आलिया भट्ट जी की समझ को लेकर इतने memes बने हैं कि अब वे समझदारी दिखा रहीं हैं। अभी कुछ दिन पहले एक विज्ञापन में कैडबरी पर्क खाकर गुरुत्वाकर्षण के नियम तोड़ देने वाली वैवाहिक हाई जंप के बाद उनका एक ताज़ा विज्ञापन आया है जिसे अभिषेक वर्मन ने निदेशित किया है। यहाँ वे पूरे अलंकृत वधू-परिधान में सारी सज धज के साथ कन्यादान की परंपरा के विरुद्ध पूछती हैं कि क्या मैं कोई चीज़ हूँ जिसका दान किया जाये।
मादाम को ग़लतफ़हमी है कि दान सिर्फ़ वस्तु का होता है। या दान देने से कोई व्यक्ति वस्तु हो जाता है। उनके लिये संस्कृत का यह श्लोक क्या अर्थ रखता है कि
दानं वाचः तथा बुद्धेः वित्तस्य विविधस्य च ।
शरीरस्य च कुत्रापि केचिदिच्छन्ति पण्डिताः ॥
वाणी का, बुद्धि का, विविध प्रकार के धन का, और कहीं तो शरीर का भी दान करने पंडित (विद्वान/सत्पुरुष) इच्छा करते हैं (तैयार रहते हैं) । विद्या दान भी क्या किसी वस्तु का दान है? यह परंपरा मानती है कि : अन्नदानं परं दानं विद्यादानमतः परम् ।अन्नेन क्षणिका तृप्ति र्यावज्जीवं च विद्यया ॥ कि अन्न दान परम दान है, अतः विद्या दान उससे भी बड़ा है क्योंकि अन्न से क्षण भर की तृप्ति होती है और विद्या से आजीवन ॥
ज्ञानदान को क्या कहेंगे? कि दान दिये जाने से ज्ञान का reification हो गया? अभयदान किया तो अभय मन की एक निश्चिंतावस्था न हुई, चीज़ हो गई? जैनियों में जो दयादत्ति चलती है, वह भी कोई वस्तु हो गई? या उनके राजवार्तिक में दानांतरायकर्म के अत्यंत क्षय से अनंत प्राणियों के समुदाय का उपकार करने वाला क्षायिक अभयदान होता है, वह भी चीज़ ही है? जो परंपरा मानती है कि बिना दान किये हुए जो भोजन करता है वह विष खाता है- अदत्त्वा विषमश्नुते, उसकी दान-परंपरा को भी यह विज्ञापन लांछित करता है। ऐसे कि जैसे दान देना कोई घटिया क़िस्म का काम हो। उन लोगों की नज़रों में होगा ही जो संग्रह से ही लोगों का मान करते हैं। जो उद्योग acquisitive nature के लिए ही समर्पित है, वह दान का मान क्या करेगा। जैसे कैडबरी पर्क फ़िज़िक्स के नियम तोड़ देती है, वैसे ही ये दान की धारणा को तोड़ देंगे।
कभी तुलसीदास को इन्होंने सुना :
प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान।
जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान॥१०३ ख॥
कि धर्म के चार चरण (सत्य, दया, तप और दान) प्रसिद्ध हैं, जिनमें से कलि में एक (दान रूपी) चरण ही प्रधान है। जिस किसी प्रकार से भी दिए जाने पर दान कल्याण ही करता है।दाता बड़ा होता है या ग्रहीता? दधीचि बड़े थे कि देवता? ये दाता को पूज्य मानने की बात क्यों याद नहीं आती?इहामुत्र च दानेन पूज्यो भवति मानवः ॥ दान की इस गरिमा के ख़िलाफ़ क्यों हैं भाईलोग? वह लूट नहीं है, वह भीख नहीं है।
और दान क्या ग्रहिता की पात्रता नहीं देखता- ऐसे ही एंवई दे देंगे अपनी बेटी किसी को—तब दधीचि ने मधुविद्या इंद्र को क्यों न दी, अश्विनी कुमारों को क्यों दी? शास्त्र कहते हैं: सुक्षेत्रे वापयेद्बीजं सुपात्रे निक्षिपेत् धनम् ।सुक्षेत्रे च सुपात्रे च ह्युप्तं दत्तं न नश्यति ॥अच्छे खेत में बीज बोना चाहिए, सुपात्र को धन देना चाहिए । अच्छे खेत में बोया हुआ और सुपात्र को दिया हुआ, कभी नष्ट नहीं होता । संयुत्त निकाय कहता है- मच्छेरा च पमादा च, एवं दानं न दीयति। यानी मात्सर्य और प्रमाद से दान नहीं देना चाहिए।
काश आलिया जी विज्ञापन में यह कहतीं कि दान का अर्थ एक जिम्मेदारी है और अपात्र के हाथ में बेटी देना प्रमाद है।
याद करें वह प्रचलित श्लोक : अपात्रेभ्यः तु दत्तानि दानानि सुबहून्यपि ।
वृथा भवन्ति राजेन्द्र भस्मन्याज्याहुति र्यथा ॥
हे राजेन्द्र ! जैसे (यज्ञकुंड में बची) भस्म पर घी की आहुति देना निरर्थक है, वैसे ही अपात्र को दिया हुआ बहुत सारा दान व्यर्थ है ।
वस्तु की बिक्री के लिए विज्ञापन करने वालों को तो ये बात शोभा नहीं देती। इतनी सजधज, इतनी लदी फदी होने के बाद —इतनी कि जो ग़रीब कन्याओं के भीतर आत्महीनता पैदा कर दे—ये वस्तुवाद का विरोध करेंगी? इतने गहने पहनकर। तब सगाई की अंगूठी भी वर-वधू के प्यार का वस्तुकरण कैसे न हुआ?मान्यवर, भारतीय विवाह परंपरा को लांछित करने की मिठास तो देखिये। of all the places यह उस विज्ञापन उद्योग से आ रही है जो स्वयं नारी के सबसे घटिया कमोडिटाइजेशन के लिये ज़िम्मेदार है, कि कन्यामान जहां सबसे कम है। ‘तू चीज़ बड़ी है मस्त मस्त’ का महान संदेश प्रसारित करने वाले वस्तुकरण की चिंता का पाखंड क्यों रचते हैं?
और क्या हम गारो या खासी आदि जनजातियों की इस बात के लिए आलोचना करेंगे कि वहाँ इसका होता उल्टा है?
(लेखक मध्य प्रदेश के सेवा निवृत्त आईएएस अधिकारी हैं और विभिन्न विषयों पर कई पुस्तकें लिख चुके हैं)