Saturday, November 23, 2024
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सरस्वती पुत्र तमिल महाकवि सुब्रह्मणय भारती

(जन्म: 11 दिसंबर 1882 -निधन: 12 सितंबर 1921)

नई दुनिया, इंदौर के 21 सितंबर 1987 का संपादकीय- “राष्ट्रीय जल नीति : स्वागत योग्य दस्तावेज” की पहली पंक्ति में लिखा गया था- “सौ वर्ष में सबसे भयंकर समझे जाने वाले सूखे से पैदा देशव्यापी संकट ने देश को पानी की समस्या पर सोचने को मजबूर किया है। देश की बड़ी नदियों के पानी को अनावृष्टि और अतिवृष्टि के समय में जल के सदुपयोग के संबंध में सोच लिया था। तब ही तो उनकी भावना के परिणाम स्वरूप 9 सितंबर को राजधानी दिल्ली में घोषित राष्ट्रीय जल नीति उपजी थी।” 6 नवंबर के अंक का शीर्षक था- “देश की सभी नदियों को दस वर्षों में जोड़ना संभव।” और 6 दिसंबर 2002 अंक के शीर्षक में था- “नदियों को जोड़ने का काम प्रगति पर : आडवाणी।”

उल्लेखनीय यह है कि बहुत पहले देश की बड़ी-बड़ी नदियों को जोड़ने परिकल्पना तमिल के महान कवि सुब्रह्मणय भारती ने अपने गीतों में की थी। उनकी कविता में – आओ, सेतु सिंधु पर बांधे, सिंहल द्वीप मिलाएं/ पारावर पार कर जनपथ आर-पार दौड़ाएं/ आओ, बंग भूमि (ब्रह्मपुत्र) के बहते जल की धार फेरें/ मध्यदेश को सींच उन्हीं से उर्वरता को घेरे/ भारत का नाम अभय का/ भारत का नाम विजय का। खिली चांदनी, बीच सिंधु नद की चौड़ी धारा पर/ आंध्रदेश की मधु रागनियों में, साधे कंठ स्वर/ मधुर कंठ मलयाल युवतियों के दल के संग गाएं/ तान-तान पर, लहर-लहर पर थिरक उठे नौकाएं।कवि भारती के मन-मस्तिक में भारतवर्ष के करोड़ों लोगों की सुख-समृद्धि का चित्र था। इसीलिए उन्होंने उत्तर-दक्षिण की नदियों, गंगा से कावेरी तक को जोड़ने की कल्पना कर ली थी। एक अन्य कविता में रचा था कि-महान हिमवान हमारा है…यह स्नेहमयी गंगा हमारी है… यह सुनहली भूमि हमारी है… आओ, हम इसका गुणगान करें।

स्वाधीन भारत में कठिन चुनौतियां उपजी है। साम्प्रदायिक हिंसा हमारे राष्ट्रीय आधार को क्षति पहुंचा रही है, जिस धरा पर हम खड़े हैं उसे ही धर्म और भाषा को तोड़ने का औजार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। कुछ समाज विरोधी तत्व स्वाधीनता के अच्छे नतीजों को समाप्त करने में लगे हैं। बस यहां पर हमें सुब्रह्मण्य भारती की ये पंक्तियां याद आती है। “जल से नहीं, आंसुओं से हमने सींचा स्वाधीनता के पौधे को, हे भगवान, क्या यह पौधा यों ही कुम्हला जाएगा। सुमधुर स्वाधीनता, क्या नहीं है सर्वोपरि पल, ह्रदयहीन उन पशुओं से क्या रक्षा इसकी नहीं करोगे।” जन-जन के कवि भारती की दूरदर्शिता थी कि आपने देश आजाद होने के बहुत वर्ष पहले ही आजाद भारत की कल्पना कर ली थी। डंके की चोंट कहा था – हम नाचेंगे, कूदेंगे/ हम आजाद हो गए हैं,/ हमें मालुम हो गया है कि/ यह देश हमारा है,/ हमारा अपना है,/ इस पर हमारा ही अधिकार होगा/ और किसी का नहीं,/ भविष्य में और किसी के/ गुलाम नहीं बनेंगे/ हां, केवल सर्वेश्वर के गुलाम रहेंगे।

