Saturday, April 27, 2024
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लोकनायक श्रीराम -भाग छ:

मै अभिभूत हूं, आप सब की प्रतिक्रियाओं से। प्रतिसाद से, उत्साह से…

‘लोकनायक श्रीराम’ श्रृंखला को आप जो प्रतिसाद दे रहे हैं, वह अद्भुत हैं। हिंदी, मराठी, गुजराती और बांग्ला भाषा में, प्रतिदिन इस श्रृंखला के लेख सोशल मीडिया मे आ रहे हैं। ‘दैनिक स्वदेश’, इसे अपने सभी संस्करणों मे (ग्वालियर, लखनऊ, आग्रा, झांसी, सतना.. आदि) इसे प्रतिदिन प्रकाशित कर रहा हैं। हिंदी, मराठी, गुजराती के कुछ और समाचार पत्र भी इसे प्रकाशित कर रहे हैं। चारों भाषाओं के अनेक वेब पोर्टल्स इसे अपने पाठकों तक पहुंचा रहे हैं।

इसे भी पढ़ें – लोकनायक श्रीराम – भाग पांच

‘रंगीला रेडिओ’, इस इंटरनेट रेडिओ पर प्रतिदिन प्रातः ८ बजे और रात्री ८ बजे इसका नियमित प्रसारण हो रहा हैं, जिसे यूरोप, अमरिका, खाडी के देश, सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया आदि देशों मे रहने वाले हजारों भारतीय सुन रहे हैं..!

कुल मिलाकर, प्रतिदिन कुछ लाख लोग, ‘लोकनायक श्रीराम’ इस श्रृंखला के आलेखों को पढ़ रहे हैं और सुन रहे हैं…

यह सभी अर्थों मे अभूतपूर्व हैं..!

इसमे मेरा कुछ भी नही हैं। मैं तो वाल्मिकी रामायण के आधार से, राम कथा बता रहा हूं। मेरा मानना हैं कि श्रीराम के जीवनदर्शन का सबसे अधिकृत ग्रंथ, वाल्मिकी रामायण ही हैं। इसलिये, अनेक प्रसंगों के श्लोक मैं उधृत कर रहा हूं।

श्रीराम के जीवन का महत्वपूर्ण ध्येय हैं, आर्यावर्त को अपने नियंत्रण मे लिये हुए असुरी शक्तियों का निर्दालन करना। इन दानवी शक्तियों का केंद्र हैं, रावण। वाल्मिकी रामायण मे बालकांड के पंद्रहवें सर्ग से ही रावण का उल्लेख आता हैं। किंतू इस रावण के रुप मे, संपूर्ण दानवी शक्तियों को समाप्त करने के लिये, श्रीराम ने योजना की है, सामान्य नागरिकों की। और यही रामायण की विशेषता हैष

वन मे रहने वाले नरों को (वानरों को), अर्थात वनवासी बंधुओं को श्रीराम ने संगठित किया हैं। उनको प्रशिक्षित किया हैं। उनमे आत्मविश्वास जगाया हैं। श्रीराम के रुप मे उनमे देवत्व का संचार किया है।

*सामान्य लोगों की संगठित शक्ती ने ठाना, तो वह महाबलाढ्य ऐसी दानवी शक्ति को भी परास्त कर सकती हैं, यह श्रीराम ने रावण का निर्दलन कर के सिध्द किया है…

हजारों वर्षों के बाद, श्रीराम से प्रेरणा लेकर, ऐसाही उदाहरण हम सोमवार, २२ जनवरी को देखने जा रहे हैं भारतवर्ष की सर्वसामान्य जनता की संगठित शक्ति के जबरदस्त संघर्ष से ही यह संभव होने जा रहा है…

इस मंगल प्रसंग पर, रामायण का यह दृष्टिकोण सामने लाने के लिये मैने यह छोटा सा प्रयास किया है)

श्रीराम, जानकी और लक्ष्मण रथ में बैठकर वनवास के लिए निकले हैं। मंत्री सुमंत्र, उनके रथ के सारथी है। सारी अयोध्या नगरी श्रीराम के वियोग से व्याकुल है। शोकमग्न है। अयोध्यापुरी के सभी आबालवृद्ध पौरजन, श्रीराम के रथ के साथ शोकाकुल अवस्था में चल रहे हैं। वे सभी, मंत्री सुमंत्र को आग्रह कर रहे हैं कि रथ को रोको…

