”’ध्रुवीकरण के कारण पश्चिम बंगाल में हिंसा हो रही है, लोग मारे जा रहे हैं, महिलाएँ दुष्कर्म की शिकार हो रही हैं। चुनाव के बाद छिटपुट हिंसा कहाँ नहीं होती! यह लोकतंत्र की जीत का जश्न है!”
ऐसा विश्लेषण या मत प्रकट करने वालों से यह सीधा सवाल पूछा जाना चाहिए कि यदि उनकी बहन-बेटी-पत्नी या सगे-संबंधियों में से किसी को सामूहिक दुष्कर्म जैसी नारकीय यातनाओं से गुज़रना पड़ता, यदि उनके किसी अपने को राज्य की सत्ता से असहमत होने के कारण प्राण गंवाने पड़ते, तिनका-तिनका जोड़कर बनाए गए घर को उपद्रवियों द्वारा तोड़ते-बिखेरते-ध्वस्त करते बेबस-चुपचाप देखना पड़ता, मारपीट, लूटखसोट, आगजनी का एकतरफ़ा शिकार होना पड़ता- क्या तब भी उनका ऐसा ही मत या विश्लेषण रहता?
सोचकर देखें, यह सवाल भी चुभता-सा प्रतीत होता है! सभ्य समाज ऐसी करतूतें तो क्या ऐसे सवालों के प्रति भी सहज नहीं होता! हम ‘सामूहिक दुष्कर्म’ जैसे शब्द सुन भी नहीं सकते, उन्होंने यह दारुण कष्ट भोगा है। क्या ऐसा बोलने से पूर्व इन विश्लेषकों-बुद्धिजीवियों को पल भर यह नहीं सोचना चाहिए कि उनकी बातों का क्या और कैसा असर पीड़ितों पर पड़ेगा, आतताइयों का कितना मनोबल बढ़ेगा? क्या इससे पीड़ित परिजनों की आत्मा छलनी नहीं हो जाएगी? क्या इससे आतताइयों की अराजकता और नहीं बढ़ जाएगी? कुछ बातों का राजनीति से ऊपर उठकर खंडन करना चाहिए। पुरज़ोर खंडन। तब तो और जब प्रदेश की मुख्यमंत्री स्वयं चुनाव-प्रचार के दौरान सरेआम ये धमकियाँ दे चुकी हों कि ”केंद्रीय सैन्य बल के जाने के पश्चात तुम्हें कौन बचाएगा?” कुछ बातों के लिए सभ्य एवं लोकतांत्रिक समाज में कोई स्थान नहीं होना चाहिए।
रक्तरंजित एवं राज्य-प्रायोजित हिंसा उनमें सर्वोपरि होनी चाहिए। पत्रकारों-बुद्धिजीवियों का एक वर्ग प्रलोभन या विचारधारा की आड़ में एजेंडा चलाता रहा है। पर उनके साथ-साथ बौद्धिकता का क्षद्म दंभ पालने वाला, स्वयं को उदार व सहिष्णु घोषित करने वाला सनातनी समाज का एक समूह भी कम दोषी नहीं है। वह समूह भिन्न स्वर, भिन्न राग आलापने में अपना वैशिष्ट्य समझता रहा है। ”नहीं जी, मैं सबसे अलग हूँ। कि मैं तो भिन्न सोचता हूँ। कि मैं तो मौलिक चिंतक हूँ। कि मैं तो उदार हूँ। देखो, मैं तो तुम्हारे साथ हूँ, उनके साथ नहीं…. आदि-आदि!”
