Sunday, November 24, 2024
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वैदिक शिक्षा – गुरुकुल के प्रकार

गुरु-शिष्य परंपरा सहस्त्रों वर्षों से अब तक अविरत भारत में उपस्थित है। उसकी अवस्था में परिवर्तन आये हैं व उसके क्षेत्र का विस्तार पारंपरिक काल की अपेक्षा अब बहुत सीमित होता जा रहा है। गुरु-शिष्य परंपरा का सर्वोत्तम निर्वहन गुरुकुल के रूप में हमें आज देखने को मिलता है। गुरु-शिष्य परंपरा व गुरुकुल भारत का अत्यंत विलक्षण व प्रभावशाली विचार है। जब शिक्षा के अर्थ को भी वैश्विक सभ्यता उचित प्रकार समझती नहीं थी, भारत ने एक पूर्ण, सार्वभौमिक व कालातीत शिक्षा प्रणाली को स्थापित व क्रियान्वित किया जो मानव का पूर्ण विकास करती है, केवल विषयों के, ग्रंथों के अध्ययन तक सीमित नहीं है। गुरुकुल चारित्र्य निर्माण करता है, personality development नहीं! गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था व प्रणाली विश्व को भारत की अपूर्व देन है। ज्ञान और विद्या का गूढ़ हस्तांतरण असाधारण रूप से वैज्ञानिक व सरल पद्धति से ऋषियों के काल से अब तक चला आ रहा है।

अन्य प्रणालियों के परिणाम..या कहें दुष्परिणाम हम सबके सामने हैं। यह एक मुख्य कारण है कि गुरुकुल और गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था आजकल चर्चा में प्रचलित हो रहे हैं। एक आधुनिक सामान्य व्यक्ति उसके बारे में अधिक नहीं जानता है यदि वह उस पर विशेष रूप से जानकारी न ले रहा हो। ऐसे में “गुरुकुल क्या है?” अथवा “गुरुकुल क्या होता है?” इस प्रश्न के सबके मन-मस्तिष्क में अलग-अलग उत्तर होते हैं अथवा एक छवि होती है। पंडित विश्वनाथ दातार शास्त्री ने गुरुकुल के सार तत्व को स्पष्ट रूप से आधुनिक समाज को प्रदान किया है। उसका एक मुख्य पक्ष यह है कि गुरुकुल क्या नहीं है, यह समझना आवश्यक है। गुरुकुल व्यवस्था को पुनः स्थापित करने के लिए गुरुकुल को लेकर जो भ्रांतियाँ हैं (अधिकतर अज्ञान के कारण) उनका निवारण आवश्यक है।मध्यकाल से स्वरूप बदलने का आरंभ कर, आज के समय तक में उपस्थित गुरुकुलों के विविध प्रकार कौन से हैं, यह स्पष्टता यह समझने में सहायता करती है कि सम्पूर्ण गुरुकुल क्या हैं अथवा कौन से हैं।

आधुनिक समय में गुरुकुलम् नाम सुनते ही हमारे ध्यान में शिखा धारी बटु, कर्मकाण्ड होम, हवन इत्यादि उपस्थित होता है। यह सम्पूर्ण गुरुकुलम् नहीं हैं। परंतु मध्यकालीन गुरुकुलम् की झलक मात्र हैं। मध्यकालीन भारत में यह स्थिति थी कि प्रायः संस्कृत पाठशाला का प्रचलन गुरुकुलम् के रूप में बढ़ गया था।

प्राचीन काल में, जैसे रामायण में वर्णित है, राम विभिन्न ऋषियों के आश्रम में गए हैं। ऐसे छह ऋषियों के आश्रम में राम रुके हैं उसका वर्णन रामायण में दिया गया है। वहाँ प्रत्येक आश्रम का वातावरण, विषयों के पठन-पाठन की व्यवस्था भिन्न थी। यही सच्ची भारतीय व्यवस्था है।

एक ही कोर्स या पाठ्यक्रम, एक समय पर ही सबकी परीक्षा, एक समान डिग्री, यह सब केन्द्रीयकरण (centralisation) के लक्षण हैं। विकेन्द्रित (de-centralised) व्यवस्था में सभी स्थान पर भिन्न-भिन्न व्यवस्था होती है, विषय भी भिन्न होते हैं। पद्धतियाँ भिन्न होती हैं। तब भी एकरूपता, एकनिष्ठता होती है क्योंकि सब वेद सम्मत शास्त्रानुसार ही कार्यरत होते हैं।

सच्चे धर्म का लक्षण करते हुए बताया गया है :

प्रामाण्यं सर्वशास्त्रेषु साधनानां अनेकता। उपास्यानां अनियमएतत् धर्मस्य लक्षणम्।।

जिस में अनेक प्रकार की साधना पद्धतियों को स्वीकार किया गया हो, वही धर्म है।

इसी तरह से अनेक प्रकार के गुरुकुलों को हमारे यहाँ स्वीकार किया गया है।

(1) वैदिक वेद–पाठशाला

वेद पाठशालाओं में वेद का अध्ययन कराया जाता है । वेद को स्मरण करने की या रटने की मुख्य दो तकनीक हैं: प्राकृतपाठ और विकृतपाठ