भारती की कविताओं में भक्ति रस है जिसमें प्रधानता राष्ट्रीयता की है। भक्ति रस पर उन्होंने जो कुछ लिखा, उसका मूल कारण लोगों को देश सेवा की ओर प्रवृत्त करना मात्र था। उन्होंने ईश्वर का गुणगान किया है। उनका कहना था कि तुम्हारा ईश्वर खुद एक देश प्रेमी है। अपने देश के लिए मर मिटने वाला ईश्वर खुद कहता है कि परतंत्रता में जीवन नहीं, नरक है। आपके खंडकाव्य ‘पांचाली शपथ’ अर्थात द्रौपदी की शपथ कथा में पांडवों की पत्नी के चीरहरण प्रसंग का वृतांत है, उसमें उन्होंने द्रोपदी को पांडवों की पत्नि नहीं अपितु भारतमाता के रूप में चित्रित किया गया है। पांचाली का वस्त्रहरण उसका अपना नहीं बल्कि भारतवर्ष का वस्त्रहरण है। जिसमें द्रोपदी सीख देती हैकि स्वत्व मांगने से न मिले, न्यायोचित अधिकार भी मांगने से न मिले, तो उसे छीनकर लेने का प्रयास करों।

सुब्रहमण्य का जन्म तमिलनाडु के तिरुनेलवेली जिले के एट्ट्यपुरम के पास के गांव शिवपुरी में हुआ। पिता चिन्नस्वामी का अफर तमिल एवं गणित के प्रकांड विद्वान होने से एट्टयपुरम महाराजा के दरबार में विशेष स्थान था। बातों ही बातों में कविता रच देने आशु कवि भारती ने सिर्फ सात वर्ष की आयु में जमींदार के यहां पंडितों को शास्तार्थ करने की चुनौती इस शर्त के साथ दे डाली कि विषय मौके पर चुना जाएगा। चुना गया विषय ‘शिक्षा’ था। आपके अकाट्य तर्कों के सामने पंडितगण हाथ टेकने को बाध्य हो गए। हाजिर जवाब से मिली विजय से ‘आपको ‘भारती’ की पदवी से सुशोभित किया गया। विद्या की देवी सरस्वति का एक नाम ‘भारती’ भी है। आपमें जो प्रतिभाएं थी, उनसे प्रमाणित होता है कि वह सरस्वती के सच्चे उपासक थे। पांच वर्ष की आयु में माता लक्ष्मी चल बसी थी। पिता से बिछुड़ने पर सुब्रह्मण्य वाराणसी में अपनी बुआ और फूफा के यहां चले गए। यहां आपने बालों को लंबा बड़ा लिया, मुछे घनी रख ली और सिर पर फेटा बांधने लगे। वाराणसी के सेंट्रल हिंदू कॉलेज में अंग्रेजी भाषा के साथ संस्कृत तथा हिंदी विषय लेकर प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। वह हिंदी भाषा को अपनी मातृभाषा तमिल के समान धारा प्रवाह बोलते थे। बंगला पर भी आपका समान प्रभुत्व था।

पंद्रह वर्ष की आयु में चेल्लमा के साथ सन् 1897 में विवाह हुआ। सन 1898 में पिता का देहांत हो गया। आपकी एकमात्र संतान शकुंतला हुई। आपने प्राचीन तमिल काव्य शास्त्र का ही गहरा अध्ययन किया। 1905 के बंग-भंग आंदोलन ने भारती पर विशेष प्रभाव डाला। अब आप स्वाधीनता-संग्राम में कूद पड़े और राष्ट्र-जागरण के लिए तेजस्वी कविताएं रचना प्रारंभ दी थीं।

