बाणभट्टकृत हर्षचरित में वर्णित एक प्रसंग के अनुसार हर्ष की बहन राज्यश्री अपने बड़े भाई और पति की हत्या के दुःख से विक्षिप्त होकर वन में चली गई थी। हर्ष उन्हें खोजते-खोजते विंध्यक्षेत्र में पहुंचे, जहाँ उनकी भेंट एक बौद्ध दार्शनिक दिवाकरमित्र से हुई| दिवाकर के आश्रम में विभिन्न संप्रदायों के विद्वान दार्शनिक चर्चाएं करने आते थे। हर्ष ने वहाँ अनेक मतों के विद्वानों को देखा था। बाण ने इन मतों का नाम सहित उल्लेख किया है| हर्षचरित का यह प्रसंग भारत के धार्मिक एवं दार्शनिक इतिहास की दृष्टि से महत्वपूर्ण है|
हर्ष के समय में जैनों की तीन विचारधाराएँ प्रचलित थीं, जिनका बाण ने आर्हत, श्वेतपट और केशलुंचक के रूप में उल्लेख किया है। श्वेतपट कदाचित् श्वेताम्बर रहे होंगे, जो अब भी हैं। परन्तु आर्हतों एवं केशलुँचकों का अब अस्तित्व नहीं है। यह ध्यान देने योग्य है कि बाण ने दिगंबरों का उल्लेख नहीं किया है। उस समय शाक्यमुनि गौतम बुद्ध को जिननाथ कहा जाता था| इसलिए बाण ने बौद्धों के लिए ‘जैन’ शब्द का प्रयोग किया है|
शैव या पाशुपत संप्रदाय को हर्षचरित में मस्करी कहा गया है। उल्लेखनीय है कि बाण से सैकड़ों वर्ष पूर्व हुए पाणिनि ने अष्टाध्यायी में मस्करी शब्द का प्रयोग बाँस का एक दंड धारण करने वाले सन्यासियों के लिए किया है| परन्तु पतंजलि ने अष्टाध्यायी का भाष्य लिखते हुए इस पर आपत्ति की है| उन्होंने कर्मों की निरर्थकता में विश्वास रखने वाले नियतिवादी सन्यासियों को मस्करी कहा है| पतंजलि का यह विवरण आजीवक परम्परा की ओर संकेत करता है|
हर्षकालीन भारत में श्रीविष्णु के उपासक मुख्यतः दो समूहों में बंटें हुए थे। एक समूह भागवतों का था, जो अब भी बना हुआ है| दूसरा समूह पांचरात्रिकों का था| पांचरात्रिक मानते थे कि नारायण ने पाँच रातों तक एक विशिष्ट यज्ञ किया था, जिससे उन्हें अलौकिक एवं अद्वैत अवस्था उपलब्ध हुई थी| उनका यह भी मानना था कि विश्व की रचना पंचव्यूह के माध्यम से हुई है| आरम्भ में वासुदेव नामक व्यूह था, जिससे संकर्षण व्यूह का निर्माण हुआ| संकर्षण से प्रद्युम्न तथा प्रद्युम्न से अनिरुद्ध नामक व्यूह बना| अंततः अनिरुद्ध से ब्रह्मा व्यूह का निर्माण हुआ, जिससे भौतिक विश्व की रचना हुई|
बाण ने नैष्ठिक ब्रह्मचारियों को वर्णी साधु कहा है| आजीवकों को पाण्डुरि तथा नैयायिकों को ऐश्वरकारणिक कहा गया है| रसायनशास्त्रियों को कारन्धमी कहा जाता था| इनका मानना था कि औषधियों की सहायता से शरीर को अजर-अमर बनाया जा सकता है| मीमांसक साप्ततन्तव के रूप में प्रसिद्ध थे, जो यज्ञादि कर्मकांडों का समर्थन और प्रचार-प्रसार करते थे|
