युगदृष्टा भगत सिंह और उनके मृत्युंजय पुरखे -एक कालजयी पुस्तक है। इसकी लेखिका श्रीमती वीरेंद्र सिंधु जी, भगत सिंह के भाई कुलतार सिंह जी की बेटी थी। उनका जन्म सन 1939 में हुआ था । उनका विवाह सन 1968 में नरेश भारतीय से हुआ था। विवाह के पश्चात वे लंदन चली गई। पर भारत आती रहती थी। 22 फरवरी सन 2023 को 83 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गई।
बंगा गांव के जिस प्राइमरी स्कूल में भगत सिंह ने शिक्षा प्राप्त की थी , उसी स्कूल में वे भी पढीं थीं। जब वे स्कूल जाती तो किशन सिंह जी (भगतसिंह के पिता) खाना लेकर के आते और स्कूल के मैदान में पेड़ के नीचे खड़े हो जाते। खाने की छुट्टी होती तो वे दौड़ती हुई उनके पास आती। किशनसिंह जी बैठकर उन्हें खाना खिलाते और बातें भी करते जाते ।
“युगदृष्टा भगत सिंह और उनके मृत्युंजय पुरखे” पुस्तक में वीरेंद्र सिंधु ने भगत सिंह के दादाजी श्री अर्जुन सिंह जी, पिता किशन सिंह जी, चाचा अजीत सिंह जी व स्वर्ण सिंह जी तथा भगत सिंह की माता श्रीमती विद्यावती जी का वर्णन करते हुए महर्षि दयानंद जी और आर्य समाज के प्रभाव के बारे में अत्यंत विस्तार से लिखा है।
ऋषि दयानंद के आत्म तेज की बलिहारी
पुस्तक की भूमिका में सन 1857 की क्रांति की असफलता के बाद भारतीयों की हताश मनोदशा का विश्लेषण करते हुए वे लिखती हैं –
ऋषि दयानंद के आत्मतेज की बलिहारी कि उन्होंने नई पृष्ठभूमि की खोज की और अतीत गौरव की उपजाऊ भूमि में स्वाभिमान और स्वदेशाभिमान के वृक्ष रोपे। शीघ्र ही उन पर जागरण और उद्बोधन के पुष्प महके और देश विचार क्रांति से उद्बुद्ध हो उठा । —
भारत की महानता सचमुच अजेय है। उसने अंधकार के युग में एक अद्भुत ओजस्वी महापुरुष को जन्म दिया- वे थे ऋषि दयानंद। उन्होंने निराशा की उस अंधियारी रात में आशा का उद्बोधन भी दिया । ऋषि दयानंद ने देश को पुकारा- अतीत के गौरव के नाम पर।”
सरदार अर्जुन सिंह जी का सांस्कृतिक पुनर्जन्म
वीरेन्द्र सिन्धु के शब्दों में “सरदार अर्जुन सिंह ने ऋषि दयानंद के दर्शन किए तो मुग्ध हो गए और उनका भाषण सुना तो नवजागरण की सामाजिक सेना में भर्ती होकर आर्य समाजी बन गए।वह उन थोड़े से लोगों में थे जिन्हें स्वयं ऋषि दयानंद ने दीक्षा दी थी। यज्ञोपवीत अपने हाथ से पहनाया था ,मांस खाना उन्होंने छोड़ दिया । शराब की बोतल नाली में फेंक दी । हवन कुंड उनका साथी हो गया और संध्या प्रार्थना सहचरी।”
धर्म क्रांति और स्वाभिमान अर्थात आर्य समाज
वीरेन्द्र सिन्धु के शब्दों में “रथ क्रांति का था पर उसकी धुरी धर्म की थी । धर्म अपनी लंबी यात्रा में थक कर गतिहीन हो गया था पर उसके पास प्रभाव की पूंजी थी । यह पूंजी उसने क्रांति को भेंट कर दी। क्रांति भी न ठग थी , न तो कृतघ्न । उसने धर्म को गति दे उद्बोधन पताका सौंप दी। दोनों एक दूसरे का सहारा दे, प्रगति के पथ पर बढ़ चले । इस धर्म क्रांति का नाम था- आर्य समाज।”
