जिन दिनों हिन्दी नवजारण के अग्रदूत कहे जाने वाले भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र, गद्य खड़ी बोली में लिख रहे थे किन्तु कविता के लिए ब्रजभाषा को ही सबसे उपयुक्त मान रहे थे, उन्हीं दिनों बिहार के बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री ने कविता के लिए भी खड़ी बोली अपनाने का आन्दोलन चलाकर अपनी मौलिक और क्रान्तिकारी दृष्टि का परिचय दिया था और भारतेन्दु व उनके मंडल को चुनौती दी थी.
पुरुषोत्तम प्रसाद वर्मा ने मार्च 1905 ई. की ‘सरस्वती’ में ‘अयोध्या प्रसाद खत्री’ शीर्षक लेख लिखा है जिसमें उन्होंने लिखा है कि “खड़ी बोली के प्रचार के लिए खत्री जी ने इतना द्रव्य खर्च किया कि राजा -महाराजा भी कम करते हैं.” उन्होंने ब्राह्मण टोली में ब्राह्मणों के बीच घोषणा कर दी थी कि जो पंडित अपने यजमानों के यहाँ सत्यनारायण कथा खड़ी बोली में बाँचेंगे, उन्हें वे हर कथा -वाचन के लिए दस रूपए देंगे. हाँ, उन्हें अपने यजमानों से कथा-वाचन का प्रमाण पत्र लाना होगा. वे ऐसा करते भी थे. उन्होंने कर्मकांड के लिए अनेक पुस्तकों का खड़ी बोली में अनुवाद कराया था और उन्हें वे नि:शुल्क वितरित करते थे.
गजेन्द्र कान्त शर्मा के अनुसार खड़ी बोली पद्य के प्रति उनका ऐसा अनुराग था कि ‘चंपारण-चंद्रिका’ में उन्होंने एक सूचना दी थी कि जो भगवान रामचंद्र जी के यश का खड़ी बोली में पद्यबद्ध वर्णन करेगा उसे प्रति पद्य एक रूपया दिया जाएगा. ‘रामचरितमानस’ का भी खड़ी बोली में अनुवाद करने के लिए प्रति दोहे और चौपाई एक रूपया देने की उन्होंने घोषणा की थी. वे खड़ी बोली में कविता करने वाले को हर कविता पर पाँच रूपया पुरस्कार अपने पास से देते थे. ( सबलोग, 4 जनवरी 2021)
बलिया ( उत्तर प्रदेश ) के सिकंदरपुर गाँव में जन्मे और बाद में मुजफ्फरपुर ( बिहार ) की कलक्टरी में पेशकार रहे बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री ( 1857-4..01.1905) की जन्मतिथि के बारे में मुझे कहीं उल्लेख नहीं मिला. उनका परिवार 1857 के सिपाही विद्रोह के कारण अंग्रेजों की भयंकर जुल्म का शिकार हुआ जिसके कारण उनके पिता अपना गाँव छोड़कर मुजफ्फरपुर में चले आए और वहीं जीविका के लिए किताबों की एक दूकान खोल ली. इसी वर्ष खत्री जी का जन्म भी हुआ था. अयोध्या प्रसाद खत्री के व्यक्तित्व का निर्माण हुआ इसी परिवेश में हुआ.
उल्लेखनीय है कि भारतेन्दु काल के आरंभ में खड़ी बोली तो गद्य की भाषा बन गई किन्तु पद्य की भाषा बनने में उसे लम्बा संघर्ष करना पड़ा. खुद भारतेन्दु कविताएं ब्रजभाषा में ही लिखते थे. पहले से चली आ रही ब्रजभाषा और उसके माधुर्य को छोड़कर खड़ी बोली को कविता की भाषा के रूप में स्वीकार करना कवियों के लिए असहज लग रहा था. इतना ही नहीं, कविताओं के विषय भी मध्यकालीन भाव-बोध से जुड़े हुए थे. ऐसे समय में अयोध्या प्रसाद खत्री खड़ी बोली के पक्ष में उठ खड़े हुए और उसे प्रतिष्ठा दिलाने में महती भूमिका निभाई. अयोध्या प्रसाद खत्री की इस मुहिम में उन्हें बिहार के कुछ लोगों का साथ भी मिला. चंपारण के एक गाँव रतनमाल ( बगहा) के कवि चंद्रशेखर मिश्र की एक कविता ‘पीयूष प्रवाह’ नामक मासिक में 1883 ई. में छपी थी जिसमें कवि अपील करता है कि,
“गद्य की भाषा विशुद्ध विराजित पद्य की भाषा वही मथुरा की,
आधी रहे मुरगी की छटा फिर आधी बटेर की राजै छटा की.
