स्वामी भवानी दयाल संन्यासी का जन्म दक्षिण अफ़्रीका के नगर जोहान्सबर्ग में दिनांक १० सितम्बर १८९२ ईस्वी को हुआ । आप के पिता जी का नाम श्री जयराम सिंह था , जो भारत के प्रान्त बिहार के जिला शाहाबाद के निवासी थे । आपके पिता शर्तबन्द कुली के रुप में अफ़्रीका गये थे ।
स्वामी जी की प्राथमिक शिक्षा उनके जन्म स्थान जोहान्सबर्ग में ही हुई तथा प्रथम बार १९०४ ईस्वी में बारह वर्ष की आयु में भारत में अपने मूल पैतृक गांव बहुआरा आये थे। बहुआरा गांव बिहार के रोहतास जिले में है. उन दिनों भारत में बंग भंग आन्दोलन का जोर था । इस आन्दोलन का आप के ह्रदय में प्रभाव होना आवश्यक ही था । आप ने भारत आ कर अपने गांव में एक राष्ट्रीय विद्यालय आरम्भ किया तथा इस विद्यालय के द्वारा गांव के बच्चों को शिक्षित करने की सेवा आरम्भ की । एक बार गांव आये तो फिर उनका आना-जाना लगा रहा. किशोरावस्था में ही संन्यासी ने अपने गांव के गरीब बच्चों को पढ़ाने के लिए एक राष्ट्रीय पाठशाला की नींव रख दी थी. बाद में उन्होंने एक वैदिक पाठशाला भी खोली. फिर गांव में ही उन्होंने खरदूषण नाम की एक और पाठशाला भी शुरू की. यहां बच्चों को पढ़ाने के साथ संगीत की शिक्षा दी जाती थी और किसानों को खेती संबंधी नई जानकारियां भी. बताते हैं कि जब उन्होंने खरदूषण पाठशाला की नींव रखी तो उसका उद्घाटन करने डॉ राजेंद्र प्रसाद और सरोजनी नायडू जैसे दिग्गज उनके गांव बैलगाड़ी से यात्रा कर पहुंचे थे. इस पाठशाला के साथ ही संन्यासी ने अपने गांव में 1926 में ‘प्रवासी भवन’ का भी निर्माण करवाया.
उनकी पत्नी जगरानी देवी अनपढ़ थीं, लेकिन संन्यासी ने उन्हें घर में ही पढ़ाकर इस अनुरूप तैयार किया कि वे हिन्दी की अनन्य सेवी तो बनी हीं, दक्षिण अफ्रीका में प्रमुख महिला सत्याग्रही भी बनीं। उनके नाम पर ही नेटाल में जगरानी प्रेस की स्थापना हुई। संन्यासी के हिन्दी के प्रति समर्पण और उनकी राजनीतिक समझ का ही परिणाम था कि दक्षिण अफ्रीका में वे महात्मा गांधी द्वारा शुरू किया गए पत्र ‘इंडियन ओपिनियन’ के हिंदी संपादक बनाये गये।
सन् १९०९ ईस्वी में आप का सम्पर्क आर्य समाज से हुआ । आर्य समाज से सम्पर्क होने के पश्चात आप ने वैदिक शिक्षा की उपयोगिता को समझते हुए अपने गांव में वैदिक पाट्शाला आरम्भ की। इस प्रकार आप की रूचि आर्य समाज की ओर निरन्तर बटती ही चली गयी इस कारण १९११ ईस्वी में आपको आर्य प्रतिनिधि सभा बिहार का उपदेशक नियुक्त किया गया किन्तु यह कार्य आप ने अवैतनिक किया । इस काल में आप को सभा के मुख पत्र आर्यावर्त का सम्पादक का कार्य भार भी वहन करना पडा । आप ने यह दोनों कार्य सफलता पूर्वक सम्पन्न किये ।
जब आप ने गाँव में राष्ट्रीय विद्यालय खोला , इसके अनन्तर ही सन १९०८ ईस्वी में आपका विवाह हो गया । चार वर्ष तक आप ने आर्य प्रतिनिधि सभा के माध्यम से प्रचार कार्य किया तथा १९१२ में अफ़्रीका लौट गये । इसी दक्षिण अफ़्रीका में ही आपको महात्मा गाँधी जी के सम्पर्क में आने का अवसर मिला । अब आप ने अफ़्रीका में हिन्दी प्रचार का कार्य आरम्भ कर दिया । इस कार्य को सफ़ल करने के लिए आप ने वहां पर अनेक हिन्दी पाठशालाएँ व हिन्दी सभाएं स्थापित कीं । इतना ही नहीं इस कार्य को गति देने के लिए धर्मवीर तथा हिन्दी नाम से आपने दो पत्र भी आरम्भ किये । इन पत्रों के माध्यम से आपने आर्य समाज तथा हिन्दीऒ प्रचार का खूब कार्य किया ।
आर्य समाज का कार्य करते हुए आप को आश्रम व्यवस्था का पूर्ण ध्यान था । इस कारण आपने अपना आश्रम बदलने का निर्णय लेते हुए सन् १९२७ ईस्वी को रामनवमी के दिन संन्यास की दीक्षा ली तथा आज से आप का नाम भवानी दयाल संन्यासी हो गया ।
वे 1939 में दक्षिण अफ्रीका के प्रवासी भारतीयों का प्रतिनिधित्व करने के लिए इकलौते प्रतिनिधि के तौर पर भारत आये. भारत में उनकी गतिविधियां बढ़ीं तो तो उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेजा गया. वे हजारीबाग जेल में रहे. वहां उन्होंने ‘कारागार’ नाम से पत्रिका निकालनी शुरू की जिसके तीन अंक जेल से हस्तलिखित निकले. उसी में एक सत्याग्रह अंक भी था जिसे अंग्रेजी सरकार ने गायब करवा दिया था.
