छत्तीसगढ़ – झारखंड की सीमा पर, झारखंड से मात्र 12 किलोमीटर दूरी पर एक सुंदर सा शहरी गांव है – जशपुर। यहां का भगवान श्रीराम का ‘सोग्रा – अघोरी मंदिर’ जितना प्रसिद्ध है, उतना ही आशिया का दूसरा बड़ा चर्च, जो कुनकुरी में है, प्रसिद्ध हैं। जशपुर यह साफ, सुथरा, स्वच्छ ऐसा जनजातीय जिला मुख्यालय है। जशपुर के पास से कोतेबिरा ईब नदी बहती है। स्वच्छ, शुद्ध, निर्मल जल से भरपूर..!
कुछ वर्ष पहले जशपुर नगर में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का ग्रीष्मकालीन श्रमानुभव शिविर लगा था। इस दौरान शिविरार्थी छात्र-छात्राएं स्नान करने इस नदी पर आए। वहां उन्हें एक दृश्य दिखा, जिसके कारण इन शिविरार्थियों का कौतूहल जागृत हुआ।
नदी के किनारे, ढोल – ढमाके लेकर कुछ जनजातीय ग्रामीण, उत्सव जैसा कुछ कर रहे थे। इनमें पुरुष और महिलाएं दोनों शामिल थी। वह ढोल की थाप के साथ कुछ गीत भी गा रहे थे। जब ये छात्र-छात्राएं पास गएं, तो उन्हें दिखा कि उस जनजातीय समूह में, एक प्रौढ़ सा दिखने वाला व्यक्ति और एक महिला लोटे जैसे पात्र में रखा जल, उस नदी में डाल रहे हैं और नदी की पूजा कर रहे हैं।
आश्चर्य से यह सब क्रिया देखने वाले छात्र-छात्राओं के समूह में छत्तीसगढ़ी बोली जानने वाले छात्र भी थे। उन्होंने उन जनजातिय लोगों से पूछा, “आप यह सब क्या कर रहे हैं?”
नदी की पूजा करने वाले उसे बुजुर्ग व्यक्ति ने बड़े प्रसन्न चेहरे से उत्तर दिया, “मेरे बेटे का विवाह होने जा रहा है। इसलिए, हम नदी मां से अनुमति लेने और क्षमा मांगने आए हैं।”
छात्र समझ नहीं सके। उन्होंने फिर पूछा, “भला आपके घर होने वाले विवाह से नदी का क्या वास्ता? उसकी क्यों अनुमति लेना?”
उस बुजुर्ग व्यक्ति को शायद यह प्रश्न ही ठीक से समझ में नहीं आया। ‘कुछ भी बेतुका प्रश्न आप पूछ रहे हैं’ ऐसा भाव लेकर उसने कहा,
“क्यों नहीं? *हमारे यहां विवाह होने जा रहा है। मंगल प्रसंग है। जात – बिरादरी से अनेक लोग आएंगे। दूर-दूर से आएंगे। पानी के लिए हम सब नदी मां पर ही निर्भर है। इसलिए इस पूरे विवाह प्रसंग मे हम नदी मां का ज्यादा जल प्रयोग करेंगे। तो नदी मां की अनुमति लेनी तो बनती है ना? और ज्यादा जल का प्रयोग होगा इसलिए क्षमा याचना भी। यह हमारी किसी भी मंगल प्रसंग पर निभाने वाली परंपरा का अंग हैं।”*
सुनने वाले छात्र-छात्राएं निःशब्द..!
