बून्दी शहर जयपुर से दक्षिण में लगभग 225 किमी की दूरी पर अवस्थित है। कोटा शहर से इसकी दूरी 36 किमी है। भौगोलिक दृष्टि से बून्दी, कोटा, बारां एवं झालावाड़ का भू-भाग हाड़ौती के नाम से जाना जाता है।यह क्षेत्र प्रागैतिहासिक काल से पर्वतों एवं सधन वनों से घिरा होने के कारण आदि मानव की गतिविधियोंं का केंद्र था। बून्दी जिले में अनेक स्थानों से मानव द्वारा आलेखन किए गए शैलचित्र खोजे जा चुके हैं। गरड़दा, हाथीडूब, छपरिया, डंडीमाया, खुर्द का नाला, धारवा, केवड़िया, नलदेह, कवरपुरा, पलकां आदि स्थानों से शैलचित्र खोजे जा चुके हैं। इन शैलचित्रों में मानव ने अपनी भावनाओं को मूर्तरूप में चित्रित किया है।
राजकीय संग्रहालय बूंदी का नवीन भवन सुखमहल परिसर में स्थित है। सुखमहल सिंचाई विभाग से वर्ष 2011 में पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग को प्राप्त हुआ था। विभाग द्वारा 2012-13 में भवन निर्माण का कार्य करवाया गया। वर्ष 2013-14 में शोकेस, पेडस्टल आदि का निर्माण कर इसमें प्रदर्शन संबंधी कार्य करवाये गये।यह भवन मुख्य बस स्टेण्ड से लगभग 2 कि.मी. एवं रेलवे स्टेशन से 4 कि.मी. की दूरी पर स्थित है।
विभाग के अन्य संग्रहालयों में संग्रहित एवं प्रदर्शित हाड़ौती क्षेत्र की पुरासामग्री को यहां स्थानांतरित किया गया है। इसके अतिरिक्त भेंटस्वरूप भी कुछ पुरासामग्री प्राप्त हुई है। संग्रहालय के संग्रह में 40 प्रस्तर प्रतिमाएं, 60 लघुचित्र, 104 अस्त्र-शस्त्र एवं 458 मुद्राएं हैं। मूर्तिशिल्प, लघुचित्र एवं अस्त्र-शस्त्रों को इस संग्रहालय की दीर्घाओं में संयोजित किया गया है। संग्रहालय के प्रतिमा खण्ड में 9वीं से 14वीं शताब्दी की प्रस्तर प्रतिमाएं प्रदर्शित की गई हैं। ये मूर्तियां, विलास, अटरू, केलवाड़ा, काकूनी, कमलेश्वर, इन्द्रगढ़, रामगढ़ और शाहबाद आदि स्थानों की हैं। ये प्रतिमाएं हाड़ौती क्षेत्र के मंदिर स्थापत्य के गौरवमयी इतिहास का स्मरण कराती है। और मूर्तिकला के विकास क्रम से भी परिचय कराती है।
दीर्घा के प्रारम्भ में विलास (बारां) से प्राप्त चतुर्हस्त गणेश की प्रतिमा प्रदर्शित की गई हैं। देवाकृति नृत्यरत है, दोनों तरफ क्रमशः सितार वादक एवं ढोल वादक वाद्य यंत्र बजाते हुए दिखलाये गए हैं। विष्णु के चौबीस स्वरूपों में हृषीकेश एवं दामोदर प्रतिमा को भी प्रदर्शित किया गया है। देवाकृतियों के हाथों में आयुध अंकन शास्त्रोक्त हैं। नन्दी आरूढ़ उमा-महेश्वर की प्रतिमा के दोनों तरफ क्रमशः कार्तिकेय एवं गणेश हैं। एक प्रतिमा में शिव द्वारा अंधकासुर वध का सुन्दर दृश्य उत्कीर्ण किया गया है। काकूनी से प्राप्त तपस्यारत पार्वती की विलक्षण प्रतिमा के दोनों ओर ऊपर-नीचे अग्रि कुण्डों का अंकन पार्वती की कठोर तपस्या को दर्शाता है। हरिहर और विष्णु प्रतिमा फलक में विष्णु को जटामुकुट पहने हुए दिखाया गया है।