इतना ही नहीं, भारत आकर उन्होंने जिन कार्यों की बुनियाद रखी वह भी चकित करनेवाला है। भवानी दयाल पहली बार 13 साल की उम्र में ही अपने पिता के साथ भारत में पैतृक गांव बहुआरा आये थे। यह गांव बिहार के रोहतास जिले में है। एक बार गांव आये तो फिर उनका आना-जाना लगा रहा। किशोरावस्था में ही संन्यासी ने अपने गांव के गरीब बच्चों को पढ़ाने के लिए एक राष्ट्रीय पाठशाला की नींव रख दी थी। बाद में उन्होंने एक वैदिक पाठशाला भी खोली। फिर गांव में ही उन्होंने खरदूषण नाम की एक और पाठशाला भी शुरू की। यहां बच्चों को पढ़ाने के साथ संगीत की शिक्षा दी जाती थी और किसानों को खेती संबंधी नई जानकारियां भी। जब उन्होंने खरदूषण पाठशाला की नींव रखी तो उसका उद्घाटन करने डॉ राजेंद्र प्रसाद और सरोजनी नायडू जैसे दिग्गज उनके गांव बैलगाड़ी से यात्रा कर पहुंचे थे। इस पाठशाला के साथ ही संन्यासी ने अपने गांव में 1926 में ‘प्रवासी भवन’ का भी निर्माण करवाया।
वे 1939 में दक्षिण अफ्रीका के प्रवासी भारतीयों के प्रतिनिधि के रूप में भारत आये। भारत में उनकी गतिविधियां बढ़ीं तो अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। वे हजारीबाग जेल में रहे। वहां उन्होंने ‘कारागार’ नाम से पत्रिका निकालनी शुरू की जिसके तीन अंक जेल से हस्तलिखित निकले। उसी में एक सत्याग्रह अंक भी था जिसे अंग्रेजी सरकार ने गायब करवा दिया था।
इंडियन कॉलोनियल एसोसिएशन से जुड़े प्रेम नारायण अग्रवाल ने 1939 में ‘भवानी दयाल संन्यासी- ए पब्लिक वर्कर ऑफ साउथ अफ्रीका’ नाम से एक किताब लिखी थी। इसे अंग्रेजी सरकार ने जब्त कर लिया था।
संन्यासी स्वयं एक रचनाधर्मी थे और उन्होने कई अहम पुस्तकों की रचना की। उनकी चर्चित पुस्तकों में 1920 में लिखी गयी ‘दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह का इतिहास’, 1945 में लिखी गयी ‘प्रवासी की आत्मकथा’, ‘दक्षिण अफ्रीका के मेरे अनुभव’, ‘हमारी कारावास की कहानी’, ‘वैदिक प्रार्थना’ आदि है। ‘प्रवासी की आत्मकथा’ की भूमिका डॉ राजेंद्र प्रसाद ने लिखी है तो ‘वैदिक प्रार्थना’ की भूमिका शिवपूजन सहाय ने। सहाय ने तो यहां तक लिखा है कि उन्होंने देश के कई लोगों की लाइब्रेरियां देखी हैं, लेकिन संन्यासी की तरह किसी की निजी लाइब्रेरी नहीं थी।
भवानी दयाल संन्यासी के नाम पर अब भी दक्षिण अफ्रीका में कई महत्वपूर्ण संस्थान चलते हैं। डरबन में उनके नाम पर भवानी भवन है। नेटाल और जोहांसबर्ग के अलावा दूसरे कई देशों में भी संन्यासी अब भी एक नायक के तौर पर महत्वपूर्ण बने हुए हैं।
आप ने विदेश में रहते हुए आर्य समाज के अनेक सफ़ल आयोजन भी किये । इस संदर्भ में १९२५ ईस्वी में आप ने दक्षिण अफ़्रीका में रहते हुए वहीं पर ही स्वामी दयानन्द सरस्वती जी का जन्म शताब्दी समारोह बडी धूमधाम, से आयोजित किया । तत्पशचात आपने नेटाल में आर्य समाज की गतिविधियों को बताने के लिए वहाम पर आर्य प्रतिनिधि सभा की स्थापना की ।
नेटाल में सभा की स्थापना करने के पश्चात आप सन १९२९ में पुन: भारत आये । भारत आ कर भी आपने अपने को आर्य समाज तथा देश के लिए सक्रीय बनाए रखा तथा इस कारण ही १९३० के आन्दोलन में सत्याग्रह किया तथा तत्पश्चात आप निरन्तर राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेते ही रहे । आप के हिन्दी प्रेम को नागरी प्रचारिणी सभा काशी ने भी स्वीकार करते हुए १९४४ में अपने स्वर्ण ज्यन्ती समारोह की अध्यक्शता भी आप ही के कन्धों पर डाल दी, जिस का आप ने सफ़लता पूर्वक निर्वहन किया । इस के तदन्तर आप अजमेर चले गये । अजमेर के आदर्श नगर मुहल्ले में आपने प्रवासी भवन के नाम से एक भवन का निर्माण करवाया तथा इस भवन को ही अपना निवास बनाया तथा यहीं रहने लगे । इस भवन में ही ९ मई १९५० ईस्वी को आप का देहान्त हो गया ।
डॉ.अशोक आर्य
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