ऐसी कड़ी द्विविधा में पड़ी-पड़ी यों बिगड़ी कविता छवि बाँकी-
हिन्दी विशुद्ध में गद्य सुपद्य कै उन्नति कीजिए यों कविता की.”
खत्री जी गद्य और पद्य के लिए अलग- अलग भाषा के पक्ष में नहीं थे. उन्होंने ‘खड़ी बोली का पद्य’ नामक पुस्तक को दो खण्डों में प्रकाशित कराया और उसे काव्य- प्रेमियों के बीच मुफ्त में बँटवाया. इस पुस्तक का पहला भाग 1888 ई. में डब्ल्यू.एच.एलेन एंड को. लंदन से प्रकाशित हुआ था. इसका उन्होंने संपादन किया है और लंबी भूमिका लिखी है. इसमें खड़ी बोली में लिखी गई कविताएं संकलित हैं. इसके दो साल बाद इसका दूसरा खण्ड भी छपा. इस खंड में खड़ी बोली पद्य से संबंधित साहित्यिक वाद-विवाद संकलित हैं. भारत से बाहर इस काल-खण्ड में हिन्दी की किसी किताब का प्रकाशन एक असाधारण घटना थी. इस अकेली किताब की वजह से कविता की भाषा का यह मसला साहित्य जगत में व्यापक वाद- विवाद का विषय बन गया और तबतक चलता रहा जबतक कविता की भाषा के रूप में खड़ी बोली प्रतिष्ठित नहीं हो गई.
खत्री जी द्वारा पद्य के लिए खड़ी बोली हिन्दी के प्रस्ताव का विरोध उन दिनों प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, राधाचरण गोस्वामी आदि भातेन्दु-मण्डल के लगभग सभी सदस्य कर रहे थे. भट्ट जी का कहना था कि हम अपनी पद्यमयी सरस्वती को किसी दूसरे ढंग पर उतारकर मैली और कलुषित नहीं करना चाहते. पद्य या कविता उसी का नाम है जिस मार्ग पर भूषण, मतिराम, पद्माकर तथा सूर, तुलसी, बिहारी प्रभृति महोदय गण चल चुके हैं.
दरअसल, भारतेन्दु खुद ‘रसा’ नाम से उर्दू में कविता करते थे किन्तु खड़ी बोली हिन्दी में कविता करने के पक्षधर वे नहीं थे. राधाचरण गोस्वामी को एक आपत्ति यह भी थी कि खड़ी बोली हिन्दी में कविता लिखने पर भाषा यानी जनभाषा के प्रसिद्ध छन्द छोड़कर उर्दू के बैत, शेर, गजल आदि का अनुकरण करना पड़ता है. उनका मानना था कि चन्द से हरिश्चन्द्र तक सारी कविता ब्रजभाषा में हुई है और सब पंडितों ने संस्कृत के अनन्तर ‘भाषा’ शब्द से इसी का व्यवहार किया. हमारी कविता की भाषा अभी मरी नहीं है तब फिर इसमें क्यों न कविता की जाए ? गोस्वामी जी का मानना था कि संस्कृत नाटकों में साहित्य के लालित्य के लिए संस्कृत, प्राकृत, पैशाची आदि कई भाषाएं व्यवहार की गयी हैं तो यदि हम हिन्दी साहित्य में दो भाषा व्यवहार करें तो हर्ज क्या है ?