विष्णु प्रतिमाओं में जटामुकुट का अंकन प्रायः देखने को नहीं मिलता है। रामगढ़ से प्राप्त चामुण्डा प्रतिमा में कृशकाय शरीर दर्शनीय है। प्रतिमा खण्ड में नाग-दम्पति, नरवराह की अदभुत कलाकृतियां प्रदर्शित हैं। नरवराह की मुखाकृति आकर्षक है। इस प्रतिमा फलक के दक्षिण पार्श्व में कन्दुक क्रीड़ारत सुन्दरी का अंकन है। विलास से अवाप्त गजासुर मूर्तिफलक में कृष्ण को गदा से कवलपापी गजासुर का संहार करते हुए दिखाया गया है। गजासुर संहार की स्वतंत्र प्रतिमाएं राजस्थान की मूर्तिकला में बहुत कम हैं। यहीं से प्राप्त अग्रि एवं अनल वसु फलक पर अनल वसु का अंकन राजस्थान मंदिर स्थापत्य में अनूठा है। दिक्पाल अग्रि का अंकन दृष्टव्य है। इसके वाम पार्श्व में स्थानक इन्द्र वाहन गज के साथ उत्कीर्ण हैं। एक अन्य समूर्त वास्तुखण्ड में पार्वती कल्प वृक्ष पर खड़ी चित्रित है, ऊपरी पट्टिका में सप्त मातृकाएं द्रष्टव्य हैं। परिकर एवं नीचले भाग में अंकन की बहुलता है। इसलिए यह प्रतिमा फलक शिल्पकला की दृष्टि से बेजोड़ है।
बटुक भैरव प्रतिमा में भैरव का रौद्र स्वरूप द्रष्टव्य है। प्रतिमा के निचले भाग में एक और शिवगण सुरापान करते हुए उत्कीर्ण हैं, जबकि दूसरी ओर वाहन श्वान सावधान मुद्रा में है। सप्त मातृका फलक पर वाहनों का अंकन कला का श्रेष्ठ नमूना है। द्वारपाल तथा द्वारपालिका प्रतिमा भी शिल्प की दृष्टि से उत्कृष्ट हैं। इस प्रतिमा खण्ड में जन-जीवन विषयक सुन्दरियों एवं युगल प्रतिमाओं को भी स्थान दिया गया है। प्रतिमा खण्ड के अन्तिम भाग में खटकड़ (इन्द्रगढ़) से प्रप्त शेषशायी विष्णु की अनुपम प्रतिमा प्रदर्शित की गई हैं। देवी दुर्गा की प्रतिमा में आयुध एवं आभूषणों का अंकन उल्लेखनीय है।
चित्रकला खण्ड के प्रारम्भ में बूंदी शैली के चित्र संयोजित किए गए हैं तथा अन्तिम भाग में कोटा शैली के चित्रों को स्थान दिया गया हैं। कुछ चित्र स्याह कलम के हैं। शिव-पार्वती लघुचित्र में देवताओं एवं श्रद्धालुओं का अनुपम चित्रण है। रंगचित्र के निम्न भाग में भक्तगणों का वाद्ययत्रों के साथ दिखाया गया है। कृष्ण लीला संबंधी लघुचित्रों में राधा-कृष्ण की विभिन्न भाव भंगिमाओं का आलेखन है। नायिकाभेद संबंधी कुछ लघुचित्र भी दीर्घा की शोभा बढ़ा रहे हैं। नायिकाएं प्रसून लिए एवं अंगड़ाई लेती हुई चित्रित है।