जुनूनी-मज़हबी-उपद्रवी भीड़ यह नहीं सोचती कि कौन किस दल के समर्थन में खड़ा था? कि किसने कब-कब भिन्न राजनीतिक मत रखा? कि कौन-कौन साझे संघर्षों, साझे सपनों का नारा बुलंद करता रहा, कि किस-किसने मिलकर क़दम बढ़ाया? कि ज़ुनूनी-मज़हबी भीड़ यह नहीं सोचती कि तमाम मत-मतांतरों के बीच एक-दूसरे से जुड़ने-जोड़ने के लिए दोनों का मनुष्य होना ही पर्याप्त है? कि मनुष्य का का मनुष्य हो जाना ही उसकी चरम उपलब्धि है। बल्कि ज़ुनूनी-मज़हबी भीड़ हेतु किसी को निपटाने के लिए उसका सनातनी होना या असहमत होना ही पर्याप्त होता है? प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि 14 से 18 वर्ष के किशोर वय के रोहिंग्याओं ने सर्वाधिक उत्पात-उपद्रव मचाए।
इस आयु में तो सम्यक-संतुलित राजनीतिक चेतना भी विकसित नहीं हो पाती! फिर किसने इन्हें मज़हब की कुनैन खिलाकर पाला-पोसा? किसने इनके मन में भिन्न मतों-विश्वासों के प्रति ज़हर भरा? उल्लेखनीय है कि उनका आपस में कोई पुश्तैनी विवाद नहीं था, न ही ज़मीन-ज़ायदाद-संपत्ति का ही कोई विवाद था। इस हिंसा में जिन आम लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी, उनका क़सूर केवल इतना था कि वे अपनी आशाओं-आकांक्षाओं के अनुरूप राज्य की व्यवस्था के लिए एक सक्षम-सक्रिय सरकार का चयन करना चाहते थे, उनका क़सूर केवल इतना था कि उन्होंने लोकतांत्रिक-व्यवस्था में अपने मताधिकारों का प्रयोग करने का साहस दिखाया। चुनाव यदि लोकतंत्र का उत्सव है तो मतदान हमारी नागरिक-जिम्मेदारी। यदि किसी एक को भी मतदान के लोकतांत्रिक अधिकार एवं उत्तरदायित्व का निर्वाह करने के कारण प्राणों का मूल्य चुकाना पड़ा है तो यह भारतीय लोकतंत्र के माथे पर लगा सबसे बड़ा कलंक है।
ध्रुवीकरण को कारण मानने-बताने वाले बड़े-बड़े चिंतक-विश्लेषक क्या यह बताने का कष्ट करेंगें कि कश्मीरी पंडित किस ध्रुवीकरण के कारण मारे और खदेड़ दिए गए? घाटी में किसने किसको उकसाया था? पाकिस्तान और बांग्लादेश में लाखों लोग किस ध्रुवीकरण के कारण काट डाले गए, हिंसक हमले के शिकार हुए या जबरन मतांतरण को मजबूर हुए? मोपला, नोआखली जैसे इतिहास में घटे सैकड़ों नरसंहार भी क्या ध्रुवीकरण की देन थे? भारत-विभाजन क्या ध्रुवीकरण के कारण हुआ? क्या उस ध्रुवीकरण में सनातनियों की कोई भूमिका थी? यदि सनातनियों का ध्रुवीकरण ख़तरा होता तो सबसे अधिक भय तो जैनों, बौद्धों, सिखों, पारसियों, यहूदियों में होना चाहिए? क्या तत्कालीन काँग्रेस और गाँधी भी ध्रुवीकरण कर रहे थे? जिनके विरुद्ध जिन्ना के एक आह्वान पर लगभग सारे मुस्लिम एकजुट हो गए? क्या वे केवल बहुसंख्यकों के नेता थे? ग़जनी, गोरी, अलाउद्दीन, औरंगजेब, नादिरशाह, तैमूर लंग जैसे तमाम हत्यारे शासक और आक्रांता क्या ध्रुवीकरण की प्रतिक्रिया में हिंदुओं-सनातनियों पर बार-बार आक्रमण कर उनका नरसंहार कर रहे थे? उनके आस्था-केंद्रों, मंदिरों, पुस्तकालयों को नष्ट-भ्रष्ट कर रहे थे।