किंतु रथ चलता ही जा रहा है।

आखिरकार, श्रीराम का रथ, लोगों की नजरों से ओझल हुआ। श्रीराम के नगर से निकलते समय, अवधपुरी वासी पौर जनों के नेत्रों से गिरे हुए आंसुओं द्वारा भीग कर, अवधपुरी की उड़ती हुई धूल, धीरे-धीरे शांत हो रही है।

निर्गच्छति महाबाहौ रामे पौरजनाश्रुभिः।
पतितैरभ्यवहितं प्रशशाम महीरजः ॥३३॥
(अयोध्या कांड / चालीसवां सर्ग)

वायु गति से दौड़ने वाला रथ, तमसा नदी के तट पर आकर रुका। सुमंत्र ने थके हुए घोडों को पानी पिलाया, नहलाया। तमसा के रमणीय तट का आश्रय देखकर श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा कि, ‘यह उनके वनवास का पहला दिन है। अतः वे मात्र तमसा का जल पीकर ही निद्रा लेंगे। सीता के लिए तथा स्वतः के लिए, लक्ष्मण, कंद – फलों का आधार ले सकते हैंʼ। श्रीराम ने उस रात एक वृक्ष के नीचे विश्राम किया।

इसी बीच, श्रीराम के आने का समाचार पाकर, कोशल जनपद के नागरिक वहां एकत्र होने लगे। श्रीराम ने बड़े ही विनम्रतापूर्वक उन्हें अपने-अपने गांव में लौट जाने का आग्रह किया।

श्रीराम, जानकी और लक्ष्मण वहां से निकल पड़े। उन्होंने अब कोशल जनपद को छोड़ दिया है। वेदश्रुति नामक नदी को पार कर के वें दक्षिण दिशा की ओर बढ़ रहे हैं। उन्होंने समुद्र गामिनी गोमती को और पश्चात स्यंदिका नदी को पार किया।

चलते-चलते वें गंगा के तट पर, श्रृंगवेरपुर में पहुंचे। वहां निषादराज गुह राज्य कर रहे हैं। श्रीराम के मित्र है। श्रीराम को गुह से मिलकर अत्यधिक आनंद हुआ। उन्होंने गुह का आलिंगन किया। गुह के आग्रह पर उन्होंने गंगा तट पर एक आश्रम में रात्रि विश्राम किया।

अगले दिन प्रातः श्रीराम ने, निषादराज गुह से नौका मंगवाने के लिए कहा। अब यहां से अगला प्रवास, रघुकुल के वंशजों का ही रहने वाला है। अतः श्रीराम ने मंत्री सुमंत्र को वापस अयोध्या नगरी जाने के लिए कहा।

सुमंत्र अत्यधिक व्याकुल थे। श्रीराम का वियोग सहने की स्थिति में नहीं थे। किंतु श्रीराम ने उन्हें समझाया। भरत के राज्याभिषेक की पूर्ण व्यवस्था करने को कहा। भरत के राजकाज में पूरा सहयोग देने के लिए प्रेरित किया। सुमंत्र को उन्होंने कहा, “महाराजा दशरथ, माता कैकेयी का प्रिय करने की इच्छा से, आपको जो कुछ, जैसी भी आज्ञा दे, उसका आप आदर पूर्वक पालन करें। यही मेरा अनुरोध है।”

यद्यदाज्ञापयेत्किञ्चित्स महात्मा महीपतिः।
कैकेय्याः प्रियकामार्थं कार्यं तदविकाङ्क्षया ॥२४॥
(अयोध्या कांड / बावनवां सर्ग)

सुमंत्र को रवाना कर के, श्रीराम, जानकी और लक्ष्मण के साथ उस नाव में बैठे। श्रीराम ने निषादराज गुह को भी जाने की आज्ञा दी और मल्लाहों को नाव चलाने का आदेश दिया।

माता सीता ने नाव में बैठकर गंगा माता की प्रार्थना की। “हे निष्पाप गंगे, यह शक्तिशाली, पाप रहित, मेरे पतिदेव, मेरे तथा अपने भाई के साथ वनवास से लौट कर पुनः अयोध्या नगरी में प्रवेश करें।”

पुनरेव महाबाहुर्मया भ्रात्रा च सङ्गतः।
अयोध्यां वनवासात्तु प्रविशत्वनघोऽनघे ॥९१॥
(अयोध्या कांड / बावनवां सर्ग)

गंगा को पार करते समय श्री राम का विचार चक्र चल रहा है। मुनीश्रेष्ठ महर्षि विश्वामित्र ने दिये हुऎ आदेश का पुनः पुनः स्मरण हो उठता है – इस आर्यावर्त को निष्कंटक करना है। असुरी शक्ति के प्रभाव से मुक्त करना है।

गंगा नदी के दक्षिण तट पर आकर श्रीराम, जानकी और लक्ष्मण का वनवास सही अर्थों में प्रारंभ हो रहा है। श्रीराम के मन में विचार आ रहा है, ‘यह चौदह वर्षों का वनवास मेरे लिए अवसर है, दानवी शक्तियों के आतंक से आर्यावर्त को मुक्त करने का। और वह भी आर्यावर्त के सामान्य नागरीकों के द्वारा..!’

उधर अयोध्या नगरी में…

श्रीराम, जानकी और लक्ष्मण के प्रस्थान करने के पश्चात, मानो अयोध्या नगरी मृतवत हो गई है। कहीं कोई उत्साह नहीं। कोई आनंद नहीं। कोई गीत-संगीत नहीं। सभी पौरजनों का जीवन, जड़वत और मंत्रवत चल रहा है।

राजप्रासाद में तो शोक लहर छाई हुई है। राजा दशरथ, अपने आपको दोषी मानकर आक्रोश कर रहे हैं, तो माता कौसल्या और सुमित्रा, राम – लक्ष्मण और जानकी के वियोग में सतत् विलाप कर रही है।

सुमंत्र जब लौटकर श्रीराम का संदेश सभी को सुनाते हैं, तो सभी का आर्तनाद बढ़ उठता है।

राजा दशरथ के शोक की कोई सीमा नहीं है। वे माता कौसल्या से क्षमा मांगते हैं। रोते-बिलखते, राजा दशरथ, माता कौसल्या को अपने जीवन का वह प्रसंग सुनाते हैं, जिसके कारण आयु के इस पडाव पर उनका जीवन बिखर रहा है।

अपनी युवावस्था में जब वे शिकार के लिए गए थे, तब शब्दवेधी बाण से उन्होंने एक तपस्वी को घड़े में पानी भरते समय मार दिया। राजा को लगा की हाथी सूंड से पानी पी रहा है। किंतु वह तपस्वी ऋषि था, श्रावण। अपने वृद्ध एवं अंध माता-पिता को यात्रा पर लेकर जा रहा था।

अज्ञानवश किए गए, तपस्वी के इस वध के कारण मानो उसके दोनों अंध माता-पिता का भी वध हुआ और राजा दशरथ पर तीन वध का कलंक लगा। उस युवा तपस्वी ने मरते समय दशरथ को शाप दिया की वह भी पुत्र के वियोग में तड़प-तड़प कर मरेगा !

यह सारी घटना माता कौसल्या को बताते-बताते राजा दशरथ ने शोकाकुल अवस्था में अपने प्राण त्याग दिये..!

मात्र अयोध्या ही नहीं, तो समूचे कोशल जनपद पर यहां गहरा आघात था।

राजा दशरथ की मृत्यु को देखकर, तीनों रानीयां, अत्यंत करुण विलाप करने लगी। अयोध्या नगरी में शोक की लहर छा गई। श्रीराम के वियोग के पश्चात हुआ यह दुसरा बड़ा वज्रपात था।

तत्काल भरत और शत्रुघ्न को इस अशुभ समाचार की सूचना देने के लिए मुनी वाशिष्ठ की आज्ञा से, पांच दूत, कैकेय देश के राजगृह नगर में भेजे गए। दुतों ने भरत और शत्रुघ्न को, राजा दशरथ के मृत्यु का समाचार नहीं दिया, किंतु त्वरित चलने को कहा।

सेना और सेवकों के साथ, भरत अयोध्या नगरी के लिए प्रवास कर रहे थे। उज्जिहाना नगरी पहुंचकर उन्हें लगा की सेना और सेवकों के साथ प्रवास करेंगे तो अयोध्या नगरी पहुंचने में और कई दिन लग जाएंगे। इसलिए सेना को धीरे-धीरे आने की आज्ञा देकर वे स्वयं, अपने रथ से, वायु वेग से अयोध्या की ओर बढ़ चले।

जिस अयोध्या में भरत प्रवेश कर रहे थे, उस अयोध्या की तो उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी। किसी भी पौर जन के चेहरे पर आनंद के दर्शन नहीं। कोई हंसी ठिठोली नहीं। गीत नहीं। संगीत नहीं। वृक्ष भी मानो मुरझा गए हो। सबके चेहरों पर विषाद और शोक की छटाएं। इस शोकाकुल नगरी को देखकर भरत भयकंपित हो गए।