माघ मास के एक चित्र में एक भवन पर नायक-नायिका मद्यपान करते हुए चित्रित है जबकि इस भवन के नीचे एक सेविका मद्यपात्र ले जाती हुई दिखलाई गई है। इसके निकट एक देव कक्ष के सम्मुख उपासक दम्पति पूजा सामग्री के साथ चित्रित किए गए हैं। ऊपरी पृष्ठभूमि में आकाश का दृश्य मनोरम है, जबकि नीचे एक जलाशय के पास बतखों का सुन्दर चित्रण है। मंदिरापान करती हुई राजमहिषी का चित्र भी अनुपम है। पृष्ठभाग में कमल बाग दिखलाई पड़ता है। दीर्घा में राजपुरूषों को हुक्कापान करते हुए और युद्ध के अस्त्रो-शस्त्रों से सुसज्जित दिखलाया गया है। इस शैली के चितेरे भावों को अभिव्यक्त करने में सिद्धहस्त थे।
कोटा शैली के राधा-कृष्ण के लघुचित्रों में राधा-कृष्ण को आमोद-प्रमोद करते हुए चित्रित किया गया है। इन लघुचित्रों की पृष्ठभूमि में यहां के प्राकृतिक परिवेश का यथार्थ चित्रण है। शिकार के एक लघुचित्र में अश्वारोही जंगल में एक सूअर का भाले से शिकार कर रहा है। तीन श्वान भी उस पर आक्रमण कर रहे हैं। सामने एक अन्य अश्वारोही सूअर पर बाण चला रहा है। चित्रकार द्वारा गतिशीलता का सजीव चित्रण किया गया है।
अस्त्र-शस्त्र दीर्घा के प्रारम्भिक शोकेस में हस्तकुठार, कोर एवं क्लीवर नामक औजार प्रदर्शित किए गए हैं। इसके अतिरिक्त बाण के अग्र भाग पर लगाए जाने वाले त्रि भुजाकार और अर्द्धचन्द्राकार लघु खंड भी प्रदर्शित किए गए हैं। नमाना (बून्दी) पुरास्थल से अवाप्त ताम्र कुल्हाड़ी एवं छैनी भी प्रदर्शित की गई है। ये औजार तत्कालीन मानव की धातु तकनीकी के प्रगति का संकेत देती हैं। दीर्घा में मध्यकाल एवं रियासतकालीन हथियारों को विषयवार स्थान दिया गया है। मध्यकाल में तीरों का प्रचलन इसकी प्रासंगिकता को इंगित करता है। इस दीर्घा में विभिन्न आकार-प्रकार की तलवारों को प्रदर्शित किया गया है। बन्दूक जम्बूरा इस दीर्घा के आकर्षण का केन्द्र हैं। छुरियां, ढालों के साथ प्रदर्शित की गई हैं। तोड़ेदार, पत्थरकला एवं टोपीदार, बन्दूकों को विकास क्रम से प्रदर्शित किया गया है। प्रारम्भिक बन्दूकों के साथ बारूददानी भी प्रदर्शित है। दीर्घा के अन्तिम भाग में भाले व बरछे प्रदर्शित किये गये हैं।
संग्रहालय के संग्रह में संग्रहीत मुद्राओं में बूंदी के रियासतकालीन सिक्के उल्लेखनीय हैं। बून्दी के रियासतकालीन कुछ सिक्कों पर कटार का अंकन राजचिन्ह के रूप में किया गया है। वस्तुतः इस संग्रहालय में हाड़ौती की कला, संस्कृति के वैभव को पुरासामग्री के माध्यम से संयोजित किया गया है। संग्रहालय सप्ताह के सभी दिन प्रातः 9.45 बजे से सांय 5.15 बजे तक दर्शकों के अवलोकन के लिए खुला रहता है।
(लेखक राजस्थान के मान्यता प्राप्त पत्रकार हैं व राजस्थान जनसंपर्क लविभाग के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं)