चुनाव की आहट के साथ ही विकास की चर्चा आरंभ हो जाती है. भारतीय लोकतंत्र में संविधान के मुताबिक सामान्य स्थितियों में प्रत्येक पांच वर्ष में चुनाव होता है लेकिन कई बार स्थितियां अनुकूल नहीं होने के कारण चुनाव समय से पहले हो जाते हैं. इन असामान्य परिस्थितियों की बात छोड़ दें तो सामान्य परिस्थितियों में होने वाले चुनाव के एकाध साल पहले सत्तासीन सरकारें आम आदमी के सामने विकास का ढिंढोरा पीटने लगती हैं. हिन्दी प्रदेश मध्यप्रदेश सहित छत्तीसगढ़ और राजस्थान में अगले तीन माह के भीतर चुनाव होना है और इसे होने को अपने पक्ष में बदलने के लिए विकास की ज्ञानगंगा विज्ञापनों की सूरत में आम आदमी तक पहुंचाने की कोशिश की जा रही है. अपनी-अपनी पार्टियों के विचारधारा को पीछे छोड़कर सबके सामने एक ही मुद्दा है कि हमने विकास की गंगा बहा दी है. इस विकास की गंगा में सत्ता से बाहर बैठे विपक्षी दल भी सत्ता दल को चुनौती के अंदाज में कह रहा है-‘मेरी कमीज, तेरी कमीज से सफेद कैसे.Ó
आने वाले चुनाव में ऊंट किस करवट बैठेगा और कौन सी पार्टी को जनता सिंहासन सौंपने वाली है, इसका उत्तर समय के गर्भ में हैं लेकिन युद्ध और प्रेम में सब जायज है कि तर्क पर चुनाव में भी इसे तर्कसिद्ध किया जा रहा है. मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में होने वाले चुनाव में सबसे ज्यादा चुनौती मध्यप्रदेश के सामने है. हालांकि राजस्थान और छत्तीसगढ़ राज्य की सत्तासीन दल के लिए भी आसान नहीं है. इम्पेक्ट फीचर और विज्ञापनों के जरिए जो उपलब्धियां बतायी जा रही हैं, वह कितने लोगों को लुभा पाएगी, इस पर रिसर्च करने की जरूरत है. जिस देश में साक्षरता का प्रतिशत न्यूनतम हो, वहां छपे शब्दों से लोग सरकार की योजनाओं को जान लें, थोड़ा कठिन सा विषय है.
हैरानी इस बात की है कि चुनाव राजस्थान में हो या छत्तीसगढ़ में लेकिन वहां की सरकारें मध्यप्रदेश के अखबारों में अपनी उपलब्धियों का बखान कर रही हैं. आखिर मध्यप्रदेश के मतदाताओं को इन राज्यों की उपलब्धियों से क्या लेना-देना लेकिन राजनीति की समझ रखने वाले इसे मतदाताओं पर मानसिक दबाव बनाने की एक प्रक्रिया मानते हैं. वे इस प्रकार समझाते हैं कि मध्यप्रदेश सहित भाजपा शासित राज्यों में ओल्ड पेंशन स्कीम एक बड़ा मुद्दा है और नीतिगत कारणों से इन राज्यों में लागू ना हो सके लेकिन कांग्रेस शासित राज्यों में ओल्ड पेंशन स्कीम लागू है. और जब ऐसे विज्ञापन मध्यप्रदेश के अखबारों में छपते हैं तो मतदाताओं के मन पर इसका असर होता है. यह और बात है कि इसका मतदान पर कितना क्या असर होता है या नहीं, इसके आंकलन का कोई आधार नहीं है.
पंजाब में विकास कितना और क्या हो रहा है, का गुणगान करती पंजाब सरकार भी एक अंतराल में मध्यप्रदेश की मीडिया में विज्ञापन दे रही है. पंजाब सरकार के इस कदम के बारे में राजनीतिक विश£ेषक कहते हैं कि इन विज्ञापनों के माध्यम से मतदाताओं पर मानसिक दबाव बनाकर मध्यप्रदेश में आम आदमी पार्टी के लिए जमीन तलाश करना है. हालांकि इन विज्ञापनों में मध्यप्रदेश के लिए आम आदमी पार्टी का कोई रोडमैप स्पष्ट नहीं दिखता है. राजनीतिक विश£ेषक इस बात को भी गंभीरता से लेते हैं कि आम आदमी पार्टी की सरकार करीब नौ वर्षों से दिल्ली में है लेकिन वहां के विकास कार्यों का कोई विज्ञापन मध्यप्रदेश की मीडिया में नहीं दिख रहा है. दिल्ली के स्थान पर पंजाब को वजनदारी देने को लेकर कयास लगाये जा रहे हैं. आम आदमी पार्टी का स्थानीय निकाय में हस्तक्षेप हुआ है और सिंगरौली नगर निगम में आप की मेयर काबिज हैं. लेकिन विधानसभा चुनाव में आप पार्टी क्या वोटों का समीकरण बिगाडऩे का काम करेगी या स्वयं की मजबूत जमीन बना पाएगी, यह समय तय करेगा.