सुब्रहमण्य भारती ने पत्रकारिता करते हुए संघर्षमय दस वर्ष व्यतीत किए। तमिल दैनिक ‘स्वदेश मित्रन’ के सह सम्पादक का दायित्व कर रहे थे, तो पत्र मालिक खरे आपके प्रहारात्मक लेखन से घबरा गया और बोला, ‘स्वदेश मित्रन’ नरम दल का पत्र है। 1905 में आपको भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बनारस अधिवेशन में भाग लेने का अवसर मिला। वहां भगिनी निवेदिता से प्रभावित हुए। फिर आपने महिलाओं की दूर्दशा, सामाजिक जीवन में भाग लेना, उन्हें समान अधिकार मिले, ऐसे मुद्दों पर ध्यान देना प्रारंभ कर दिया। वापस आने पर आपकी भेंट निर्भिक प्रकाशक मण्डयम् श्रीनिवासाचारी से हुई। इस कट्टर देशभक्त प्रकाशक के साप्ताहिक ‘इंडिया’ में इस शर्त पर आए कि “जो भी लिखूंगा, छापा जाएगा।” भारती के लेखों से लोगों में हलचल उत्पन्न हो गयी थी। संपादन के साथ-साथ आपने जन जागरण अभियान भी चला दिया। गुलामी की जंजीरों से मुक्ति पाने के लिए लोगों से स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने का आव्हान किया, तो अंग्रेज सरकार के पैरों तले की जमीन खिसकने लगी।

आप उनकी आंख की किरकिरी बन गए। स्वदेश मित्रन के संपादक एम. श्रीनिवासन को गिरफ्तार कर लिया गया। आपको गिरफ्तार करने की छानबिन शुरू हो गयी। मित्रों ने सलाह दी कि आपका जेल से बाहर रहना ज्यादा सार्थक है। संघर्ष को जारी रखने की भावना से आप फ्रांसीसी क्षेत्र पाण्डिचेरी पहुंच गए। यहां भी अंग्रेज सरकार के जासूस आपका पीछा करते हुए पहुंच गए। अब स्वदेश मित्रन के मालिक श्रीनिवासाचारी ने अपना छापखाना पांडिचेरी में लगा लिया। श्रीनिवासाचारी के ‘स्वदेश मित्रन’ और उसके भाई के दैनिक ‘विजया’ के सम्पादकत्व का भार उठाते हुए भारती ने स्त्री शिक्षा के पक्ष में वातावरण जगाया।

नारी शक्ति के महत्व के लिए लोगों में चेतनाजागृत की। छुआ-छूत, धार्मिक पाखण्ड, अंध विश्वास जैसे मुद्दों पर जमकर कार्य किया। भारती के कदमों की रोकथाम के लिए अंग्रेज सरकार ने आपके द्वारा सम्पादित सभी प्रकाशनों पर सन् 1910 में रोक लगा दी। सरकार का दमन बढ़ जाने के कारण 12 मार्च 1910 के बाद ‘इण्डिया’ को बंद करना पड़ा। इन दिनों महर्षि अरविंद और उग्रवादी तमिल नेता वीवी अय्यर पांडिचेरी आ गए थे। भारती अब इनके नजदीक संपर्क में रहने लगे थे। इन दोनों की छाप से भारती की लेखनी पर अध्यात्म का पुट आ गया।

स्वतंत्रता संघर्ष के लिए जहां-जहां जन सभाएं होती थी, वहां-वहां ह्रदय को आंदोलित करने वाली भारती की कविताएं सभा प्रारंभ होते समय गाकर सुनाने की परंपरा सी बन गई थी। तमिल भाषा को क्लिष्टता से सहज, सरल, सुगम और ओजपूर्ण चोला पहनाने का श्रेय भारती को ही है। ‘वंदेमातरम’ गीत में अंग्रेजों को ललकारते
हुए भारती की कविता है:
चाहे पनपे यहां हजार जाति, धर्म, वर्ण
पर विदेशी को ठौर मिलेगा नहीं;
एक मॉं के बेटे हम, लड़ते रहें, भिड़ते रहें
पर हैं और रहेंगे भाई-भाई ही।

स्वभाषा की महत्ता के संबंध में भारती का विचार था कि-“निज भाषा की उन्नति से ही उसे बोलने वालों की उन्नति होती है। लोगों की उन्नति पर उस प्रदेश की उन्नति निहित है तथा उस प्रदेश की उन्नति पर देश की उन्नति निश्चित् है” हमारे राष्ट्र भूमि का गुणगान करते हुए भारती ने ‘हमारा देश’ कविता में व्यक्त किया था-
“गाएंगे यश हम सब इसका, यह है स्वर्णिम देश हमारा,
आगे कौन जगत में हमसे, यह है भारत देश हमारा।”