काशी-मथुरा-नालंदा-अयोध्या-सोमनाथ का विध्वंस क्या ध्रुवीकरण के परिणाम थे? यक़ीन मानिए, इससे निराधार और अतार्किक बात कोई और नहीं हो सकती! बल्कि इस्लाम का पूरा इतिहास हिंसा और आक्रमण का रहा है। उसने इसे उपकरण के रूप में इस्तेमाल करते हुए दुनिया-जहान में अपना विस्तार किया। इस विस्तार के क्रम में उसने मज़हब के नाम पर अकारण लाखों-करोड़ों लोगों का ख़ून बहाया। लाखों-करोड़ों लोगों पर अपने मत थोपे। ताक़त के बल पर मतांतरण कराया। इस्लाम धार्मिक सत्ता से अधिक एक राजनीतिक सत्ता है, जो प्रभुत्व स्थापित करने की वर्चस्ववादी भावना-प्रेरणा से संचालित है। जिसका सारा भाईचारा अपने कौम तक सीमित है। दूसरों के संग-साथ चलने के लिए वह क़दम भर तैयार नहीं! इस्लाम में विश्वास रखने वाले मुसलमान पूरी दुनिया में अपने को पीड़ित दर्शाते हैं, पर ग़ैर मतावलंबियों के साथ किए गए अत्याचार पर मौन रह जाते हैं। यहाँ तक कि इस्लाम को मानने वाले कुर्दों, बलूचों, यज़ीदियों, अहमदियों और शियाओं के प्रति भी उनका असमान एवं अत्याचार भरा व्यवहार समझ से परे है। जब वे अपनों के प्रति असहिष्णु हैं तो दूसरों के साथ उनके व्यवहार की सहज ही कल्पना की जा सकती है।
सच तो यह है कि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की जीत के बाद हुई हिंसा राजनीतिक नहीं है, उसके पीछे वहाँ की जनसांख्यिकीय स्थिति मुख्य कारक है। पश्चिम बंगाल में 30 से 35 प्रतिशत आबादी मुसलमानों की है। वे सत्ता को उपकरण बनाकर वहाँ हिंसा का मज़हबी कुचक्र रच रहे हैं। ताकि शांति और सुरक्षा को सर्वोपरि रखने वाली बची-खुची हिंदू जाति भी वहाँ से पलायन कर जाए। ध्रुवीकरण को कारण मानने और ऐसा विश्लेषण करने वाले विद्वान या तो कायर हैं या दुहरे चरित्र वाले! किसी-न-किसी लालच या भय में उनमें सच को सच कहने की हिम्मत नहीं! घोर आश्चर्य है कि जो लोग दलगत राजनीति से ऊपर उठकर पश्चिम बंगाल की हिंसा, अराजकता, लूटमार, आगजनी, सामूहिक दुष्कर्म जैसे नृशंस एवं अमानुषिक कुकृत्यों पर एक वक्तव्य नहीं जारी कर सके, अपने सोशल मीडिया एकाउंट पर ऐसे कुकृत्यों का एक खंडन नहीं कर सके, वे भी ऊँची-ऊँची मीनारों पर खड़े होकर मोदी-योगी-भाजपा को ज्ञान दे रहे हैं! सहिष्णुता का राग आलाप रहे हैं, लोकतंत्र के प्रहरी होने का दंभ भर रहे हैं। प्रश्न है कि यदि किसी को लाज ही न आए तो क्या उसे निर्लज्जता की सारी सीमाएँ लाँघ जानी चाहिए! निरा ढीठ एवं निर्लज्ज हैं वे लोग, जो पश्चिम बंगाल की राज्य-पोषित मज़हबी हिंसा पर ऐसी टिप्पणी, ऐसा विश्लेषण कर रहे हैं।
हिंसा पाप है। पर कायरता महापाप है। कोई भी केंद्रीय सरकार या प्रदेश सरकार किसी की माँ-बहन-बेटी-पत्नी की आबरू बचाने के लिए, हमारी जान की हिफाज़त के लिए चौबीसों घंटे पहरे पर तैनात नहीं रह सकती! उस परिस्थिति में तो बिलकुल भी नहीं, जब किसी प्रदेश की पूरी-की-पूरी सरकारी मशीनरी राज्य की सत्ता के विरोध में मत देने वालों से भयानक बदले पर उतारू हो! इसलिए आत्मरक्षार्थ समाज को ही आगे आना पड़ेगा। भेड़-बकरियों की तरह ज़ुनूनी-उन्मादी-मज़हबी भीड़ के सामने कटने के लिए स्वयं को समर्पित कर देना कायरता भरी नीति है! इससे जान-माल की अधिक क्षति होगी। इससे मनुष्यता का अधिक नुकसान होगा। शांति और सुव्यवस्था शक्ति के संतुलन से ही स्थापित होती है।
जो कौम दुनिया को बाँटकर देखती है, उनके लिए हर समय ग़ैर-मज़हबी लोग एक चारा हैं! जिस व्यवस्था में उनकी 30 प्रतिशत भागीदारी होती है, उनके लिए सत्ता उस प्रदेश को एक ही रंग में रंगने का मज़बूत उपकरण है। गज़वा-ए-हिंद उनका पुराना सपना है। वे या तो ग़ैर-मुस्लिमों को वहाँ से खदेड़ देना चाहते हैं या मार डालना। लड़े तो बच भी सकते हैं। भागे तो अब समुद्र में डूबने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा!
