चूंकि शब्द ब्रह्म है और ब्रह्म ही उत्पत्ति के मूल कारक है अतः असंभव तो कुछ भी नहीं है ।श्रृंगार को शब्दों में बांधने से अधिक यह भावनात्मक अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है या कहें कि रति व प्रेम जब पुरुष व नायिका के अंतर्मन में रस अवस्था में पहुंच जाता है तो वह श्रृंगार रस कहलाता है ।श्रृंगार को महाकवियों ने यूं ही परिभाषित किया है –
श्रृंगार का नेत्रों के माध्यम से दर्शन करने पर अथवा पंचेेंद्रीय द्वारा अनुभव करने पर जो भाव उत्पन्न होते हैं वे वास्तव में अलौकिक होते हैं अतः भावों को शब्द देते हुए यदि कमी रही तो हम श्रृंगार के साथ न्याय नहीं कर पाते हैं। श्रृंगार रस में डूबा व्यक्ति अपने आपको किंकर्तव्यविमूढ़ व चेतना शून्य महसूस करता है। यहां मैं उदाहरण देना चाहता हूं हाडौती के वयोवृद्ध कवि दाभाई दुर्गा दान सिंह जी जो श्रृंगार के अद्भुत कवि हैं के गीत की पंक्तियों का—-
गोरी गोरी गजबण बणी ठणी,
मुजरो मुजरो खम्मा घणी,
जीं पै थारा कामण हो ज्या ऊं को तो बस रामधणी ——
बस यहीं पर श्रृंगार दर्शन के पश्चात की मनोदशा कैसी होती है कि कवि को कहना पड़ता है ऊं को तो बस रामधणी मतलब यह कि नायक श्रृंगार दर्शन के पश्चात चेतन शून्य है आगे ईश्वर ही जाने——।
वैसे तो संपूर्ण जगत श्रृंगार से ओत प्रोत है बस नजरिया व्यापक व साहित्यिक होना चाहिए मात्र नायक व नायिका का दैहिक श्रृंगार ही नहीं भावनात्मक श्रृंगार एवं प्रकृतिस्थ विपुल संपदा श्रृंगार का पर्याय है ।चराचर जगत की प्रत्येक वस्तु व जीव आदि का अपना-अपना श्रृंगार है ।
जैसे धरा का श्रृंगार पेड़, पौधे, जलाशय ,नदी, ताल ,पर्वत, और मैदान आदि है वैसे ही आसमान का श्रृंगार तारे, चांद, सूर्य, नक्षत्र, व इंद्रधनुष आदि हैं किंतु कवियों व साहित्यकारों ने नायिका के दैहिक श्रृंगार को ही माध्यम बनाकर प्रकृतिस्थ श्रृंगार को साध्य के हेतु साधन निरूपित किया है।
अतः श्रृंगार तो श्रृंगार है राजा, जोगी, संत, महात्मा, वृद्ध, जवान आदि कोई भी श्रृंगारित देह का शिकार हुए बिना नहीं रहा ।श्रृंगार करने से देह द्विगुणित सौंदर्य युक्त हो जाती है जिसे कह सकते हैं “सोने पर सुहागा”।
प्राचीन साहित्य में श्रृंगार ___
“वाक्य रसात्मकम् काव्यम्”
अर्थात रसात्मक काव्य ही काव्य है।
प्राचीन साहित्य पर दृष्टिपात करें तो ढोला मारू, बीसलदेव रासो ,वैली कृष्ण रुक्मणी ,नागजी नागवंती, बगड़ावत, आबल दे खींवरा भर्तहरि आदि मिलते हैं कालिदास,बल्लभ देव, जायसी ,केशव ,नागेंद्र नाथ वासु, रूप गोस्वामी ,या यूं कहें कि लब्धप्रतिष्ठ कवियों साहित्यकारों ने विशेषतः श्रृंगार को दो भागों में विभक्त किया है
१संयोग श्रृंगार एवं
२ वियोग श्रृंगार
संयोग श्रृंगार —–
बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय। सौंह करे भौंहनि हँसे, देन कहे नटि जाय।।
यह बिहार का संयोग श्रृंगार है ।
तुलसीदास जी का संयोग श्रृंगार देखिए …..