प्राकृतपाठ पाँच प्रकार के होते हैं। विकृतपाठ आठ प्रकार के होते हैं । इन वेद पाठशालाओं में केवल वेदों के शब्द का ज्ञान होता है, अर्थ का नहीं।

(2) शास्त्र पाठशाला

शास्त्र पाठशाला में विभिन्न शास्त्र पढ़ाए जाते हैं। न्याय, व्याकरण, वेदांत, मीमांसा इत्यादि का अध्ययन कराया जाता है। किन्तु इसमें पाश्चात्य पद्धति (western philosophy), जगत के विभिन्न धर्म, आयुर्वेद, ज्योतिष, वैदिक गणित आदि का अध्ययन प्रायः नहीं कराया जाता है।

(3) जैन पाठशाला, गुरुकुलम्

जैन धर्म के सिद्धांतों को, आचारों को केंद्र में रखते हुए वहाँ पर जैन धर्म के विभिन्न ग्रंथों का अध्ययन कराया जाता है। जैन धर्म के विविध आचार-नियमों का पालन होता है। जैसे सूर्यास्त के बाद खान एवं पान वर्जित होता है। जैन धर्म के अनुसार पूजा-कर्मकांड इत्यादि होता है।

इसी प्रकार बौद्ध पाठशाला व विश्वविद्यालय भी होते हैं, जहाँ बौद्ध धर्मानुसार अध्ययन पालन होता है।

(4) पञ्चगव्य कृषि गुरुकुलम्

ऐसे गुरुकुलों में प्रायः कृषि और गाय को केंद्र में रखते हुए पंचगव्य से विभिन्न प्रकार के उत्पाद बनाने का प्रशिक्षण एवं गौपालन- गौआधारित कृषि का प्रशिक्षण दिया जाता है। विशेषकर गाँवों के, किसानों के बच्चों के लिए यह उपयुक्त होता है।

(5) विभिन्न सम्प्रदाय चालित गुरुकुलम्

भारत के विभिन्न प्रान्तों में विभिन्न सम्प्रदायों के द्वारा भी गुरुकुलम् चलाये जा रहे हैं। उनमें विभिन्न सम्प्रदाय के आचारों का प्राधान्य रहता है। उस सम्प्रदाय के ग्रंथ पढ़ाये जाते हैं – कुछ ग्रंथों को और पढ़ाया जाता है किन्तु सर्व-स्वीकार की भावना एवं हृदय की विशालता का आना यहाँ पर थोड़ा कठिन होता है।

(6) आर्यसमाज द्वारा संचालित गुरुकुलम्

महर्षि दयानंद सरस्वती जी द्वारा स्थापित आर्य समाज द्वारा सभी जाति-वर्ण के लिए सर्वस्वीकार की भावना को केंद्र में रखते हुए आर्ष ग्रंथों का शिक्षण दिया जाता है जैसे वेद, उपनिषद, विभिन्न दर्शन इत्यादि।

यह सभी गुरुकुलम् प्रायः ब्रह्चारियों के द्वारा संचालित होते हैं। वहीं पर गुरुमाता का सहसंचालक के रूप में होना प्रायः असंभव हो जाता है।

(7) मिश्र (आधुनिक पद्धति व शिक्षा एवं आंशिक प्राचीन ) गुरुकुलम्

स्कूल एवं गुरुकुलम् एक साथ चलते हों, ऐसा भी आजकल बहुत जगह देखने को मिलता है। जैसे वहाँ पर बच्चे सुबह से दोपहर तक स्कूल का अभ्यास करते हैं, शाम को वेद या संस्कृत ऐसा पढ़ाया जाता है, इसको मिश्र अभ्यासक्रम कहा जाता है। यह भी अनेक सम्प्रदाय चालित अथवा आधुनिक गुरु कहलाने वाले व्यक्तियों द्वारा चालित विद्यालयों में चलता है।

(8) सरकार द्वारा चालित विभिन्न विश्विद्यालयीय गुरुकुलम्

सरकार द्वारा भी संस्कृत एवं प्राच्य विधि संरक्षण हेतु विश्विद्यालय चलाये जाते हैं। विश्वविद्यालयों में बहुत बड़ी संख्या में विद्यार्थी भाग लेते हैं और उसमें केंद्रीकरण, भेदभाव, प्रेम स्नेह का अभाव, यह दोष तो आधुनिक शिक्षा की तरह ही होते हैं। उसमें प्राचीन पद्धतियों को छोड़कर केवल प्राचीन विषयों को पढ़ाने पर बल दिया जाता है किन्तु वह भी परीक्षा-लक्षी होने के कारण उन विषयों को पढ़ने में गहराई नहीं आ पाती है। ऐसे विश्वविद्यालयों में विभिन्न डिग्रियाँ भी दी जाती हैं जैसे डिप्लोमा, शास्त्री, आचार्य, डॉक्टरेट, इत्यादि।

