लोकतांत्रिक शासकीय व्यवस्था में गत्यात्मक लोकतंत्र के लिए स्वतंत्र एवं एकीकृत न्यायपालिका की मौलिक भूमिका है। स्वतंत्र न्यायपालिका ही राज्य के नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा एवं संरक्षा प्रदान करती है ।लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में न्यायपालिका को नागरिकों एवं व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों का संरक्षक माना जाता है। न्यायपालिका अपने न्यायिक निर्णय के क्रियान्वयन भयविहीन एवं दबाव विहीन रहती है।
समकालीन में सवाल यह उठता है कि क्या न्यायपालिका विधायिका, कार्यपालिका एवं शक्तिशाली नौकरशाही के प्रभाव से स्वतंत्र है?
क्या न्यायपालिका राजनीतिक दबाव से स्वतंत्र है?
संघात्मक शासन व्यवस्था के अंतर्गत संघीय विधायिका एवं राज्य विधायिका के बीच शक्तियों का विभाजन होता है। यह संवैधानिक विभाजन एक लिखित संविधान के द्वारा किया जाता है जो राज्य की सर्वोच्च विधि होती है।संघीय व्यवस्था के अंतर्गत विधान मंडलों का विभाजन एक लिखित संविधान द्वारा होता है। संविधान के उपबंधों की व्याख्या अति आवश्यक होता है, इसके लिए एक ऐसी संस्था की आवश्यकता होती है जो स्वतंत्र, भयविहीन ,दबाव विहीन एवं निष्पक्ष हो और संघीय सरकार एवं राज्य सरकारों के बीच विवादों का निपटारा निष्पक्षता से कर सके। संघात्मक शासन प्रणाली के अंतर्गत यह कार्य एवं जिम्मेदारी एकीकृत न्यायपालिका को प्रदान की गई है।
भारत के संविधान निर्माता न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए वचनबद्ध थे, इसलिए उच्चतम न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए विभिन्न प्रकार के संवैधानिक प्रावधानों एवं सामाजिक-आर्थिक आयामों के साथ संकल्पित थे। राष्ट्रपति महोदय /देश के संवैधानिक प्रमुख उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं, लेकिन राष्ट्रपति को न्यायाधीशों की नियुक्ति में न्यायपालिका के वरिष्ठतम न्यायाधीशों से परामर्श करना अनिवार्य है। भारत का संविधान न्यायाधीशों की सेवा कल को निश्चित बनाता है तथा उनको सरकार की इच्छा पर सेवा से नहीं हटाया जा सकता है। न्यायाधीशों के वेतन को संविधान की द्वितीय सूची द्वारा प्रावधानित किया गया है और उनकी सेवाओं की शर्तो को संसद के अधिनियम द्वारा अधिनियमित किया गया है। उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश को पदावधि के दौरान विधि में किसी भी प्रकार का अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जा सकेगा ।
उच्चतम न्यायालय के प्रशासनिक व्यय, न्यायाधीशों एवं कर्मचारियों के वेतन एवं भत्तों को ‘भारत की संचित निधि’ से देय होता है और इस पर संसद में मतदान नहीं होता है। न्यायाधीशों की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने के लिए प्रावधान किया गया है कि संविधान के अनुच्छेद 121 में व्यवस्था किया गया है कि अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने के विषय में न्यायाधीशों की भूमिका पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं की जा सकती है जबकि उसको हटाने का प्रस्ताव विचाराधीन हो। भारत के संविधान के अंतर्गत न्यायाधीशों के स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए व्यवस्था किया गया है कि कोई भी सेवा निवृत न्यायाधीश भारत के क्षेत्र में किसी भी न्यायालय में किसी भी न्यायाधिकारी के सम्मुख कानूनी /विधिक पेशा नहीं कर सकता है।