थके नयन रघुपति छवि देखें ।
पलकन्हि हुं परिहरि निमेखे ।।
किंतु कहीं पर विश्वनाथ कहते हैं —
न विना विप्रलंभेन संयोग पुष्टिमर्हति।
कषायिये हि वस्त्रादौ भूयान रागो विवर्धते।।
अर्थात –विप्रलंभ (वियोग) श्रृंगार के बिना संयोग श्रृंगार पुष्टि को प्राप्त नहीं करता । वियोग के पश्चात ही संयोग अत्यंत सुख प्रद लगता है।
महाकवि कालिदास जी ने अभिज्ञान शाकुंतलम् में वियोग श्रृंगार व संयोग श्रृंगार का विस्तृत वर्णन किया है । -ऋतु संहार, मेघदूत ,कुमारसंभव में भी शिव पार्वती के संयोग वर्णन में संयोग की अति उत्कृष्ट अभिव्यक्ति है । साहित्य दर्पण में भोजराज विप्रलम्भ ( वियोग ) श्रृंगार यूं निरूपित करते हैं
“यात्रस्तु रति: प्रकृष्टा नाभिष्टमुपैति विप्रलम्भो असौ”
परंतु माना जाता है कि नायक नायिका में वियोग दशा में प्रेम हो तो उसे विप्रलंभ श्रृंगार कहते हैं।
इसी प्रकार केशव कहते हैं कि –
बिछुरत प्रीतम की प्रीतिमा, होत जु रस तिहि ठौर।
विप्रलंभ ता सो ज्ञकहे, केशव कवि सिरमौर ।।
चिंतामणि कहते हैं——
“जहां मिले नहीं नारि अरु , पुरुष सुवरण वियोग”
और इसी प्रकार सोमनाथ के अनुसार—–
प्रीतम के बिछुरनि विषै जो रस उपजति आइ ।
विप्रलंभ श्रृंगार से कहत सकल कविराइ।।
केशव ने विरह की प्रसिद्ध पारम्परिक परिपाटियों का उपयोग करते हुए बताया है कि सीता मां के वियोग में चांद की शीतल किरणें राम के हृदय को दग्ध करती है ।
हिमांसु सूर् सो लगे सो बात वज्र सो बहे।
दिसा लगे कृसानु जो विलेप अंग को दहे ।।विसेस कालराति सी कराल रात मानिए ।
वियोग सीय को न काल लोकहार जानिए ।।
सीता जी के वियोग में पंपासर के कमल राम को सीता जी के नेत्रों के समान प्रतीत होते हैं
जायसी ने पद्मावत में श्रृंगार का वर्णन किया किंतु वियोग श्रृंगार की प्रधानता रही। राजा रतन सेन के साथ संयोग होने पर पद्मावती——–
पद्मावति चाहत ऋतु पाई ।
गगन सोहावन भूमि सोहाई।।
चमक बीजु बरसे जल सोना।
दादुर मोर सबद सुठि लोना ।।
रंग राती प्रीतम संग जागी ।
गरजे गगन चौंकि गर लागी ।।
नागमती को जो बूंदें विरह अवस्था में बाण की तरह चुभती है वही पद्मावती को संयोग की दशा में कौंधे की चमक में सोने जैसी लगती है ।
समग्र रूप से कत्थ्यात्मक भाव यह है कि सभी कवियों ने श्रृंगार रस को प्रधान रस माना है और अपने काव्य में श्रृंगार का अनोखा व सुंदर चित्रण किया है।
इसी प्रकार आदरणीय जितेंद्र जी निर्मोही सा ने श्रृंगार रस को लेकर एक पुस्तक लिखी “राजस्थानी काव्य में सिंणगार” जिसमें राजस्थान के नामी कवियों द्वारा लिखा श्रृंगार तो है ही परंतु प्राचीन श्रृंगार को लेकर उनकी कलम खूब चली उसमें ढोला मारू रा दूहा, क्रिसन रुक्मणी री वेलि उर्वशी ,मेनका, मीरा ,कबीर ,केशव से लेकर वर्तमान के कवियों का उल्लेख किया है यह श्रृंगार रस की शोध परक अनूठी पुस्तक है- सोलह श्रृंगार>