*नदियों का चाहे जैसा दोहन करने वाले, उन्हें प्रदूषित करने वाले, पानी का अपव्यय करने वाले हम लोग। और आज इक्कीसवीं शताब्दी में भी, विनम्रता पूर्वक, अतिरिक्त जल के लिए नदी मां की अनुमति मांगने वाले यह लोग..!*
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संयोग से दूसरा प्रसंग भी जशपुर के पास का ही हैं। उन दिनों वनवासी कल्याण आश्रम के अखिल भारतीय अध्यक्ष जगदेवराम जी उरांव थे। वे छत्तीसगढ़ में कार्यकर्ताओं के साथ जीप में किसी प्रवास पर निकले थे।
चलते-चलते काफी समय हो गया था। मार्च महीने के शुरुआती दिन थे। गर्मी बढ़ रही थी। अतः एक छायादार पेड़ के नीचे जीप रोकी गई। जगदेवराम जी और कार्यकर्ता नीचे उतरे। इतने में एक कार्यकर्ता का ध्यान उस पेड़ पर गया। आम का पेड़ था। भारी संख्या में कच्चे आम पेड़ पर लटक रहे थे। एक कार्यकर्ता ने पास में पड़ी लकड़ी से कुछ आम तोड़े, उन्हें साफ किया और खाने के लिए जगदेवराम जी और अन्य कार्यकर्ताओं को दिए।
कार्यकर्ता वो कच्चे आम खाने लगे। किंतु जगदेवराम जी ने उन्हें खाने से मना किया। कार्यकर्ताओं ने कारण पूछा, कि ‘आम के खट्टेपन के कारण तो जगदेवराम जी मना नहीं कर रहे हैं? या वह आम खाते ही नहीं?’
जगदेवराम जी ने बड़े ही सहज भाव से कहा, “आम तो मैं खाता हूं। मुझे अच्छे भी लगते हैं। किंतु अभी नहीं।
“क्यों, अभी क्या हुआ?” कार्यकर्ताओं ने पूछा।
“अभी आखा तीज (अक्षय तृतीया) नहीं हुई है ना। हम लोग आखा तीज से पहले आम नहीं खाते।” जगदेवराम जी का उत्तर।
कार्यकर्ता अचंभित। “आखा तीज का और आम खाने का क्या संबंध?”
*जगदेवराम जी फिर बड़े ही सहज भाव से बोलते हैं, “हम लोग मानते हैं कि आखा तीज से पहले आम में गुठली नहीं बनती। बिना गुठली के आम खाएंगे तो नये आम कहां से बनेंगे?”*
*कार्यकर्ता स्तब्ध..!*
*सहज रूप से भ्रूण हत्या करने वाला, भ्रूण हत्या को कानूनी जामा पहनाने वाला हमारा समाज। और आम में भी यदि गुठली नहीं बनती है तो उस ‘आम के भ्रूण’ को खाने से परहेज करने वाला जनजातीय समाज !*
*‘लोक’ के रक्त में पर्यावरण हैं..!*
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ऐसे अनेक उदाहरण है। अनगिनत हैं। यह जो जनजातीय समुदाय में ‘लोक’ बसता है, पर्यावरण यह उनके जीवन दर्शन का, जीवन शैली का ही हिस्सा हैं। इसलिए ‘पर्यावरण बचाओ’ जैसे नारे इनके समझ में नहीं आ सकते। इनको इसकी आवश्यकता ही नहीं हैं। मात्र मानव ही नहीं, तो सृष्टि के समस्त जीव जंतुओं का निसर्ग पर, प्रकृति पर अधिकार इनको मान्य हैं। इनकी रहन-सहन, इनकी सारी परंपराएं, यह निसर्ग पर, सृष्टि के चक्र पर आधारित है।
यह ‘लोक’ बिखरा हैं। पूरे देश में अनेक जनजातियों में बसता हैं। उनकी भाषा अलग हैं। खानपान अलग हैं। किंतु जीवन शैली में समानता हैं। परंपराओं में समानता है। कारण, यह सब निसर्ग के साथ तादात्म्य पाने वाले जीवन दर्शन को मानते हैं, जो हम सब का मूलाधार हैं। जल – जंगल – जमीन उनके लिए ईश्वर समान हैं।