स्वाभिमान और किसी के आगे हाथ न फैलाने के संबंध में आपका विचार है-
क्षुद्र स्वार्थ की खातिर, हम तो कभी न गर्हित कर्म करेंगे,
पुण्य भूमि पर यह भारतमाता, जग की हम भीख न लेंगे।

सुब्रहमण्यम भारती की कविताओं के विषय सकारात्मक थे: हमारी मातृभूमि भारत की, ब्रिटिशों की दासतासे मुक्ति, अनादिकाल से प्रवाहित हमारी सभ्यता और धार्मिक धरोहर, हमारे भूमि पुत्रों की दयनीय स्थिति, भारत की शीघ्रताशीघ्र स्वतंत्रता मिले, इसीलिए उनकी ‘तड़प’ और स्वतंत्रता के बाद के भारत का उनका स्वप्न। उनके लोकप्रिय गीत- ‘मां भारती, काली देवता, शक्ति देवता’ जन-जन के गले के हार बन गए थे। ‘स्वदेश गीतांगल’ 1908 तथा ‘जन्म भूमि’ 1909 उनके देशभक्ति पूर्ण काव्य संकलन है। ‘कृष्णन् पाट्टू’ 1921 ‘कुयिल पाट्टू, (कोयल का गीत) पांचाली शपथम्’ आपकी अमर कृतियां हैं। आपने वैदिक ऋषियों की कविताएं, भगवत गीता व पातंजलि के योगसूत्र का तमिल में अनुवाद भी किया है। भगवत गीता पर आपके द्वारा लिखी गई भूमिका तमिल गद्य का उत्कृष्ट नमूना है। आपने 400 के लगभग गद्यगीतों की रचना की, जो स्वदेश-मित्रन में धारावहिक रूप से प्रकाशित हुई। आपकी संपूर्ण रचनाएं, तमिल राज्य सरकार द्वारा ‘भारती-ग्रंथाली’ नाम से प्रकाशित हुई है।

कृष्णन पाट्टू में भारती ने कृष्ण को अपने इष्ट देव के रूप में प्रस्तुत किया है। इसमें आपने लिखा है: “जहां देखता हूं, वहां सभी ओर नंदलाल ही नंदलाल दिखाई देते हैं।” नंदलाल से आपका आशय भारत के गरीबों से है। पांचाली शपथम् खंडकाव्य में द्रोपदी को पांडवों की पत्नी की अपेक्षा भारतमाता के रूप में चित्रित किया है। पांचाली के वस्त्रहरण से तात्पर्य भारतमाता के वस्त्रहरण से है। आपके अनुसार मौका मिले तो स्वयं के अधिकार को छीनकर भी प्राप्त कपना चाहिए। भारती ने रामायण तथा महाभारत की मूल रचनाओं का गहन अध्ययन किया था। ऐसे ही आपने तमिल के प्राचीन ग्रंथों व संस्कृत के काव्य ग्रंथों का भी अध्ययन किया जो भारतीय साहित्य की अमूल्य विरासत है। भारत में बहुत सी भाषाएं बोली जाती हैं। तमिलनाडु में जो भाषा बोली जाती है वह ‘तमिल’ है। तमिल का अर्थ है मधुर-सुंदर। इसे अमृत भी कहते हैं।

दक्षिण भारत की भाषाओं में तमिल सबसे पुरानी भाषा है। लगभग 2000 वर्षों से यह भाषा बोली जा रही है। इसे द्रविण भाषा भी कहते हैं। भाषा विशेषज्ञों का कहना है कि यह यह कन्नड़, तेलुगु, मलयालम आदि भाषाओं की जननी है। इन भाषाओं में मिलते-जुलते शब्द हैं। तमिल भाषामें कंबन, तिरुवल्लुवर, इलंगो अव्वेयार जैसे जाने-माने साहित्यकार हुए हैं। कंबन का कंबरामायण, वल्लुवर का तिरुक्कुरल, इलंगोला का सिलप्पदिव्कारम आदि काव्य बहुत प्रसिद्ध हैं। तिरुक्कुरल को तमिल वेद कहते हैं। इनके दोहें सर्वकालिक हैं कविताओं से उस काल का इतिहास तथा संस्कृति का परिचय मिलता है। सुब्रहमण्य ने तमिल की कठिन तथा क्लिष्ठ कविता को सरलतम बनाने का भरपूर प्रयास किया। आपके साहित्य का हिंदी सहित देश-विदेश की भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। आपकी वीर रस की कविताएं पढ़-सुनकर पाठकों की सोई आत्माएं जाग उठी तथा प्रेरित होकर स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया। हिमालय से कन्याकुमारी तक हम एक हैं भारत हमारा देश है, — इस प्रेरणा को आधार बनाकर काव्य रचना की है।