प्राचीन श्रृंगार में नायिका के 16 श्रृंगार का वर्णन 12वीं सदी में बल्लभ देव की सुभाषितावली में आता है ।
आदौ मज्जन चीर हार तिलकं नेत्रांजनम् कुंडले।
नासा मौक्तिक केश पाश रचना सत्कंचुकम् नूपुरौ।
सौगंध्य कर कंकणम् चरणयो रागो रणन्मेखला ।
ताम्बूलम् कर दर्पण चतुरता श्रृंगारका षोडण।।
अर्थात —-मंजन, चीर, हार ,तिलक ,मंजन ,कुंडल, नासामुक्ता , केश विन्यास, कंचुक ,नूपुर ,अंगराग ,कंकण ,चरण राग ,करघनी ,तांबूल ,कर दर्पण ,यह 16 श्रृंगार बताए गए।
इसके पश्चात 16वीं सदी में रूप गोस्वामी के उज्जवल नीलमणि में 16 श्रृंगार इस प्रकार बताए गए हैं स्नान, नासा मुक्ता ,असित पट , करघनी, वेणी विन्यास ,कर्णावंतस ,अंगराग , पुष्प माल ,हाथ में कमल, केश में पुष्प, तांबूल ,चिबुक का कस्तूरी से चित्रांकन ,काजल ,शरीर पर चित्रांकन ,अलंकृत और तिलक इस प्रकार दोनों की गणना तो 16 ही है पर समय के अनुसार बदलाव देखा गया है समग्र रूप से देखा जाए तो 16 श्रृंगार का कोई निश्चित मानदंड नहीं रहा सब कवियों ने अपने-अपने मत अनुसार लिखा और वर्तमान तक आते-आते कवि रूप जी रूप ने महाकाव्य “हाड़ी री रणभेरी” शौर्य गाथा में हाड़ी के सोलह सिंगार का वर्णन यूं किया है —–
छन्द
मांग टीको बिंदी भालआंखियां मेंकाजल है ,
हाथ पांव मेहंदी मांड मनड़ै मूलकती।
लाल जोड़ो नाक नथ गजरो सजाय दियौ,
कान हाला झूमका पै निजर अटकती।।
गलै में मंगलसूत्र बाजूबंद बांह पर,
कलाई में चूड़ियां जो गजब खनकती ।
अंगूठी कमरबंद बिछुआ भी पहराया,
पन्दरवों सिणगार पायल पलकती।
सोलहवां श्रृंगार यूं बताया गया है—-
दोहा
बींद भरेलो आई नै, माथे जद सिंदूर।
जद होसी सिणगार सब,सोला ही भरपूर।।
इस प्रकार वर्तमान तक आते-आते सोलह श्रृंगार में कई परिवर्तन देखने को मिलते हैं श्रृंगार में बदलाव समय के अनुसार पूर्व में प्राकृतिक संपदा से ही श्रृंगार किया जाता था पुष्पाहार ,पुष्प के गजरे, पुष्प वेणी में गूंथना ,हस्त निर्मित उबटन ,लेपन, मंजन ,अंजन ,अंगराग ,अनेक रंगों के पुष्पों से श्रृंगार किया जाता था । मध्यकाल में धातु निर्मित गहने कर्णफूल पायजेब, चूड़ी ,टिकला, बाजूबंद, और हस्त निर्मित वस्त्र आदि का प्रचलन बढ़ा ।आज वर्तमान में नारी के श्रृंगार को अत्यंत आकर्षक व महंगा बताया जाता है और सही भी है स्वर्ण जड़ित रत्न ,आभूषण, व स्वर्ण से निर्मित कपड़े साथ ही महंगे महंगे उबटन लेपन से देह सुंदर हो जाती है कभी-कभी तो ब्यूटी पार्लर वाले श्याम वर्णी नायिका को भी अप्सरा जैसी गोरवर्ण व सुंदर बना देते हैं अवसर विशेष पर श्रृंगार —–
