शासक राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना के लिए बाध्यकारी शक्ति से युक्त हो,अर्थात शासक के पास उत्पीड़क शक्ति पाई जाती है। देश (राज्य )की सर्वोच्च विधि संविधान होता है, संविधान भू – भाग /क्षेत्र की सर्वोच्च विधि होती है ।आदर्श रूप में कहे तो संविधान ईश्वर की शुभ यात्रा है; क्योंकि सभी शक्तियों का स्रोत संविधान ही है ।शक्तियों की टकरा हट के दृष्टिकोण से भी कहा जा सकता है कि हमारे देश (राज्य में सर्वोच्चता का प्रलेख एकमात्र संविधान है ,अर्थात सरकार की शक्ति का स्रोत संविधान है। सरकार को मौलिक रूप से विधायिका ( विधि- निर्माण करने वाली संस्था), कार्यपालिका( विधियों को लागू करने वाली संस्था) एवं न्यायपालिका (विधियों को उचित की कसौटी पर व्याख्या करने वाली संस्था)। संवैधानिक भाषा में कहें तो संविधान राज्य की सर्वोच्च विधि है।
राज्य =जनसंख्या +भू – भाग/क्षेत्र+निर्वाचित सरकार/कानूनी सरकार/वैधता प्राप्त सरकार +संप्रभुता/सर्वोच्च सत्ता + जनता की सहमति;अर्थात राज्य में ही संप्रभुता का वास होता है ,इसलिए संप्रभुता को राज्य की आत्मा कहते हैं ।समकालीन तथ्यों ,साहित्य एवं गणमान्य व्यक्तियों के आत्मीय संवाद से आत्मा के संप्रत्यय को समझने का प्रयास किया जा रहा है ,जो अब मृतप्राय होता जा रहा है ;क्योंकि अपना आत्मीय आभार /नैतिक आभार इन व्यक्तियों के द्वारा दिन- प्रतिदिन खोते/पत्तन हो रहे हैं।
भारत का संविधान भारतीयों का आत्मा है, भारत के संविधान के अंतर्गत संवैधानिक पदाधिकारियों के अधिकारों व शक्तियों का उल्लेख है एवं नागरिकों तथा व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों का उल्लेख है जिसके द्वारा वह अपने व्यक्तित्व का चतुर्दिक विकास करते हैं ।संविधान अपने नागरिकों को भयमुक्त वातावरण(सुरक्षा,संरक्षा एवं समाज के दबंग व्यक्तियों से सुरक्षा) प्रदान करते हैं, इसलिए संविधान के तीसरी अनुसूची में संविधान/ ईश्वर की शपथ ली जाती है। हमारे देश (राज्य) का शासन संविधान के अनुसार एवं जनता के भावनात्मक विवेक से संचालित होता है। प्रस्तावना, जो संविधान का पथ – प्रदर्शक है, सर्वोच्चता कि शक्ति जनता को प्रदान किया है। विधायिका कार्यपालिका एवं न्यायपालिका का मौलिक पहचान जन भावनाओं के अनुरूप शासन हैं। दूसरे शब्दों में कहें कि शासक और शासित के बीच विश्वास, सेवा और समर्पण होना अति आवश्यक है।
सरकार = विधायिका + कार्यपालिका + न्यायपालिका
नागरिकों व व्यक्तियों की स्वतंत्रता सरकार के अंगों के परस्पर पार्थक्य/पृथ्करण पर आधारित है। जिस व्यवस्था में पार्थक्य / पृथक्करण की प्रतिशतता अधिक होगी ,नागरिकों एवं व्यक्तियों को सुख की साधना उतनी ज्यादा होगी।सरकार के अंगों में जितनी टकराहट होगी ,नागरिकों की स्वतंत्रता उतनी सिकुड़ती जाएगी। राजनीतिक व्यवस्था में स्वतंत्रता का सिकुड़न क्रांति की पदयात्रा होती है ।लोकतंत्र में सर्वाधिक ताकतवर है, जनता है एवं पथ- प्रदर्शक कोई है वह संविधान है। व्यक्तित्व के विकास में व्यक्ति की स्वतंत्रता की आधारभूत होती है, इसकी समाप्ति मानव को कुंठित करती है। लोकतंत्र में यह माना जाता है कि राजनीतिक तंत्र को एक उच्चतर विधि/ संवैधानिक विधि के अधीन रखा जाता है; राजनीतिक व्यवस्था को नियंत्रण और दुरुपयोग से बचाने के लिए एक उचित व्यवस्था होती है जिसको “संविधान ” कहा जाता है।
( लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)