व्याकरण दर्शन के प्रचारकों को शाब्द कहा जाता था| ये पाणिनि, यास्क और भर्तृहरि आदि विद्वानों के चिंतन परम्परा के संरक्षक एवं वाहक थे| धर्मशास्त्री स्मृतियों के पक्षकार थे, जो सामाजिक जीवन के नियमन के लिए लिखी गई थीं| वेदान्तियों को औपनिषद कहा गया है। इनका चिंतन आत्मा और ब्रह्म जैसे गूढ़ विषयों पर केन्द्रित था| साँख्य अनुयायियों को कापिल तथा वैशेषिकों का काणाद कहकर वर्णन किया गया है। काणादों का दर्शन पदार्थ के विश्लेषण पर आधारित था| लोकायत चार्वाकों को कहा गया है| ये लौकिक जीवन को सुन्दर बनाने का आग्रह करते थे| बाण ने योग का नामोल्लेख नहीं किया है। संभवतः उनके समय में योगदर्शन पृथक न होकर साँख्य में ही समाहित था। पुराण के अध्येता को पौराणिक कहा जाता था। इनके अतिरिक्त दूसरे मत भी थे, किंतु बाण ने उन्हें केवल ‘अन्य’ लिख दिया है।
बाण के विवरण से प्रतीत होता है कि इन संप्रदायों में कड़ी वैचारिक प्रतिस्पर्धा थी। सर्वप्रथम विद्याभिलाषी किसी गुरु के सानिध्य में मूल ग्रंथों का अध्ययन करते थे। उसके पश्चात् वो परस्पर चर्चा द्वारा संदेहों का निराकरण करते थे। तत्पश्चात् अपने द्वारा स्वीकार किये गये सिद्धांतों पर लगे आक्षेपों का निवारण एवं दूसरों के सिद्धांतों पर प्रश्न करते थे। इस प्रक्रिया में प्रत्येक सिद्धान्त पर गहन अनुसंधान एवं उनका तुलनात्मक अध्ययन होता था, जिसे व्युत्पादन कहा जाता था। व्युत्पादन के पश्चात् शास्त्रार्थ होता था, जिसका सर्वाधिक महत्व था। शास्त्रार्थ में किसी एक सिद्धांत को दूसरे सभी सिद्धांतों से उत्कृष्ट सिद्ध करने की प्रतियोगिता होती थी। इसके लिए विद्वान एक दूसरे को चुनौती दिया करते थे। शास्त्रार्थ में जीतने वाला विद्वान समाज में ज्ञानशिरोमणि के रूप में स्थापित होता था। हर्षचरित में दिवाकरमित्र का आश्रम ऐसी ही निरंतर होने वाली ज्ञानसाधना के केंद्र के रूप में वर्णित है। बाण ने दिवाकरमित्र का वर्णन किसी दिव्यपुरुष की भांति करते हुए उन्हें बुद्ध के समतुल्य कहा है।
हर्षचरित के अंतिम अध्याय में हर्ष की कषाय वस्त्र धारण करने की इच्छा का उल्लेख है। हर्ष ने दिवाकर से कहा था कि अपने राजकीय कर्तव्यों का निर्वहन करने में पश्चात् वो अपनी बहन के साथ संन्यास ले लेंगे। यह स्पष्ट नहीं है कि हर्ष किस परंपरा में संन्यास लेने के इच्छुक थे, किन्तु हर्ष को दिवाकर से प्रभावित दिखाया गया है। दिवाकर-हर्ष संवाद से ऐसा संकेत मिलता है कि हर्ष बौद्ध परंपरा में ही दीक्षित होना चाहते थे।
संदर्भ ग्रन्थ: हर्षचरित।
लेखक परिचय: सिद्धार्थ सिंह उत्तर प्रदेश के निवासी हैं। इन्होंने इंजीनियरिंग से स्नातक की शिक्षा प्राप्त की है। ये धर्म, दर्शन तथा मनोविज्ञान पर स्वतंत्र शोधकार्य में संलग्न हैं।
साभार – https://theindianrover.com/ से