मध्यप्रदेश में लम्बे समय से भारतीय जनता पार्टी सत्ता में है. बीच के 18 महीने की कांग्रेस सरकार के कार्यकाल को छोड़ दें तो करीब-करीब 23 वर्षों से भाजपा की सरकार है. इसमें भी शिवराजसिंह चौहान के नेतृत्व में 20 वर्षों से सरकार सत्तासीन है. स्वाभाविक है कि सरकार इतने लम्बे समय से सत्ता में है तो उसके पास गिनाने लायक उपलब्धियों का जखीरा भी होगा. इस मामले में आप निरपेक्ष होकर आंकलन करें तो मध्यप्रदेश की ऐसी कई योजनाएं हैं जिनका अनुगामी दूसरे राज्य बने हैं. लोकसेवा गारंटी योजना एक ऐसी योजना है जो प्रशासन को कार्य करने के लिए समय का पाबंद करती है. मुख्यमंत्री तीर्थ दर्शन योजना एक ऐसी योजना है जो राज्य के एक बड़े वर्ग को प्रभावित करती है.
मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने सूझबूझ के साथ इस योजना को लागू कर स्वयं को प्रदेश के बुर्जुगों का श्रवण कुमार के रूप में स्थापित कर दिया. लाडली लक्ष्मी योजना ने तो जैसे शिवराजसिंह के मामा होने की छवि को मजबूती के साथ स्थापित किया. किसान, निर्धन, आदिवासी और लगभग हर समुदाय-वर्ग के लिए योजनाओं का श्रीगणेश किया जिससे उनकी सरकार की छवि एक कल्याणकारी राज्य की बनी. मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान स्वयं ऐसी सादगी से रहते हैं कि हर कोई उन्हें अपना मानता है. वे नवीन योजना समय की जरूरत के अनुरूप लाते हैं और विरोधियों का मुंह बंद कर देते हैं. तिस पर वे अपनी इन योजनाओं को कभी मास्टर स्ट्रोक नहीं माना बल्कि वे इसे अपने परिवार की जरूरत के रूप में देखा. हालिया लाडली बहना स्कीम ने तो विरोधियों की नींद उड़ा दी है. बच्चियों के मामा, बुर्जुगोंं के श्रवण कुमार बने शिवराजसिंह अब लाडली बहनों के लाडले भाई बन गए हैं.
मध्यप्रदेश के चुनाव में मुख्य विरोधी दल कांग्रेस के वायदों को ना केवल उड़े बल्कि उनके वायदे से अधिक देने की कोशिश की है. फौरीतौर पर लोगों की राय में शिवराजसिंह सरकार का कार्यकाल संतोषजनक है लेकिन शिकायत यह है कि लम्बे समय तक काबिज नहीं रहना चाहिए. वे सरकार की सूरत बदलते देखना चाहते हैं. जो राजनीतिक परिदृश्य दिख रहा है, उससे यह हवा बन रही है कि कांग्रेस वापसी की तैयारी में है. यह भविष्यवाणी करना मुश्किल है कि कौन आएगा और कौन जाएगा लेकिन चुनाव के करीब आते-आते माहौल गर्म हो रहा है. सत्ताधारी पार्टी के साथ यह होता ही है कि उन्हीं के लोग विरोध में खड़े हो जाते हैं. जो हाल मध्यप्रदेश में दिख रहा है, उससे अलग स्थिति छत्तीसगढ़ और राजस्थान की नहीं है. छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल वर्सेस सिंहदेव हैं तो राजस्थान में गहलोत वर्सेस पायलट की राजनीति सरेआम है जिसमें विरोध का पक्ष बड़ा है.
साल 23 जाते जाते तय हो जाएगा कि कौन जाएगा और कौन रहेगा लेकिन यह तय है कि साल 24 से जो भी सत्तासीन होगा अपने एजेंडा और विचारधारा के अनुरूप सरकार चलाएगा. विकास की बातें होंगी लेकिन वह प्राथमिकता में नहीं रहेगी. विकास की गंगा का मुंह मोड़ दिया जाएगा तब तक के लिए जब तक फिर जनता-जर्नादन की जरूरत ना हो. हालांकि देश के मुखिया से लेकर हर नागरिक इस फ्री सेवा को रेवड़ी मानकर चल रहा है और विरोध की मुद्रा में भी है लेकिन बातें हैं बातों का क्या? मान लेना चाहिए कि प्रेम, युद्ध और चुनाव में सब जायज है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)