परिवार का शाब्दिक अर्थ है व्यक्तियों का साहचर्य मिलन से है, व्यक्तियों के भावनात्मक लगाव से हैं। कार्यों की जटिलता व आधुनिक पाश्चात्य संस्कृति के कारण परिवारों का समाज में स्वरूप बदल रहा है। पहले परिवार में दादा- दादी, पिता – माता, चाचा- चाची एवं भाई-बहन मिलकर परिवार जैसे संस्था को बनाते थे ,इसके द्वारा परस्पर सहयोग व परस्पर स्नेह एवं शांति प्राप्त होती थी। परिवार एक ऐसी इकाई है जहां पर प्रत्येक सदस्य एक दूसरे के लिए चिंता करते हैं। परंपरागत परिवारों में दुख को बांटने का सामर्थ होती है ।
मेरी स्वर्गीय आदरणीय माता जी कहती थी कि एकता वह अवयव है जिससे समस्त समस्याओं का निदान संभव है ।सामाजिक परिवेश में भी परिवार की सकारात्मक उपादेयता है।मानक परिवार अपने सदस्यों को खुशामद के तत्व (स्वतंत्रता ,समानता एवं पूजा की स्वतंत्रता) प्रदान करते हैं। परिवार का सबसे लोकप्रिय व मानक प्रारूप हो सकता है जहां सबकी एक सोच ,एक भावना एवं एक आदर्श हो।
वर्तमान सामयिक परिवेश में जिन परिवारों में बच्चे का अवयव नहीं हैं (विलंब से शादी होने पर व चिकित्सा समस्या के कारण )उन परिवारों में भी एकता व आदर्श के अवयव को उन्नयन करके परिवार की उपादेयता को प्रासंगिक व अर्थपूर्ण बनाया जा सकता है।
(लेखक प्राध्यापक व राजनीतिक विश्लेषक हैं)