निकृष्ट राजनीति का उदाहरण
वीरेन्द्र सिन्धु लिखती हैं -“मैंने 1947 में बंटवारे के दुख जिले हैं इसलिए मैं बंटवारे में विश्वास नहीं करती इतिहास को भी उसके संपूर्ण रूप में ही देखती हूं।
स्वतंत्र भारत के जीवन का यह एक बहुत कड़वा सत्य है कि हमने अपने इतिहास के साथ गद्दारी की है, अपने शहीदों के साथ गद्दारी की है।”
“23 मार्च 1968 का सवेरा । फिरोजपुर से 7 मील दूर सतलुज नदी के किनारे हुसैनीवाला में शहीदों की नई बनी समाधि के उद्घाटन था । मन में एक विचार से सुईयां सी चुभने लगीं। हम भगत सिंह जिंदाबाद गुंजाते हैं । उनके चित्र को फूलों से सजाते हैं, पर उनके उद्देश्य नई समाज व्यवस्था की स्थापना को जीवन में नहीं उतारते। मैं सोचते-सोचते दुख में डूब गई जो कौम , जो राष्ट्र अपने शहीदों को तमाशा बनाकर खुशी मनाए, क्या वह कौम या राष्ट्र कभी महान बन सकता है?–
— पुराने पुल के किलानुमा ऊंचे द्वार के दूसरी तरफ एक और जलसा इसी समय हो रहा था। यह भी भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए ही किया गया था । जिस जलसे में हम बैठे थे, वह देश के एक राजनीतिक दल द्वारा आयोजित था, तो दूसरा जलसा इसी देश के दूसरे राजनीतिक दल द्वारा आयोजित था । दूसरे जलसे के कुछ लोग माताजी को लेने के लिए आए तो मैं सोचने लगी कि यह कैसा तमाशा है कि हम अपने शहीदों को एक साथ ही स्थान पर श्रद्धांजलि नहीं दे सकते ? हमने देश को बांटा है , प्रांतों को बांटा है, जातियों धर्मों को बांटा है , पर क्या अब हम अपने शहीदों को भी बांटने पर उतारू हो गए हैं !”
एक दिन यह बंटवारा टूटेगा
वीरेन्द्र सिन्धु लिखती हैं ” सामने ही है लाहौर जाने वाली सड़क। यह सोचकर मेरे कलेजे में सुईयां सी चुभने लगीं कि इन शहीदों ने जिस लाहौर में हथकड़ियां बेड़ियां पहनीं, भूख हड़ताल की, मुकदमे लड़े, सोए देश को जगाया और धरती को अपनी शहादत के खून से सींचा, वह लाहौर हमारे लिए गैर है और वे शहीद उस लाहौर के लिए गैर हो गए हैं। तब इस विचार ने मुझे सांत्वना दी कि हमारे शहीद सीमा पर आ बैठे हैं। एक दिन आएगा जब यह बंटवारा टूटेगा, कटे देश के दोनों टुकड़े आपस में मिलेंगे और उस दिन इस समाधि पर जो कुछ फूल चढ़ाए जाएंगे, उनमें दिल्ली के फूल भी होंगे और रावलपिंडी के फूल भी । जिस दिन यह शहीद लाहौर में प्रवेश करेंगे तो वहां की माताएं भी कह उठेंगीं कि हमारा भगत सिंह फिर लाहौर में आ गया है। मैं इस भावना से अभिभूत हो ,कल्पना की आंखों से लाहौर की सेंट्रल जेल के सामने खड़े इन शहीदों के सुंदर स्टेचू देखने लगी।–
–शहीदों का पुण्य वह दिन हमें दिखाए।”
लेखिका -वीरेन्द्र सिंधु
संदर्भ: युगदृष्टा भगत सिंह और उनके मृत्युंजय पुरखे, संस्करण 1997,राजपाल एंड संस दिल्ली
प्रस्तुति धर्मेन्द्र जिज्ञासु
@dkjigyasu26
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