हम सनातनियों की सबसे बड़ी दुर्बलता है कि हम हमेशा किसी-न-किसी अवतारी पुरुष या महानायक की बाट जोहते रहते हैं। ईश्वर से गुहार लगाते रहते हैं। आगे बढ़कर प्रतिकार नहीं करते, शिवा-महाराणा की तरह लड़ना नहीं स्वीकार करते! यदि जीना है तो मरने का डर छोड़ना पड़ेगा।
इसलिए यह कहना कदाचित अनुचित नहीं होगा कि जो समाज हर प्रकार की नृशंसता एवं पाशविकता की प्रतिरक्षा में प्रत्युत्तर देने की ताकत रखता है, वही अंततः अपना अस्तित्व बचा पाता है। सरकारों के दम पर कभी कोई लड़ाई नहीं लड़ी व जीती जाती! सभ्यता के सतत संघर्ष में अपने-अपने हिस्से की लड़ाई या तो स्वयं या संगठित समाज-शक्ति को ही लड़नी होगी। मुट्ठी भर लोग देश के संविधान, पुलिस-प्रशासन, क़ानून-व्यवस्था को ठेंगें पर रखते आए हैं, पर पीड़ित या भुक्तभोगी नागरिक-समाज केवल अरण्य-रोदन रोता रहा है! संकट में घिरने पर इससे-उससे प्राणों की रक्षा हेतु गुहार लगाना एक बात है और आत्मरक्षा के लिए संगठित होना, आक्रांताओं-अपराधियों से डटकर मुक़ाबला करना दूसरी बात! बात जब प्राणों पर बन आती हो तो उठना, लड़ना और मरते-मरते भी असुरों का संहार करना आपद-धर्म कहलाता है। पूरा विश्व ही युद्ध में हैं, युद्ध में मित्रों की समझ भले न हो, पर शत्रु की स्पष्ट समझ एवं पहचान होनी चाहिए। याद रखिए, युद्ध में किसी प्रकार की द्वंद्व-दुविधा, कोरी भावुकता-नैतिकता का मूल्य प्राण देकर चुकाना पड़ता है! इसलिए उठना, लड़ना और अंतिम साँस तक आसुरी शक्तियों का प्रतिकार करना कल्याणकारी नीति है। हमारे सभी देवताओं ने असुरों का संहार किया है। आत्मरक्षा हेतु प्रतिकार करने पर कम-से-कम निर्दोष-निरीह-निहत्थे समाज पर हमलावर समूह में यह भय तो पैदा होगा कि यदि उन्होंने सीमाओं का अतिक्रमण किया, अधिक दुःसाहस दिखाया या जोश में होश गंवाया तो संकट उनके प्राणों पर भी आ सकता है!
पश्चिम बंगाल के पड़ोसी राज्य आसाम में वहाँ की जनता ने यह कर दिखाया है। वहाँ के नागरिकों ने हेमंत विस्व शर्मा के रूप में अपना नायक चुन लिया है। वे उन्हें दुहरी बात करने वाले नेता नहीं लगे। खरी-खरी और स्पष्ट बोलने वाले नेतृत्व को जनता सिर-माथे बिठाती है। हेमंत विस्व शर्मा उसके जीवंत उदाहरण हैं। बंगाली समाज को भी कृत्रिम या खंडित बंगाली अस्मिता का परित्याग कर राष्ट्रीय अस्मिता यानी हिंदू अस्मिता से जुड़ना होगा और अपने बीच से अपना एक नायक चुनना होगा। सबके साथ से अपनी सामूहिक-सांस्कृतिक अस्मिता की लड़ाई लड़नी होगी। जागरूक एवं संगठित समाज ही पश्चिम बंगाल को हिंसा एवं अराजकता से निजात दिला सकता है। केंद्रीय सरकार की भूमिका समाज के पीछे शक्ति बनकर खड़े रहने की होगी, न कि उनके लिए अग्रिम मोर्चे पर लड़ने वाले सारथि की।
प्रणय कुमार
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