भारती ने जीवदया के साथ पशु-पक्षियों का भी ध्यान रखा है। एक बार अभाव की हालत होने पर आपने अपने पास रखी हुई थाली में जो चावल थे, उन्हें चिड़ियों के चुगने दिया, उड़ा कर भगाया नहीं। भारती की धरा पर हिंदी सेवी वाजपेयी की आहुति क्रांतिकारी तमिल कवि सुब्रहमण्य भारती का साहित्यिक अवदान भारतीय भाषाओं का गौरवपूर्ण अध्याय है। स्वतंत्रता संग्राम के जिस अमर सैनानी पर दक्षिण गर्व करता है, भावनात्मक एकता की दृष्टि से शेष भारत के लोगों तक भारतमाता के इस महान भक्त के जीवन कार्यों से परिचित कराया जाना आवश्यक है।

अगस्त 1921 की एक अन्य घटना के अनुसार आप पार्थसारथी मंदिर के नजदीक रहते थे, थाली में नारियल और फल रख कर एक हाथी को खिलाने चले गए। हाथी मदोमस्त हालत में था। उसने भारती को अपनी सूण्ड में लेकर उठा लिया और जमीन पर पटक दिया। आपका शरीर इस चोंट को सहन नहीं कर सका और वह अस्वस्थ्य हो गए। मात्र 39 वर्ष की आयु में 12 सितंबर 1921 के दिन पेचीश के कारण यह भारतीय आत्मा सदा के लिए इस संसार को छोड़ कर चली गई। अंतिम संस्कार भी मित्रों ने पचास रुपए एकत्रित करके किया।

सुब्रहमण्यम भारती तमिलनाडु के थे। तमिल भाषा, समाज, संस्कृति और स्वाधीनता आन्दोलन के लिए जिए और अमर हो गए। आपकी तरह ही तमिल धरा पर मैट्रिक तक शिक्षा प्राप्त हिंदीसेवी प्रताप नारायण वाजपेय ने तो तमिल राज्य में हिंदी का प्रचार-प्रसार करते हुए अपना जीवन ही न्योछावर कर दिया। भारती के जीवनकाल के इस हिंदी सेवक की हिंदी सेवा इतिहास बन गई। हिंदी भाषा का प्रचार-प्रसार करने की अभिलाषा लिए हुए बिहार का यह युवक दक्षिण भारत की तमिल भूमि तिरुचि में पहुंचा था। दुबला- पतला कृषकाय शरीर वाला बिहार की खादी की मोटी धोती और खादी की बेतुकी सिलाई का झब्बा पहनता था। परंपरा अनुसार इसका बाल विवाह हो चुका था। न पैरों में जूता और न आराम की वस्तु साथ में थी।

पुरुषोत्तमदास टंडन को प्रताप नारायण वाजपेय बहुत पसंद आया था। दक्षिण भारत में हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए मोहनदास गांधी की प्रेरणा अभिभूत था। आदर्श हिंदी सेवक बनने के लिए, तीन ही वर्षों में उसकी मनोकामना पूर्ण हो गई थी। तीन वर्षों में इसने ऐसे अनेक युवक तैयार कर दिए जो उसके हिंदी भाषण का अनुवाद तमिल में कर सकें। वह बिना पढ़ाए लौटता ही नहीं था। दिन भर दस-दस घण्टों तक भिन्न-भिन्न जगहों पर जाकर पढ़ाता था। स्वयं अपने हाथ की बनाई रोटी खाता था। यह समर्पित हिंदी प्रचारक यक्ष्मा का रोगी था, परन्तु अपनी बीमारी की परवाह नहीं करता था।

