मौसम सावन का हो और लोक राग रंग
इतर के शहर कन्नौज में जन्मी मा
कजरी गीत मूलत: उन स्त्रियों के
रेलिया बैरन पिया को लाए जाय
जौन टिकसवा से बलम मोर जैहैं
पानी बरसे टिकस गैल जाए रे , रे
जौने सहरिया को बलमा मोरे जैहें
आगी लागै सहर जल जाए रे, रेलिया
जौन सहबवा के सैंया मोरे नौकर,
गोली दागै घायल कर जाए रे, रेलि
जौन सवतिया पे बलमा मोरे रीझे,
खाए धतूरा सवत बौराए रे, रेलिया
इन दिनों भोजपुरी लोकगीतों में जहां अश्लीलता का बोलबाला है , मालिनी ने इन गीतों को एक साफ़ सुथरी पहचान देने की कोशिश की है , उन्होंने यह गीत गैस कर उस स्त्री के दुख दर्द को जीने की कोशिश की जिसका पति गंगा जमुना पार करके गया है और वो चौड़ाईं केबाद नदी का जल स्तर सामान्य होने के बाद लौटेगा :
जमुनिया की डाल में तोड़ लाई राजा , सोने की थारिया में जौना परोसा
ऐसा ही कज़री का रंग इस लोक गीत में मिला :
कैसे खेलन जेहें सावन में कजरिया बदरिया घिरी आई ननदी
मालिनी अवस्थी कजरी जितना ही सहज दादरा सुर ठुमरी में भी महसूस करती हैं . बेगम अख़्तर साहिबा की मशहूर ठुमरी
‘अब के सावन घर आजा’ जब उन्होंने अपने अन्दाज़ में गाई तो लगा कि बेगम साहिबा की शास्त्रीय संगीत की समृद्ध परंपरा अभी महफ़ूज़ है .
मालिनी ने भोजपुरी के साथ ही अवधी और बुंदेली में भी गाया है . खुली आवाज़ , सावन की कजरी की लोक धुनें , गायकी का स्टेजमैनरिज्म को मिला कर कर मालिनी ने लन्दन के नेहरू सेंटर में जो समाँ बाँधा वो काफ़ी दिनों तक याद रहेगा .
एक बात जो मालिनी ने इसी स्टेज से साझा की वह भी विस्थापन के दुख दर्द को बयान करती है. वे पाकिस्तान में प्रस्तुति के लिए जबगयीं तो वहाँ उन्होंने पाकिस्तानी लोक गायिका के गीत का कैसेट सुना जिसने वह विभाजन से पूर्व बिहार की महिला के पति के घर छोड़कर परदेस जाने के दुख को ठीक उसी अन्दाज़ में गा रही हैं जो बिहार के आंचलिक गीतों में प्रचलित है।