हाथों सौंप दिया| इस दल को उस्मानाबाद की जेल में भेज दिया गया किन्तु ताराचंद जी को इस दल से अलग करते हुए औरंगाबाद की जेल में भेजा गया| कुछ दिनों पश्चात् पंडित जगदेव सिंह जी सिद्धान्ती जी को भी इसी जेल में आपके पास लाया गया|
जब महाश्य कृष्ण जी पंजाब के जोशीले वीरों के साथ जयनाद करते हुए आप वाली जेल में ही लाए गए तो पुलिस भी विवश हो गई क्योंकि पंजाबी वीर जेल में बंद अपने आर्य बंधुओं को अपने प्रवेश की सूचना देते हुए निजाम के विरोध में लगातार नारे लगा रहे थे तो आप सब लोग उनके स्वागत में उनके स्वर में स्वर मिलाते हुए ही निजाम के विरोध में नारे लगाने लगाते हुए उन्हें प्रति उत्तर देने लगे| पुलिस अनथक प्रयास करने पर भी यह जयघोष बंद करवा पाने में असफल रही| पारिणाम स्वरूप पुलिस ने इन सब को अलग अलग जेलों में भेजना आरम्भ कर दिया| इस क्रम में ही ताराचंद जी को हैदराबाद की सेंट्रल जेल में भेज दिया गया| इस जेल में ही ताराचंद जी का पंडित जगदेव सिंह सिद्दंती जी से अंतिम बार मिलना हुआ|
निजाम की जेलें तो होती ही अत्याचारों के लिए थी| अत्याचारों के कारण ही निजामी जेलों की प्रसिद्धि देश ही नहीं दुनिया भर में फ़ैल चुकी थी| अत; तारा चन्द जी पर जेल में रहते हुए अत्याचार न हों, यह तो असंभव ही था| अत: ताराचंद जी पर निजामी अत्याचारों का जो दौर आरम्भ हुआ, वह नित्यप्रति बढ़ता ही जा रहा था| ताराचंद जी इस उत्पीडन को शान्ति से सहन करते चले जा रहे थे| चाहे कितना ही शांत रहें किन्तु अत्याचार तो अपना प्रभाव दिखाते ही है, इस कारण ताराचंद जी का कठोर शरीर धीरे धीरे शिथिल होने लगा|
इधर तो ताराचंद जी का अत्याचारों के कारण शरीर शिथिल हो रहा था और उधर टिड्डी दल की तरह प्रतिदिन सत्याग्रह कर के आर्य लोग जेलों में आ रहे थे| इस सब से निजाम की आर्थिक स्थिति तो बिगड़ ही रही थी, इन अत्याचारों के कारण उसका अपयश भी सब और फ़ैल रहा था| अत: अब निजाम की अकड ढीली हो चुकी थी तथा वह समझौते के लिए याचना करने लगा| इस मध्य ही अति कृष्टता की अवस्था में आ पहुँचने पर ताराचंद जी को १८ अगस्त सन् १९३९ ईस्वी को जेल की सींखचों से बाहर कर दिया गया| अब तक ताराचंद जी इतने अशक्त हो चुके थे कि उनकी जीवन शक्ति लगभग समाप्त ही हो चुकी थी| जब वह गाड़ी द्वारा घर को लौट रहे थे तो मार्ग में नागपुर स्टेशन पर उनकी दयनीय अवस्था को देखते हुए डा. परांजपे जी ने उन्हें नागपुर में ही गाड़ी से उतार लिया|
अब डॉ. परांजपे जी ने नागपुर में ही ताराचंद जी का उपचार आरम्भ करवा दिया| उपचार तो आरम्भ हो गया किन्तु कोई भी उपचार उन्हें स्वास्थ्य लाभ नहीं दे सका| दिनांक २ सितम्बर १९३९ ईस्वी को ताराचंद जी गायत्री मन्त्र का जाप करते हुए प्रभु को स्मरण कर रहे थे कि अकस्मात् उनके चाचा चौ. रामचंद्र जी उनके पास आ पहुंचे| यह वही चाचा रामचंद्र जी थे, जिनके अनुरूप चौ. ताराचंद जी ने स्वयं को ढाला था| अत: अपने मार्गदर्शक, अपने पालक चाचा जी के दर्शन करते ही चौ. ताराचंद जी में एक प्रकार की नई चेतना का उदय हुआ| भली प्रकार से अपने चाचा जी के दर्शन किये| बेटे ने अपने चाचा जी को एक बार हाथ जोड़ कर नमन किया और फिर उनकी गोद में इस प्रकार लुढके कि फिर कभी उठ न सके|
इस प्रकार यह धर्मवीर धर्मयुद्ध से लौटते हुए न तो अपने गाँव ही आ पाया, न ही अपनी धर्मपत्नी को पुन: मिल सका, जबकि अपने परिजन को खोने की, उसके वियोग को सहने की शक्ति उसके प्रेमियों ने किसी प्रकार अपने में प्राप्त की| बलिदानी ताराचंद जी की स्मृति में किरठल के आर्य महाविद्यालय में “ वीर ताराचंद बलिदान भवन” बनाया गया है, जो आज भी ताराचंद जी के तप तथा त्याग की गाथा सुना रहा है|
डॉ. अशोक आर्य
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