Sunday, December 29, 2024
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एक कुत्ते की डायरी

शुनिचैव श्‍वापाके च पंडित: समदर्शिन:। (गीता)

मेरा नाम 'टाइगर' है, गो शक्‍ल-सूरत और रंग-रूप में मेरा किसी भी शेर या 'सिंह' से कोई साम्‍य नहीं। मैं दानवीर लाला अमुक-अमुक का प्रिय सेवक हूँ; यद्यपि वे मुझे प्रेम से कभी-कभी थपथपाते हुए अपना मित्र और प्रियतम भी कह देते हैं। वैसे मैं किस लायक हूँ? मतलब यह है कि लालाजी का मुझ पर पुत्रवत प्रेम है। नीचे मैं अपने एक दिन के कार्यक्रम का ब्‍यौरा आपके मनोरंजनार्थ उपस्थित करता हूँ –

6 बजे सवेरे – घर की महरी बहुत बदमाश हो गई है। मेरी पूँछ पर पैर रख कर चली गई। अंधी हो गई क्‍या? और ऊपर से कहती है – अँधेरा था। किसी दिन काट खाऊँगा। गुर्र-गुर्र… अच्‍छा-चंगा हड्डीदार सपना देख रहा था और यह महरी आ गई – इसने मेरे सपने के स्‍वर्ण-संसार पर पानी फेर दिया। विचार-श्रृंखला टूट गई। बात यह है कि मैं एक शाकाहारी घर में पल रहा हूँ। अत: कभी-कभी मांसाहार का सपना आ जाना पाप नहीं! यह मेरी अतृप्‍त वासना है, ऐसा परसों मालिक से मिलने को आए एक बड़े मनोवैज्ञानिकजी कह रहे थे।… फिर सो गया।

7 बजे – कोई कम्‍बख्‍त आ ही गया। नवागन्‍तुक दिखाई देता है। बहुत भूँका – पर नहीं माना। जरूर परिचित होगा। जाने दो – अपने बाबा का क्‍या जाता है? डेढ़ सौ वर्षों से ब्रिटिश नौकरशाही ने हमें यही सिखाया है – किसी की सॉरी, किसी का सर, अपने से क्‍या? हम तो भुस में आग लगा कर दूर खड़े हैं तापते!

8 बजे – नाश्‍ता-पानी। आज ब्रेकफास्‍ट की चाय पर बहुत गर्मागर्म बहस हो रही है! क्‍या कारण है? मालिक कह रहे हैं कि इन मजदूरों ने आजकल जहाँ देखो वहाँ सिर उठा रखा है। कुचलना होगा इन्‍हें! जान पड़ता है – मजदूर कोई साँप है। मालिक के मित्र बतला रहे थे कि उत्‍पादन में कमी हो रही है। हड़तालों के मारे तबाही मची हुई है। ऐसा कहते हुए उन्‍होंने अपनी नई 'सुपरफाइन' धोती से चश्‍मे की काँच पोंछ कर साफ की थी। मालिक की लड़की कुछ उद्धत जान पड़ती है; बाप से मतभेद रखती है। यही तो कुत्तों की जाति और मानव-जाति में अंतर है – कुत्ता सदा वफादार रहता है; आदमी, ये अहसान-फरामोश हो जाते हैं!

9 बजे – बगीचे में मालिक के छोटे लड़के (और आया उनके साथ) सैर के लिए आए। फूलों के विषय में आया कुछ भिन्‍न मत रखती है; मालिक के लड़के का कुछ और मत है। मेरी दृष्टि से तो ये सब काट-तराश बेकार-सी चीज है – मगर नहीं – मैं अपना मत नहीं दूँगा – पहले मैं यह जान लूँ कि फूलों के बारे में मालिक का क्‍या मत है? तभी अपना मत देना कुछ 'सेफ' होगा।

10 बजे – एक नए ढंग के जानवर से मुलाकात हो गई। यह 'फट् फट् फट्' आवाज बहुत करता है, नथुनों से धुआँ उगलता मालिक चाहता है तब रुकता है, चाहता है तब सरपट दौड़ता है। बड़ी चमकीली आँख है उसकी। मैंने भरसक उसकी नकल में भूँकने और दौड़ने की कोशिश की – मगर यह किसी विदेश से आया हुआ प्राणी जान पड़ता है। जाने दो, अपने को विदेशियों से क्या पड़ी है? अपने राम तो 'स्‍वदेशी' के पुरस्‍कर्ता हैं – चाहे नाम ही स्‍वदेशी हो और बनाने के यंत्र सब विदेश से आते हों।

11 बजे – भोजन। इस संबंध में इतना ही कहना पर्याप्‍त होगा कि अच्‍छे-अच्‍छे तनखावाले बाबुओं को जो नसीब न होगा, ऐसा उम्‍दा पकवान हमें मिल जाता है। सब भगवान की लीला है। जब वह खाता हूँ तो भूल जाता हूँ कि मेरे गले में कोई पट्टा भी है या मुझे भी कभी मालिक ठोकर मारता है। मुझे स्‍वामी की ठोकर अतिशय प्रिय पुचकार की भाँति जान पड़ती है।