यूं तो महिलाएं नित्य ही श्रृंगार करती है पर अवसर विशेष पर उमंग उत्साह के साथ-साथ श्रृंगार की उपयोगिता भी बढ़ जाती है मांगलिक आयोजन व उत्सव आदि कार्यक्रमों में तो श्रृंगार अति आवश्यक होता है प्रमुख त्यौहार है गणगौर ,श्रावणी तीज ,करवा चौथ ,दशहरा ,रूप चौदस, दीपावली व परिवार में मांगलिक अवसर पर श्रृंगार किया जाता है।
प्राचीन समृद्ध साहित्य में श्रृंगार को प्रधानता दी गई है और लिखित रूप में विद्यमान है किंतु जन श्रुतियों के माध्यम से भी अनेक श्रृंगार की उत्कृष्ट रचनाएं दोहे गीत आदि है जो गुमनाम साहित्यकारों द्वारा रचे गए हैं ।मैं तो गांव की चौपाल पर उत्कृष्ट साहित्य श्रृंगार जो कहीं लिखित नहीं है साहित्यकार भी अज्ञात है सुनता हूं तो आश्चर्य मिश्रित गर्व महसूस करता हूं हमारी साहित्यिक विरासत पर।
वर्तमान में भी लगभग सभी कवि बंधु कुछ-न कुछ साहित्य के साथ श्रृंगार रस का प्रयोग करते हैं जैसे कवि रूप जी रूप ने हाड़ी की मनोदशा का चित्रण दोहे के माध्यम से यूं किया है—-
नथड़ी रे नखरो घणौ, पायल छनके छन्न।
मेहंदी मुलकै हाथ री,सुलगे गजबण तन्न।।
स्वाति नखत्तर लागतां,सीप देय मुख खोल।
त्यूं हाड़ी तन कामदे, ढमक बजावे ढोल ।।
अर्थात — मेहंदी तो सदैव शीतलता प्रदान करती है पर नायिका का शरीर विरह की आग में जल रहा है और कामदेव मन रूपी देहरी पर ढोल बजाता सा प्रतीत हो रहा है ।
इसी तरह रूप जी के आगामी महाकाव्य में पद्मावती के सौंदर्य का वर्णन देखते ही बनता है —
गलो सुराहीदार छे, बांह जु पंकज नाल ।
उर अमृत रा कलश दो रखिया खूब संभाल।।
ओठ कमल री पांखुरी,चमकत मुक्ता दंत ।
तप तज हुया गृहस्थ कइ,तापस जोगी संत।।
समग्र रूप से यह बात कही जा सकती है कि श्रृंगार रस सभी रसों में प्रधान तो है ही परन्तु जीवन के प्रारंभ से लेकर मृत्यु पर्यंत श्रृंगार उपयोगी रहता है और रहता रहेगा ईश्वर प्रदत्त सौंदर्य जीव चराचर में व्याप्त है अन्य श्रृंगार की आवश्यकता नहीं है पर मानव को ईश्वर ने बौद्धिक स्तर खूब दिया है इसका भरपूर उपयोग करते हुए श्रृंगार के अनेक साधन निर्मित कर लिए जैसा बदलाव प्राचीन काल से अब तक देखने को मिला है संभव है भविष्य में और बदलाव होंगे यह भविष्य के गर्भ में है ।
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“रुप जी रुप” कारपेन्टर
घाटोली , जिला झालावाड़ (राजस्थान)
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