वें राज प्रासाद पहुंच कर, सीधे माता कैकेयी के महल में गए। वहां उन्हें अपने पिता के मृत्यु का अशुभ समाचार मिला। वे पितृ शोक से अत्यन्त पीड़ित होकर गिर गए। सचेत होने पर, माता कैकेयी, भरत को उनके राज्यभिषेक के बारे में तथा श्रीराम के वनवास के बारे में बताने लगी। किंतु यह सुनतेही, भरत का क्रोध फट पड़ा। अत्यन्त कुपित होकर उन्होंने माता कैकेयी को धिक्कारना प्रारंभ किया। वह अपनी माता से पूछने लगे, “बता, तुने मेरे धर्मवत्सल पिता, महाराजा दशरथ का विनाश क्यों किया? मेरे बड़े भाई श्रीराम को क्यों घर से निकाला..?”

विनाशितो महाराजः पिता मे धर्मवत्सलः।
कस्मात्प्रव्राजितो रामः कस्मादेव वनं गतः ॥७॥
(अयोध्या कांड / तिहत्तरवां सर्ग)

अत्यधिक क्रोध से भरत, कैकेयी को कहने लगे, “राज्य के लोभ में पडकर क्रुरतापूर्ण कर्म करने वाली दुराचारिणी पतिघातिनी ! तू माता के रूप में मेरी शत्रु है। तुझे, मुझसे बात नहीं करना चाहिये।”

मातृरूपे ममामित्रे नृशंसे राज्यकामुके।
न तेऽह मभिभाष्योऽस्मि दुर्वृत्ते पतिघातिनि ॥७॥
(अयोध्या कांड / चौहात्तरवा सर्ग)

शोक संतप्त भरत को, मुनी वाशिष्ठ ने समझाया। बाद में भरत ने अपने पिता का दाह कर्म किया। भरत एवम् शत्रुघ्न, यह दोनों भाई, अपने पिता के क्रिया कर्मों में सतत विलाप कर रहे थे।

तेरह दिनों के सारे विधि-विधान होने के पश्चात, समस्त मंत्रीगणों ने, भरत से राज्याभिषेक कर राज्य ग्रहण करने का आग्रह किया। किंतु भरत नहीं माने। राज्याभिषेक की सामग्री लेकर वन में श्रीराम से मिलने की उन्होंने इच्छा जताई तथा आवश्यक सभी को साथ चलने का आदेश दिया।

इधर श्रीराम, जानकी और लक्ष्मण के साथ, गंगा-यमुना-सरस्वती के त्रिवेणी संगम में स्थित भारद्वाज मुनी के आश्रम में गए। मुनीश्री, इन तीनों को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने इन तीनों का अतिथि सत्कार किया तथा आशीर्वाद दिया।

भारद्वाज मुनी ने इन तीनों को, अगले कुछ दिनों के लिए चित्रकुट पर्वत पर ठहरने के लिए कहा। महर्षि भारद्वाज ने स्वस्ती वाचन कर के, तीनों को, अपने द्वारा बनाई हुई नौका से यमुना नदी पार कराई।

प्रवास करते-करते यह तीनों चित्रकुट पहुंचे। वहां महर्षि वाल्मीकि का दर्शन करके, श्रीराम ने, भ्राता लक्ष्मण को पर्णकुटी बनाने के लिए कहा, जहां यह तीनों निवास करने वाले हैं।

उधर भरत भी शत्रुघ्न के साथ, अपनी माता और मंत्रियों को लेकर श्रीराम को खोजते हुए चित्रकूट पहुंच रहे हैं…
(क्रमशः)
– प्रशांत पोळ

आप इस श्रृंखला को अपना जो अद्भुत प्रेम दे रहे हैं, प्रतिसाद दे रहे हैं, प्रतिक्रियाएं दे रहे हैं… इन सब के लिये मैं आप का हृदय से कृतज्ञ हूं..!

राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य हैं।
कोई कवि बन जाए, सहज संभाव्य हैं॥
– प्रशांत पोळ

(प्रशांत पोळ ऐतिहासिक, धार्मिक, पौराणिक व राष्ट्रीय विषयों पर शोधपूर्ण लेख लिखते हैं, आपकी की पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी है)

इसे भी पढ़ें – लोकनायक श्रीराम – भाग पांच

 

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