भारतेन्दु के मत के विरुद्ध भला भारतेन्दु मंडल के लेखक कैसे जा सकते थे ? यह खत्री जी के प्रभाव का ही फल था कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में बिहार का हिन्दी आन्दोलन उर्दू और हिन्दी को साथ लेकर चल रहा था जबकि तत्कालीन पश्चिमोत्तर प्रान्त का हिन्दी आन्दोलन उर्दू और मुसलमानों का प्रखर विरोध कर रहा था. ऐसे दुर्दिन में अयोध्या प्रसाद खत्री ने हिन्दी और उर्दू की एकता का पक्ष लेकर हिन्दी के जातीय चरित्र को बचाए रखने का ऐतिहासिक कार्य किया. भारतेन्दु मंडल के सदस्यों की इस भाषा- नीति का प्रतिवाद करते हुए अयोध्या प्रसाद खत्री ने “एक अगरवाले के मत पर खत्री जी की समालोचना“ शीर्षक पैम्फ्लेट छपवाकर बँटवाया जिसमें उन्होंने लिखा, “बाबू भारतेन्दु हरिश्चंद्र ईश्वर नहीं थे. उनको शब्दों का ( फिलोलॉजी) कुछ भी बोध नहीं था. यदि फिलोलॉजी का ज्ञान होता तो खड़ी बोली पद्य में रचना नहीं हो सकती है, ऐसा नहीं कहते.” ( उद्धृत, अयोध्याप्रसाद खत्री और कविता की भाषा शीर्षक राजीव रंजन गिरि का लेख, समालोचन, 13 अप्रैल 2017)
जिस दौर में भारतेन्दु मंडल के सदस्यों की तूती बोलती थी, पैम्फ्लेट छपवाना और उसमें ऐसी टिप्पणी करना सामान्य साहस की बात नहीं है. उस दौर में जब खड़ी बोली और ब्रजभाषा के विवाद के साथ ही उर्दू और हिन्दी का विवाद भी चरम पर था. हिन्दी को हिन्दुओं की भाषा बताने वाले और इसीलिए हिन्दी में से अरबी—फारसी के शब्दों को चुन- चुन कर बाहर करने वालों की जमात बढ़ती जा रही थी, अयोध्या प्रसाद खत्री ने उर्दू और हिन्दी को साथ लेकर चलने का पक्ष ही नहीं लिया अपितु उसका नेतृत्व भी किया. उन्होंने भाषा को धर्म के आधार पर बाँटने का कड़ा विरोध किया.
खत्री जी ने ‘खड़ी बोली का पद्य’ के पहले भाग में जो भूमिका लिखी है उसमें उन्होंने खड़ी बोली को पाँच भागों में बाँटा है.- टेठ हिन्दी, पंडित जी की हिन्दी, मुंशी जी की हिन्दी, मौलवी साहब की हिन्दी और यूरेशियन हिन्दी. उन्होंने मुंशी जी की हिन्दी को आदर्श हिन्दी माना है जिसमें कठिन संस्कृतनिष्ठ शब्द न हों तथा अरबी- फारसी के भी कठिन शब्द न हों. इसमें किसी भी भाषा के आम फहम शब्दों से परहेज नहीं था.
सर जार्ज ग्रियर्सन ने भी उस समय खड़ी बोली में पद्य लिखे जाने का विरोध किया था. अयोध्या प्रसाद खत्री ने अपनी ‘खड़ी बोली का पद्य’ शीर्षक पुस्तक ग्रियर्सन को अवलोकनार्थ भेजी थी. उस पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए ग्रियर्सन ने खत्री जी को लिखा था कि, “आप की ‘खड़ी बोली का पद्य’ पुस्तक की प्रति मिली. इसका प्रकाशन बहुत सुन्दर हुआ है. लेकिन मुझे खेद है कि मैं आप के निष्कर्ष से सहमत नहीं हो सकता. मेरे मत से यह अत्यंत खेद का विषय है कि खड़ी बोली का आन्दोलन ऐसे असंभव कार्य पर इतना श्रम और धन व्यय किया जा रहा है.” ( उद्धृत, भाषाई अस्मिता और हिन्दी, रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव, पृष्ठ-162) खड़ी बोली के प्रति ग्रियर्सन की इस इतिहास-विरोधी दृष्टि का ही परिणाम था कि उन्होंने अपने इतिहास ग्रंथ में उर्दू शैली के साहित्य को स्थान नहीं दिया.
दुखद पक्ष यह है कि ग्रियर्सन के अनुयायियों की एक बड़ी संख्या पैदा हो गई थी. परवर्ती भाषा वैज्ञानिकों में से अधिकाँश ने ग्रियर्सन की भाषा- नीति को यथावत मान लिया. इसी तरह परवर्ती साहित्येतिहासकारों ने भी ग्रियर्सन का अंधानुकरण किया. आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसे महान आचार्य ने भी गार्सां द तासी की ‘हिन्दुस्तानी’ से किनारा कर लिया जबकि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ग्रियर्सन की भाषा नीति का विरोध करते हुए अपनी पैनी दृष्टि का परिचय दिया था.
आचार्य द्विवेदी लिखते हैं, “इस देश की सरकार के द्वारा नियत किए गए डॉक्टर ग्रियर्सन ने यहाँ की भाषाओं की नाप- जोख करके संयुक्त प्रान्त की भाषा को चार भागों में बाँट दिया है- माध्यमिक पहाड़ी, पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी, बिहारी. आप का यह बाँट-चूँट वैज्ञानिक कहा जाता है और इसी के अनुसार आप की लिखी हुई भाषा विषयक रिपोर्ट में बड़े- बड़े व्याख्यानों, विवरणों और विवेचनों के अनंतर इन चारों भागों के भेद समझाए गए हैं. पर भेद के इतने बड़े भक्त डॉक्टर ग्रियर्सन ने भी प्रान्त में हिन्दुस्तानी नाम की एक भी भाषा को प्रधानता नहीं दी.” ( उद्धृत, महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण, पृष्ठ- 235) रामविलास शर्मा ने भी ग्रियर्सन संबंधी आचार्य द्विवेदी के विचारों से अपनी सहमति व्यक्त की है.