*यही कारण हैं, कि यह निसर्ग चक्र को बहुत अच्छे से समझते हैं। कई बार हमारा मौसम विभाग, वर्षा का गलत पूर्वानुमान कर बैठता हैं। किंतु यह जो ‘लोक’ में रहने वाला जनजातीय समूह हैं, इन्हें इन सब बातों का सटीक पूर्वानुमान होता हैं।* कौवे अपना घोंसला कहां और कब बनाते हैं, इस पर हमारा ‘लोक’, वर्षा का सटीक अनुमान लगा लेता है। अगर कौवों ने मई माह में बबुल, सावर जैसे कटीले पेड़ों पर घोंसला बनाया, तो वर्षा कम होगी। किंतु यदि आम, करंज जैसे घने पेड़ों पर घोंसला बनाया, तो उस वर्ष बारिश अच्छी होगी यह निश्चित हैं। अगर घोंसला पेड़ पर पश्चिम दिशा में किया हैं, तो बारिश औसत होगी। यदि पेड़ के सबसे उंचे छोर पर घोंसला बनाया हैं, तो अकाल पड़ता हैं।
ऐसे अनेक सटीक अनुमान, ये सामान्य से दिखने वाले लोग लगाते हैं। इसका कारण हैं, इनकी पूरी जीवन शैली यह निसर्ग से एकरूप हैं। पर्यावरण पूरक हैं।
प्रकृति की इनकी जानकारी अद्भुत रहती हैं। प्रख्यात मराठी लेखक, जो वन अधिकारी भी रह चुके हैं, ऐसे मारुति चित्तमपल्ली ने बताया कि, ‘जिस वर्ष बारिश नहीं होती, अकाल पड़ता हैं, उस समय, बारिश होने से पहले ही, गर्भवती शेरनी डायसकोरिया के कंद खाकर गर्भपात कर लेती हैं। वर्षा नहीं, तो जंगल में घास नहीं उगेगी। और घास नहीं, तो स्वाभाविकता, तृणभक्षी प्राणी भी नहीं होंगे। इस परिस्थिति में शेरनी के शावकों को अपना भक्ष्य नहीं मिलेगा। खाने के लिए कुछ नहीं मिलेगा। उनकी भुखमरी होगी। यह सब सोच कर, वर्षा आने से पहले ही, जंगल की शेरनी अपना गर्भ गिरा देती हैं। जंगल, प्रकृति से एकाकार हुए लोग, यह देखकर अकाल की सटीक भविष्यवाणी करते हैं, और अपनी अलग व्यवस्था बना लेते हैं।
*यह सब अद्भुत हैं। विस्मयजनक हैं। प्रकृति के साथ इनकी तद्रुपता, हम सबके कल्पना से भी परे हैं।*
यहां ‘लोक’ का अर्थ मात्र जनजातीय समुदाय के लोग ही नहीं हैं। गांव में रहने वाले, आपके – हमारे शहर में बस्ती बनाकर रहने वाले, सभी लोग इस श्रेणी में आते हैं। इनके जीवन का स्पंदन, प्रकृति के स्पंदन के साथ समकालीन (synchronised) होता हैं। इसलिए इनको ‘पर्यावरण’ या ‘पर्यावरण बचाओ’ ऐसे शब्दों का अर्थ ही समझ में नहीं आता। कारण, पर्यावरण के साथ जीना यह तो इनके रोजमर्रा की जीवन पद्धति का अंग हैं। पर्यावरण इनके रक्त में हैं।
इस ‘लोक’ में रहने वाले अनेकों को मैंने देखा हैं, जो, ‘सस्ते मिल रहे हैं इसलिए’ प्लास्टिक का स्वीकार नहीं करते हैं।
इस लोक में रहने वाले लोग, अपनी मस्ती में जीते हैं। कृत्रिम चीजों से इन्हें तिरस्कार हैं। आज भी अनेक घरों के आंगन को यह गोबर से लिपते हैं। दीवारों पर चुने की पुताई करते हैं। इन्हें यह नहीं मालूम कि तुलसी का पौधा ऑक्सीजन छोड़ता है, जो मनुष्य प्राणी के लिए अंत्यत आवश्यक हैं। इन्हें यह भी नहीं मालूम कि यह औषधि पौधा हैं, और इससे निकलने वाले तेल में अनेक फाइटोकेमिकल्स होते हैं, जिसमें टैनिन, फ्लेवोनॉयड्स, यूजिनाॅल, कपूर जैसे मानव शरीर के लिए लाभदायक तत्व हैं। इन सब की जानकारी ना होते हुए भी, बड़ी श्रद्धा से, यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी घर के आंगन में तुलसी का पौधा लगाते आए हैं, और घर का पर्यावरण, अनजाने में, शुद्ध कर रहे हैं।
इनकी अनेक परंपराएं, पद्धतियां अनोखी होती है, अनमोल होती है। जैसे, मध्य प्रदेश के डिंडोरी जिले में किसान, अरहर (red gram) के साथ धान (rice) भी उगाते हैं। इसके कारण मिट्टी का कटाव नहीं होता हैं। अगली बार, इन फसलों को बदलकर, महुआ और काले चने की फसल लेते हैं। इसके कारण जमीन की उर्वरकता बनी रहती है, बढ़ती हैं।
मिट्टी के गुणधर्म बनाए रखने की, उर्वरकता बढ़ाने की और मिट्टी का कटाव रोकने की, यह अत्यंत प्रभावी पध्दति हैं, जो पूर्णतः प्राकृतिक हैं। लाभदायक खेती करने का यह टिकाऊ (sustainable) मॉडल हैं। मध्य प्रदेश के क्षेत्रीय कृषि कार्यालय का इस ओर ध्यान गया। इसकी जानकारी लेकर ‘इंडियन काउंसिल आफ एग्रीकल्चर रिसर्च’ (ICAR) ने इस पद्धति को अपने ‘नेशनल एग्रीकल्चर टेक्नोलॉजी प्रोजेक्ट’ में शामिल किया। इस परियोजना का उद्देश्य, यूरिया पर निर्भरता कम करना हैं।
यह एक छोटा सा उदाहरण हैं। *ऐसी अनेक पद्धतियां, अनेक प्रक्रियाएं, अनेक परंपराएं आज भी ‘लोक’ में चल रही हैं। टिकाऊ विकास (sustainable development) के यह सब उदाहरण है, जिन्हें बडी मात्रा मे, प्रत्यक्ष धरातल पर उतारना आवश्यक हैं।*
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*इस ‘लोक’ में रहने वाले लोगों के पास परंपरागत ज्ञान का अकूत भंडार हैं। यह लोग प्राकृतिक दवाइयां से लेकर तो सब कुछ जानते हैं।*
प्रख्यात समाजसेवी और लेखक पद्मश्री गिरीश प्रभुणे एक अनुभव सुनाते हैं। उनका घुमंतू लोगों में बहुत काम हैं। सांप – नेवले की लड़ाई करवाने वाले, लड़ाने वाले घुमंतू लोगों ने उन्हें बताया, कि वह जहां जाते हैं, वहां सांप के जहर का उपाय ढूंढ निकालते हैं।
नेवले से लड़ाई करने वाले सांप जहरीले भी होते हैं। जहरीले सांप ज्यादा ताकत से, ज्यादा ऊर्जा से और ज्यादा जोश से नेवले पर आक्रमण करते हैं। इसके कारण सांप – नेवले की लड़ाई में रंग भरता हैं, और देखने वाले दर्शक, दो पैसे ज्यादा डालते हैं।
अब सांप यदि जहरीला हैं, तो सपेरे को कभी ना कभी तो काटेगा ही। नेवले को तो अनेकों बार काटेगा। इस जहरीले काट की दवाई, यह लोग जिस पद्धति से ढूंढते हैं, वह बड़ी रोचक होती हैं।
जिस नई जगह पर यह लोग जाते हैं, वहां पहुंचने पर सांप – नेवले की लड़ाई करवाते हैं। लड़ाई लड़ते हुए सांप, नेवले को काटता हैं। नेवले को खुला छोड़ा रहता हैं। ज्यादा काटने पर नेवला सरपट दौड़ लगाता हैं। उस नेवले के पीछे, इन घुमंतू लोगों के कुत्ते भागते हैं। यह कुत्ते नेवले को ट्रैक करते हैं। और कुत्तों के पीछे यह घुमंतू लोग भागते हैं।
भागते-भागते नेवला झाड़ियां ढूंढता है। ढूंढते ढूंढते वह किसी एक वनस्पति की पत्तियां चबा चबाकर खाता हैं। बस, यही है सांप के जहर पर दवाई..! यह घुमंतू लोग उस पौधे को अच्छे से देख कर रखते हैं। उस गांव में, सांप के जहर की दवाई अब उनकी जानकारी में रहती हैं।
यह सब आश्चर्यजनक है। अद्भुत है। किसी अनजाने जगह पर, नेवला बराबर जहर को काट देने वाली दवाई का पौधा कैसे ढूंढता हैं, या कल्पना से परे हैं। प्रकृति के साथ एकाकार होने का यह प्रभावी उदाहरण हैं।
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आज से कुछ दशकों पहले, कोदो – कुटकी यह गरीबों का, जनजातीय लोगों का अनाज समझा जाता था। शहरी क्षेत्र के लोगों का इस अनाज से, उन दिनों दूर-दूर तक वास्ता नहीं था।
किंतु आज ?