एक दिन की घटना है। वह तमिलनाडु को तिरुक्चिनापल्लि नगर में हिंदी की कक्षा चला रहा था। सामने दस विद्यार्थी बैठे थे। उसके हाथों में पुस्तकें और लिखने के लिए खड़िया थी। तख्ते पर लिखकर व्याकरण समझा रहा था कि तभी उसके नाम का तार आ पहुंचा। उसने कोई हड़बड़ी नहीं दिखाई। शांत् पूर्वक पढ़ाता रहा। कक्षा समाप्त होने पर उसके एक शिष्य वकील हालास्यम ने तार को खोलकर पढ़ा। तार में लिखा था कि प्रताप नारायण की पत्नी का स्वर्गवास हो गया है, शीघ्र आएं। शिष्य बड़ा ही परेशान दिख रहा था। उसने कहा कि आप आज की गाड़ी से प्रस्थान करें। हम व्यय की राशि की व्यवस्था कर देंगे। वाजपेय ने शिष्य से पूछा, “जब मैं बिहार पहुंचूगा तो क्या उसका शव रखा मिलेगा?

उसकी अर्थी के साथ मैं ‘राम नाम सत्य’ कहते हुए चल पाऊंगा? क्या उसके मुख के अन्तिम दर्शन कर सकूंगा?” शिष्यगण मौन धारण किए बैठे रहे। वाजपेय ने आगे कहा, “जब वहां जाने से उसके दर्शन तक कपना सम्भव नहीं तब वहां जाने का मतलब ही क्या रह जाएगा? वहां पहुंचने पर बन्धु-बांधवों के सहानुभूति के दो-चार शब्द सुन पाऊंगा। यहां भी वह मिल पा रहा है। अत: वहां जाना और यहीं रह जाना दोनों बराबर ही है। मेरा प्रस्थान धन का अपव्यय ही होगा।” अपनी कड़ी नीति के कारण वह अपने हिंदी विद्यार्थियों को महीनों रुलाता रहा। वकील शिष्य तो अपने गुरु के इस त्याग भाव से गुरु के आत्मीय ही बन गए। प्रताप नारायण का लिखा हिंदी का ‘हीर’ व्याकरण दणिण में पढ़ाया जाता रहा। हिंदी के पुराने प्रचारकों की राय है कि ‘हीर’ द्वारा जिस सरलता से पढ़ा पाते हैं, वैसे अन्य व्याकरण ग्रंथों द्वारा नहीं।

1922 में तिरुच्चि नगर के गांधी मैदान की एक विराट सभा में वाजपेय का भी भाषण हुआ था। आपके हिंदी भाषण का अनुवाद आपके शिष्य एडवोकेट हालास्यम ने किया था। पुलिस ने दूसरे दिन हालास्यम को गिरफ्तार कर लिया। अदालत में मुकदमा में हालास्यम को दण्ड सुनाया जाने वाला था। वाजपेय अचानक अदालत में न्यायाधीश के सामने हाजिर हुए और कहा “भाणण मेरा था, अनुवादक हालास्यम ने केवल मेरी भाषा का अनुवाद ही किया है। मैं भी अपराधी हूं। दोनों को एकसाथ दण्ड दिया जाए।”

वाजपेय के अकाट्य तर्क के कारण दोनों को दो वर्ष की सजा दी गई। जेल में इस यक्ष्मा के रोगी की चिकित्सा व्यवस्था अच्छी नहीं की गई। रोग चन्द हफ्तों के अन्दर काबू से बाहर हो गया। उन्हें मुक्त कर दिया गया। जेल से छुटने के दस दिनों रे अंदर इस समर्पित हिंदी सेवी का स्वर्गवास हो गया। वाजेपेय के बलिदान से सारा तमिलनाडु जाग उठा। उनकी शव-यात्रा में दस हजार से अधिक की भीड़ उमड़ पड़ी थी। उनके दसों शिष्य उनके पुत्र बने और अपने हाथों में जलती मशालें लेकर चिता पर डालते रबे। आपके नाम पर हिंदी पुस्तकालय की स्थापना की गयी। जिसका नाम प्रताप नारायण वाजपेय पुस्तकालय रखा गया। पुस्तकालय में बीस हजार पुस्तके हैं।

एक निवेदन

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