निस्संदेह, हिन्दी –उर्दू की खाई को चौड़ी करने में ऐतिहासिक कारणों का जब भी आकलन किया जाएगा, इस प्रकरण का भी जिक्र होगा.
बीरभारत तलवार ने लिखा है, “बिहार के अयोध्या प्रसाद खत्री ने ब्रजभाषा के बजाय खड़ी बोली उर्दू को, खड़ी बोली हिन्दी के ज्यादा करीब बतलाते हुए उर्दू मिश्रित आसान हिन्दी में कविता लिखने की माँग की तो भारतेन्दु समर्थकों ने उनका विरोध किया और मजाक उड़ाया. हिन्दी पत्रकारिता और साहित्य में जब भारतेन्दु की तूती बोलती थी, देवकीनंदन और अयोध्याप्रसाद, यही दो लेखक थे, जिन्होंने भारतेन्दु की संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का खुलकर विरोध करने का साहस किया था.” ( रस्साकसी : उन्नीसवीं सदी का नवजागरण और पश्चिमोत्तर प्रान्त, पृष्ठ-77)
खत्री जी ने ‘हिन्दी व्याकरण’ नाम से खड़ी बोली का व्याकरण लिखा है. इसमें उन्होंने स्थापित किया है कि हिन्दी और उर्दू में महज लिपि का फर्क है. यदि उर्दू को फारसी लिपि में न लिखी जाय तब वह हिन्दी ही है. उन्होंने छंदशास्त्र पर एक अन्य पुस्तक ‘मौलवी स्टाइल का छंदभेद’ लिखी है. इस पुस्तक में उन्होंने पंडित स्टाइल की हिन्दी से मौलवी स्टाइल की हिन्दी को अच्छा बताया है. इसी तरह की उनकी एक और महत्वपूर्ण कृति है ‘खड़ी बोली का आन्दोलन’. इसका प्रकाशन 1888 ई. में हुआ था.
बिहार में उन दिनों कचहरियों में फारसी के अलावा कैथी लिपि का भी प्रचलन था. हाँ, देशी समाचार पत्र नागरी लिपि में प्रकाशित होते थे. इस तरह बिहार में नागरी और कैथी लिपियों की समानान्तर व्यवस्था थी. यह व्यवस्था व्यावहारिक नहीं थी. अयोध्या प्रसाद खत्री ने बिहार के न्यायालयों एवं कार्यालयों में देवनागरी लिपि को स्थाई रूप से प्रतिष्ठित करने के लिए सरकार को आवेदन-पत्र दिया था और बंगाल के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर सर जॉन वुडवर्ड ने उसपर सकारात्मक कदम भी उठाया था. ( बिहार बंधु, 1 जनवरी 1904, चिट्ठी-पत्री स्तंभ )
4 जनवरी 1905 को 48 वर्ष की उम्र में प्लेग से खत्री जी का निधन हो गया. खेद है, उन्हें बड़ी तेजी से भुला दिया गया. संप्रति उनके स्मारक के रूप में उनकी कर्मस्थली मुजफ्फरपुर ( बिहार) में उन्हीं के द्वारा ब्राह्मण टोली में बनवाया गया एक छोटा सा शिव मंदिर मौजूद है.
जुलाई 2007 में मुजफ्फरपुर में उनकी स्मृति में “अयोध्या प्रसाद खत्री जयंती समारोह समिति” की स्थापना हुई. यह समिति प्रतिवर्ष किसी विशिष्ट व्यक्ति को “अयोध्या प्रसाद खत्री स्मृति सम्मान” से सम्मानित करती है. अयोध्या प्रसाद खत्री के जीवन तथा कार्यों पर वीरेन नन्दा ने ‘खड़ी बोली के भगीरथ’ नाम से एक फिल्म भी बनाई है. इसके अलावा राम निरंजन परिमलेन्दु ने साहित्य अकादमी के लिए खत्री जी पर एक विनिबंध भी लिखा है.
अयोध्या प्रसाद खत्री की पुण्यतिथि पर हम खड़ी बोली की प्रतिष्ठा के लिए उनके द्वारा किए गए असाधारण योगदान का स्मरण करते है और उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं.
( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)
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