इंदौर के देवी अहिल्या विश्वविद्यालय के भाषा प्रौद्योगिकी इंजीनियरिंग के प्रथम वर्ष के छात्र शुभम मालवीय को अंग्रेज़ी की अनिवार्यता के कारण और उस भाषा में अच्छी गति न आ पाने के कारण अत्महत्या की है, उसपर श्री निर्मल कुमार पाटोदी ने दु:खी हो कर बहुत ही संवेदनात्मक और मार्मिक टिप्पणी लिखी है। शुभम ने अपनी स्कूली शिक्षा हिन्दी माध्यम से प्राप्त की थी। वास्तव में यह विडंबना ही है कि हमारे देश में जितनी भाषाएँ बोली जाती हैं, उतनी दूसरे देशों में नहीं बोली जातीं। ये भारतीय भाषाएँ पूर्णतया समृद्ध हैं, लेकिन अपने देश में ही उन्हें अपमान सहना पड़ रहा है मानो वे किसी पराए देश या विदेश में हों। हमें भी यही लगता है कि हम विदेश या किसी अन्य देश में है जहाँ अपनी भाषा का प्रयोग करना अपराध है। हम स्वधहेन तो हो गए लेकिन मानसिक प्रराधीनता अभी भी देश में व्याप्त है। भारतीय भाषाओं की ऐसी स्थिति बना रखी है मानो वे अंग्रेज़ी की अनुचरी हों और वे बेचारी, मूक और विवश हो कर अंग्रेज़ी के पीछे-पीछे चल रही हैं।
मध्यम-आय वर्ग और निम्न-आय वर्ग के प्रतिभाशाली बच्चों को विवश हो कर अंग्रेज़ी में शिक्षा ग्रहण करनी पड़ती है जबकि अपनी भाषा में हर विषय के अध्ययन में उनकी निखरती हुई प्रतिभा का पता चलता है। माता-पिता और अभिभावक भी विवश हो कर अपने बच्चों को अंग्रेज़ी स्कूलों में भेजते है ताकि भविष्य में बच्चे को अच्छा रोजगार मिल सके, क्योंकि अपनी भाषाओं में अच्छे रोजगार की संभावना बिलकुल नहीं है। अच्छी नौकरी और रोजगार, समाज में उच्च स्तर पाने के लिए अंग्रेज़ी का ज्ञान होना अनिवार्य हो गया है। यही है भारतीय भाषाओं की त्रासदी कि आज़ादी के 70 साल बीतने के बाद भी हमने अपनी समृद्ध भाषाओं को लकवाग्रस्त कर दिया है कि वे आधुनिक संदर्भ में रोजगार और उच्च स्तर की भाषा नहीं बना पा रहे हैं, जबकि इनमें पूरी क्षमता और योग्यता है। अंग्रेज़ी से कम आँकने पर विज्ञान, चिकित्सा, इंजीनियरिंग के क्षेत्रों में हिन्दी जैसी अन्य भारतीयों भाषाओं के साथ अन्याय और अत्याचार हो रहा है। हम यह नहीं समझ पा रहे की अंग्रेज़ी की अनिवार्यता के कारण बच्चों को अधकचरा ज्ञान मिल पाता है, क्योंकि अंग्रेज़ी से वे अपनी प्रतिभा को निखार नहीं पाते। वास्तव में अंग्रेज़ी से प्रगति और उन्नति के रास्ते ढूँढना बौद्धिक दृष्टि से एक मृग-मरीचिका में जीना हैं।
अपनी भाषाएँ हमारे समाज, संस्कृति, परंपरा और अतीत को उद्घाटित करती हैं। इनमें हमारा निजीपन निहित रहता है,जिन्हें अंग्रेज़ी के कारण अवरुद्ध किया जा रहा है। सरकार अगर अपनी शिक्षा नीति में रोजगार और भौतिक सुविधाओं देने का संरक्षण देती है तो भारतीय जन-मानस अपनी भारतीय भाषाओं को अवश्य अपनाए गा और अंग्रेज़ी के कारण हमारे होनहार बच्चों को आत्महत्या करने के लिए मजबूर नहीं होना पड़े गा। ।
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साभार-
वैश्विक हिंदी सम्मेलन मुंबई