वैज्ञानिक परीक्षणों में यह सिद्ध हुआ कि कोदो में फेनोलिक एसिड नाम का यौगिक होता है, जो पेनक्रियाज में एमाईजेल को बढ़ाकर इंसुलिन के निर्माण को प्रोत्साहित करता हैं। शरीर में इंसुलिन की सही मात्रा शुगर लेवल को कंट्रोल करने में मदद करती हैं, जिससे डायबिटीज की स्थिति में राहत मिलती हैं। पौधों का ग्लिसमिक इंडेक्स बहुत कम होता हैं। कोदो, फाइबर का भी एक अच्छा स्रोत हैं, जो मधुमेह पीड़ित लोगों के लिए फायदेमंद है।
कोदो – कुटकी यह बाजरा (मिलेट) श्रेणी के अनाज हैं। यह मिलेट के सारे प्रकार, पहले ‘लोक’ का अनाज हुआ करते थे। आज भी हैं। किंतु आज मिलेट खाना यह एक स्टेटस् सिंबल बनता जा रहा हैं। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रयासों से, वर्ष 2023 यह अंतर्राष्ट्रीय मिलेट वर्ष के रूप में मनाया गया। ‘लोक खाद्य’ यह अब उच्च वर्ग का अन्न भी बन रहा हैं।
*हमारे पुरखों के पास ज्ञान का अद्भुत भंडार था। गणित, विज्ञान, चिकित्सा शास्त्र, कला के साथ ही शरीर स्वास्थ्य की भी अदभुत जानकारी थी। लोक परंपराओं से यह जानकारी पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ती गई। इन लोक परंपराओं के कारण ही ज्ञान का यहां भंडार, कुछ अंशोंमें हम तक पहुंच सका। यह सारा ज्ञान, यह सारी ज्ञान परंपरा, पूर्णतः प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित है।*
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लोक परंपराओं ने, लोक संस्कृति ने इस टिकाऊ जीवन शैली को, प्राकृतिक जीवन पद्धति को अभी तक बनाए रखा है। किंतु अब समय बदल रहा हैं। ‘लोक’ के सामने ‘पर्यावरण’ यह प्रश्न चिन्ह बनकर सामने खड़ा हैं। वनों की अंधाधुंध कटाई हुई हैं। हो रही हैं। प्रकृति के साथ एकाकार होना, एकरूप होना, दिनों दिन कठिन होता जा रहा हैं। जनजातीय समुदाय को जंगलों के सहारे रहना, यह असंभव की श्रेणी में आ रहा हैं। सृष्टि का चक्र भी बिगड़ने लगा हैं।
अर्थात, सरकार ने कुछ अच्छे कानून भी बनाए हैं, जैसे पेसा (PESA – पंचायत एक्सटेंशन टू शेड्यूल्ड एरियाज एक्ट) कानून। पेसा कानून का मुख्य उद्देश्य है, पारंपरिक प्रथाओं के अनुरूप उपयुक्त प्रशासनिक ढांचा विकसित करना। जनजातीय समुदायों की परंपराओं और रीति रिवाजों की रक्षा और संरक्षण करना। जनजातीय आवश्यकताओं के अनुरूप, विशिष्ट शक्तियों के साथ उचित स्तर पर पंचायत को सशक्त बनाना। कुल 10 राज्यों में अनुसूचित जनजातियों का प्राबल्य हैं। इसलिए वहां पेसा कानून उपयुक्त हैं। इनमें से आठ राज्यों ने पेसा कानून लागू किया हैं। किंतु उसका कार्यान्वयन या परिपालन ठीक से नहीं हो पा रहा हैं।
गांव – शहरों में जो ‘लोक’ बसता हैं, उनके सामने तकनीकी के इस बदलते दौर में अपनी परंपराएं बचाने की चुनौती हैं। इन सब का प्रत्यक्ष परिणाम पर्यावरण पर हो रहा है।
किंतु यह बात तय हैं, की प्रमाणिकता से पर्यावरण की रक्षा, यह ‘लोक’ ही कर सकेगा। इसलिए इस ‘लोक’ को सुदृढ़ बनाना, उन्हें बल देना, ताकत देना, उनकी परंपराएं जतन करने में मदद करना, यही समय की आवश्यकता है..!
– प्रशांत पोळ
_(भाग्यनगर मे आयोजित हो रहे *लोकमंथन – २०२४* के अवसर पर प्रकाशित पुस्तक, *लोकावलोकन* में प्रकाशित लेख)_