इसमें गुरु परंपरा, शिष्य और आचार्य के बीच विशेष संबंध का अभाव, निवास का अभाव इत्यादि के कारण ये गुरुकुलम् नहीं कहा जाता है। इन्हें विश्वविद्यालय कहना कितना उचित है? क्योंकि विश्व का ज्ञान इसमें प्रायः नहीं मिलता है। यह पूरा विषय तत्वज्ञान में ही आता है और उसके लिए भी गुरुकुलम् में आचार्य का सानिध्य अपेक्षित है। ऐसे विश्वविद्यालयों में संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थानम्, तिरुमला संस्कृत विश्वविद्यालय, महर्षि सांदीपनि राष्ट्रीय वेदविद्या प्रतिष्ठान आदि का समावेश होता है।

(9) आचार्यकेंद्रित – स्वनिर्भर – सर्वकार हस्तक्षेप रहित – गुरूपरम्परा आधारित – पंचकोशीय विकास लक्षित – गुरुमाता सहभागिता से युक्त – मनुष्य का निर्माण करनेवाला गुरुकुलम् : सर्वांगीण विकास अनुरूप आदर्श गुरुकुलम्

ऐसे गुरुकुलम् भारत में बहुत कम या प्रायः नहीं देखने को मिलते हैं जिसमें इहलोक और परलोक दोनों का विचार और कल्याण हो ।

अथ अभ्युदय: नि:श्रेयस सिद्धि: स: धर्म:।

– जिसमें इहलोक का उदय और परलोक का सुउदय होता हो उसे धर्म कहा जाता है। न्यायसूत्र में यह व्याख्या बताई गई है।

इहलोक अर्थात इस पृथ्वी के जीवन के लिये आयुर्वेद, पंचगव्य, कृषि, अर्थशास्त्र, विभिन्न कलाएँ, वस्त्रोद्योग, इत्यादि उपयोगी होता है एवं परलोक की उन्नति के लिए आत्मतत्व का ज्ञान, परलोक के विषय में स्पष्टता , मन बुद्धि चित्त इत्यादि का विशिष्ट ज्ञान, जीवन के अस्तित्व की अनवरतता और पंचकोषीय विकास का ज्ञान। इनका सूक्ष्म ज्ञान, वेद का जो ज्ञान भाग है- जिसे उपनिषद कहा जाता है या दर्शन कहा जाता है, उससे प्राप्त होता है।

ऐसा समन्वयात्मक ज्ञान जहाँ गुरु के सानिध्य व सामीप्य में मिले उस तपस्थली को आदर्श गुरुकुलम् कहा जाता है। ऐसे आदर्श व पूर्ण गुरुकुल ही समाज की सभी व्यवस्थाओं के लिए ऐसे उच्च सज्जनों का निर्माण करता है जिनसे सारा विश्व सीखता है। जिसके बारे में मनुस्मृति कहती है:

ऐतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन:। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथ्विव्यां सर्वमानवाः।।

ऐसे देश में ऐसे अग्रजन जन्मे हैं जिनके अपने चरित्रों से पृथ्वी के सभी मानव शिक्षा लेते हैं।

समाज व संसार के लिए आवश्यक व कार्यरत सभी व्यवस्थाओं के लिए उत्तम, आदर्श चरित्रों का निर्माण करना गुरुकुल की मुख्य भूमिका है। आज आचार्य केंद्रित एवं परंपरा आधारित पंचकोशीय विकास के अनुरूप अभ्यास को लेकर चल रहे गुरुकुल बहुत ही कम है, जिसमें विभिन्न विषयों का समन्वय करके मानव जीवन की सम्पूर्णता को ध्यान में रखते हुए विभिन्न विषय एवं क्रियाकलापों का नियोजन किया जाता है। ऐसे गुरुकुलों का विस्तार व स्थापन आज के समय आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है।

संदर्भ:
निजी शोध
पं विश्वनाथ दातार शास्त्री जी द्वारा दिए गए संबोधन व उनके शोध-विचार निष्कर्ष
संस्कृति आर्य गुरुकुलम द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गुरुकुल शिक्षा – गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था एवं पद्धतियों का सम्पूर्ण आलेखन”


लेखिका परिचय
अंशु अपने को एक सतत जिज्ञासु कहती हैं। वर्तमान में संस्कृति आर्य गुरुकुलम में शिष्य तथा शिक्षक हैं। दर्शन, वैदिक शिक्षा और आयुर्वेद गुरुकुल में शिक्षण के मुख्य विषय हैं। प्राप्त ज्ञान को साझा करने की मंशा से विभिन्न वैदिक विषयों पर लिखती हैं।भारतीय इतिहास और वैदिक ज्ञान के आधुनिक शास्त्रीय प्रयोग उनकी रुचि के विषय हैं। फिनटेक, आईटी कंसल्टिंग के क्षेत्र में 20 वर्ष बिताने के बाद अब वैदिक ज्ञान, शिक्षा और शिक्षा पद्धति की साधना यात्रा पर निकल चुकी हैं।

साभार – https://www.indictoday.com/ से

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