न्यायपालिका के भूमिका संपर्तय पर बात करते हुए ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष ने संविधान सभा में कहे थे, “उच्चतम न्यायालय की स्वतंत्रता को सुनिश्चित किया जा सके और यह किसी वगैरह भय ,विधायिका एवं कार्यपालिका या किसी अन्य भौकाली अधिकारी से भयविहीन या पक्षपात विहीन काम कर सके।” उच्चतम न्यायालय के न्यायिक निर्णय पर सभी राज्य के अंग, भाग न्यायाधिकारी जुड़े है ,इसलिए उच्चतम न्यायालय को’ संविधान का संरक्षक’ कहा गया है ।इसी प्रकार ग्रानविल ऑस्टिन ने न्यायपालिका की भूमिका को बताते हुए कहा है कि” उच्चतम न्यायालय को नागरिकों और अल्पसंख्यकों के अधिकारों के संरक्षक का कार्य सौंप कर ‘सामाजिक क्रांति के संरक्षक’ की भूमिका प्रदान किया गया है।
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति महोदय द्वारा की जाती है। मुख्य न्यायाधीश की अतिरिक्त अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में राष्ट्रपति मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करते हैं। इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया से न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रख करके व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों को सुरक्षित एवं संरक्षित किया जा सकता है, जिसके लिए अति आवश्यक के न्यायपालिका पूर्णत:स्वतंत्र एवं दबाव विहीन हो,अर्थात
विधायिका =कार्यपालिका=न्यायपालिका।
भारत के संवैधानिक व्यवस्था में स्वतंत्र न्यायपालिका की भूमिका संविधान की व्याख्या और स्वतंत्र न्यायिक निर्णय को सुनिश्चित करना है। सामाजिक एवं आर्थिक न्याय के विशाल और राज्य के उपेक्षित वर्गों (बंजारे, निर्धन, अभावग्रस्त) एवं उपेक्षित क्षेत्रों में स्वतंत्र न्यायपालिका एवं न्यायिक क्षितिज से संभव हुआ है। भारत के संवैधानिक व्यवस्था में एवं विशेष रूप से राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों में सामाजिक न्याय के सिद्धांत निहित है, जिसका मौलिक उद्देश्य हमारे भ्रष्ट, विकृत एवं दूषित प्रणाली से सामाजिक एवं आर्थिक विसंगतियों को उन्मूलन करना है। स्वतंत्र न्यायपालिका शासक वर्ग एवं शासित वर्ग के बीच उत्पन्न असमानता, भेदभाव एवं उत्तरदाई शासन स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका सिद्ध की है।
राज्य के वंचित वर्गों, वंचित वर्गों की दुर्दशा एवं इस वर्ग के प्रति शासक वर्ग के उदासीनता के प्रति सही मायने में जवाब देही बनाने के लिए सुशासन के लक्ष्यों को लागू करने के लिए शासन को शासितों के प्रति उत्तरदाई बनाने, अधिकतम सहभागिता के लिए प्रोत्साहित करने, भय मुक्त माहौल, दबंग एवं समाज के असामाजिक तत्वों से संरक्षित एवं सुरक्षित करने ,आम व्यक्तियों के अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए प्रशासन के दृष्टिकोण को लोक कल्याणकारी दृष्टिकोण में बदलने का श्रेय स्वतंत्र न्यायपालिका को दिया जाना चाहिए।
न्यायपालिका की स्वतंत्रता का वास्तविक आशय न्यायाधीश स्वतंत्र, निष्पक्ष एवं निडर होने चाहिए। न्यायाधीश निष्पक्षता से न्याय तभी कर सकते हैं जब उन पर किसी भी प्रकार का राजनीतिक सत्ता का दबाव ना हो। न्यायपालिका कार्यपालिका के द्वारा पुरस्कृत नहीं होना चाहिए ,न्यायिक निर्णय पर भविष्य के अवसर हावी नहीं होने चाहिए। न्यायिक स्वतंत्रता के लिए विशेष कदम उठाकर एक स्वतंत्र एवं निष्पक्ष न्यायपालिका की परिकल्पना की जा सकती है-
१. विधि का शासन और संविधान वाद की संकल्पना लागू करके;
2. सामाजिक न्याय एवं आर्थिक न्याय की प्राप्ति के लिए शत-प्रतिशत संकल्पित होना;
३. आचरण का मानक तय करके;
4. न्यायिक नैतिकता पर संगोष्टियां का आयोजन करके;
५. न्यायिक चार्टर लागू करके;और
६. न्यायिक जवाब देही को संकल्प से क्रियान्वित करके न्यायिक स्वतंत्रता और न्यायपालिका की भूमिका को प्रासंगिक और उपापदेयी बनाया जा सकता है।
(लेखक लोकनीति विशेषज्ञ हैं)