12 बजे से 3 बजे तक – विश्रांति।

3 बजे – सहसा किसी का स्‍वर। निश्‍चय ही वह मालिक की बड़ी लड़की का मुलाकाती, भूरे-भूरे बालोंवाला तरुण है! वह मखमल की पैंट पहनता है, पहले मैंने उसे किसी चितकबरी बिल्‍ली का बदन ही समझा – वह गरीबों की बात बहुत करता है! आज उसने जो चर्चा की उसमें कला का भी बहुत उल्‍लेख था। जान पड़ता है कि शिकारी कुत्ते को जैसे एक खास काम के लिए पाल कर बड़ा किया जाता है; वैसे ही यह कलाकार नाम का प्राणी भी समाज में किसी खास हेतु से बढ़ाया जाता है।

4 बजे – शाम की चाय के वक्‍त बहुत मंडली जुटी थी। घर खास चाय घर बन गया था। आज 'हिंदुत्‍व', हिंदू-सभा, 'हिंदू-वीर', 'हिंदू-दर्शन' आदि विषयों पर बड़ी बहस हुई। कई लोग थे जो इस बारे में उदासीन थे कि वे अपने को हिंदू कहें या अहिंदू। दो-चार नौजवान इस बारे में बहुत 'टची' थे। जैसे कुत्ते की थूथड़ी पर कोई बेंत मारे तो वह तिलमिला उठता है; वैसे ही उनके हिंदुत्‍व पर चोट करने से ऐसा जान पड़ता था कि उनके सतीत्‍व पर चोट हो रही है। मैं जानना चाहता हूँ कि हिंदू क्‍या चीज है? यह किस चिड़िया का नाम है? मेरा पुराना मालिक ईरानी था – और तब भी मैं सुखी था – अब भी हूँ। गुलाम का कोई धर्म नहीं होता – कहते हैं अब यहाँ के आदमी आजाद हो गए हैं – मगर पैसे की गुलामी तो अभी बाकी ही है। जैसे प्रसन्‍न हो कर मेरी जाति के प्राणी अपनी पूँछ हिलाने लगते हैं; वैसे मैंने कई विद्वान, चरित्रवान, निष्‍ठावान, धर्मवान (माने जानेवाले) महानुभावों को पैसे की सत्ता के आगे पिघलते हुए देखा है। हिंदुत्‍व बड़ा है या पूँजीत्‍व?

5 बजे – बाहर फिर घूमने के लिए चला। मालकिन मेमसाहिबा खास कपड़े पहने, ऊँची एड़ी के जूते, रंगीन साड़ी वगैरह के साथ थीं। मेरी भी चेन खास ढंग की थी। यह तभी पहनाई जाती है जब मालकिन किसी उत्‍सव-विशेष या बाइस्‍कोप वगैरह में शामिल होती हैं। आज भी कुछ भीड़ देखने को मिलेगी। मेरी दृष्टि में सभा-समाजों की भीड़ और सिनेमा-थिएटर की भीड़ में खास अंतर नहीं।

6 से 8.30 बजे तक – एक सफेद पर्दे पर हिलती-बोलती तस्‍वीरें देखीं। अरे, तो यह आदमी जो अपने आपको बहुत सभ्‍य समझता है सो कुछ नहीं है। जैसे हम लोगों में प्रेमातुरता होती है, वैसे ही इनके चलचित्रों की नायक-नायिकाएँ दिखाती हैं। कोई खास अंतर लड़ने-भिड़ने में भी नहीं – जैसे दो श्‍वान एक हड्डी के लिए लड़ते हैं, दो मानव एक मानवी के लिए या मत के लिए या पराए देश के लिए। अच्‍छा हुआ मैंने यह दृश्‍य देख लिया, जिसे हजारों मानव चुप बैठे हुए आँखों के सहारे निगल रहे थे। मेरा स्‍वप्‍न भंग हो गया। मानव जाति को मैं बड़ा आदर्श समझता था – परंतु वैसी कोई विशेष बात नहीं।

9 बजे – सोया। क्‍योंकि फिर सवेरे जागना है, वही पूँछ हिलाना है – तब डबलरोटी का टुकड़ा शायद मिले; और ज्‍यादा खुशामद करने पर दूध भी मिल सकता है!

अच्‍छा भु: भु: (मानवों की भाषा में अनुवाद : अच्‍छा तो राम-राम!)

लेखक परिचय
जन्म : 1917, ग्वालियर, मध्य प्रदेश 
निधनः 1991
भाषा : हिंदी, मराठी, अंग्रेजी
विधाएँ : कविता, निबंध, उपन्यास, आलोचना
मुख्य कृतियाँ
कविता संग्रह : स्वप्न भंग,  अनुक्षण, विश्वकर्मा
व्यंग्य संग्रह : खरगोश के सींग, तेल की  पकौड़ियाँ

सम्मान
सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, सुब्रह्मण्यम भारती पुरस्कार, साहित्य वाचस्पति 

साभार- http://www.hindisamay.com/ से 

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