देश में शिक्षा और चिकित्सा की दुर्दशा पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रतिनिधि सभा का प्रस्ताव सटीक है। शिक्षा और चिकित्सा, ये दो क्षेत्र ऐसे हैं कि यदि इन्हें सम्हाल लिया जाए तो किसी भी राष्ट्र को संपन्न और शक्तिशाली होने से कोई रोक नहीं सकता। यदि वह राष्ट्र भारत या चीन या अमेरिका जैसा राष्ट्र है तो उसे विश्व-शक्ति बनने से कोई रोक नहीं सकता लेकिन पिछले पौने दो साल में मोदी सरकार ने क्या किया है? उसने शिक्षा और चिकित्सा को सुधारने की बजाय राष्ट्र-निर्माण में उसकी महत्ता को घटा दिया है। शिक्षा के बजट में भी कटौती कर दी है। यदि दोनों मुद्दों पर इस स्वयंसेवकों की सरकार को संघ चेतावनी नहीं देगा तो कौन देगा? भारत के वर्तमान विपक्ष ने अपनी विश्वसनीयता इतनी घटा ली है कि यदि वह इन दोनों मुद्दों को उठाएगा तो भी उस पर कोई ध्यान नहीं देगा। संघ ने इन मुद्दों को उठाया तो है, लेकिन पता नहीं कि मोदी के राज में संघ में अब कुछ दम भी रह गया है नहीं? इस सरकार को कम से कम संघ की तो सुनना चाहिए। संघ के अधिकारियों को न तो राष्ट्रपति बनना है, न उपराष्ट्रपति और न ही कोई मंत्री-संत्री। वे शुद्ध राष्ट्रहित की बात कर रहे हैं।
संघ ने मांग की है कि देश के कमजोर वर्गों के लिए इलाज और दवाइयां आसानी से मुहय्या होनी चाहिए। गैर-सरकारी अस्पतालों और दवा-निर्माताओं पर कोई न कोई नियंत्रण होना चाहिए। आजकल गैर-सरकारी अस्पताल लूट-पाट के सबसे बड़े अड्डे बने हुए हैं। घर के सिर्फ एक व्यक्ति के इलाज में पूरे परिवार की जीवन भर की कमाई खप जाती है। जो दवाई दो रुपए में तैयार होती है, उसके सौ रुपए वसूल करने से भी कंपनियां नहीं कतरातीं। मेडिकल की पढ़ाई तो भावी डाक्टरों को लूटपाट का पहला अध्याय पढ़ाती हैं। लाखों-करोड़ों की रिश्वत के दम पर प्रवेश पाने वाले डाक्टर आगे जाकर लोगों की सेवा करेंगे या उनको लूटेंगे?
यही हाल शिक्षा का है। मैंने कुछ माह पहले लिखा था कि सरकारी पाठशालाओं और कालेजों का स्तर सुधारना हो तो सभी सरकारी कर्मचारियों और जन-प्रतिनिधियों के लिए यह अनिवार्य होना चाहिए कि उनके बच्चे सरकारी शिक्षा संस्थानों में ही पढ़ें। यही बात उनके इलाज पर भी लागू की जाए। निजी चिकित्सालयों और निजी शिक्षा-संस्थाओं पर या तो पूर्ण प्रतिबंध हो या फिर उन्हें मर्यादा में रहने के लिए मजबूर किया जाए। इसके अलावा संघ ने जिस बात पर जोर नहीं दिया, वह यह है कि देश में उच्चतम शिक्षा का माध्यम हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाएं होना चाहिए। माध्यम के तौर पर अंग्रेजी पर कड़ा प्रतिबंध होना चाहिए। अंग्रेजी माध्यम के सभी स्कूलों-कालेजों की मान्यता रद्द होनी चाहिए। हां, अंग्रेजी तथा अन्य विदेशी भाषाओं के स्वेच्छया पढ़ने-पढ़ाने पर कोई प्रतिबंध नहीं होना चाहिए। यह सरकार मेडिकल, कानून, विज्ञान, गणित और तकनीकी विषयों को हिंदी में पढ़ानेवाले विश्वविद्यालय क्यों नहीं खोलती? नौकरशाहों द्वारा संचालित यह सरकार यदि मजबूर है तो संघ स्वयं पहल क्यों नहीं करता?