Saturday, November 23, 2024
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धारा 370 जम्मू कश्मीर के लोगों के लिए सबसे बड़ा धोखा हैः श्री दुबे

धारा 370 का नाम सुनते ही देश भर में तथाकथित राष्ट्रवादियों की राष्ट्रीय भावनाएँ हिलोंरे लेने लगती है लेकिन इस धारा के बारे में किसी को कुछ पता नहीं, हाँ इसके नाम से सब अपनी राजनीतिक रोटियाँ जरुर सेंकने लग जाते हैं।
 
सर्वोच्च न्यायालय के जाने माने वकील और धारा 370 के विभिन्न प्रावधानों और इससे उपजी स्थितियों पर विगत कई वर्षों से शोध व अध्ययन कर रहे श्री दिलीप दुबे ने मुंबई में जम्मू कश्मीर स्टडी सेंटर द्वारा आयोजित एक सेमिनार में कई कानूनी तथ्य प्रस्तुत करते हुए बताया कि किस तरह धारा 370 जम्मू कश्मीर के लोगों के लिए नुक्सानदेह साबित हो रही है।
 
उन्होंने कहा कि देश में विगत 65 सालों से इसी एक शब्द पर राजनीति की जा रही है लेकिन इसके तथ्यों और उसके परिणामों के बारे में किसी को कुछ पता नहीं।
 
अपने वक्तव्य की शुरुआत करते हुए श्री दुबे ने कहा कि हम धारा 370 की शुरुआत करते हैं भारत के विबाजन के दौरान देश भर की रियासतों के बारत में विलय होने से करते हैं।
सबसे बड़ा सवाल है क्या जम्मू कश्मीर का विलय भारत में हुआ था, तो इसका जवाब है हाँ।
 
दूसरा सवाल है क्या धारा 370 जम्मू कश्मीर के लिए कोई विशेष धारा है, तो इसका जवाब है बिल्कुल नहीं।
 
तीसरा सवाल, क्या संयुक्त राष्ट्र संघ में जम्मू कश्मीर को लेकर कोई मुद्दा लंबित है, तो जवाब है नहीं।
 
अपनी चर्चा को विस्तार देते हुए उन्होंने बताया कि 1947 में आज़ादी के पहले भारत ब्रिटिश इंडिया कहलाता था। ब्रिटिशन इंडिया पर अंगरेजों का आधिपत्य था। देश में 550 रियासतें थी। अंग्रजी राज में बारत में दो तरह की शासन व्यवस्था थी। एक तो भारत को वो हिस्सा जिसे सीधे इंग्लैंड से संचालित होता था. और दूसरा वो जो रियासतों के अधीन था। ब्रिटिश इंडिया में 29 रियासतें इंग्लैंड के अधीन थी। 25 जुलाई 1947 को माउंटबैटन ने देश भर के सभी राजाओं को एक साथ बुलाकर इस मुद्दे पर बात की कि भारत के विभाजन के बाद रियासतों का विलय किस प्रकार होगा। इस समय सबकी सहमति से ये तय किया गया कि सबी रियासतों का पाकिस्तान या भारत में विलय होना है, लेकिन ये विलय होगा कैसे? सके लिए सर्वानुमति से एकविलय पत्र बनाया गया जिस पर सभी रियासतों के राजाओं को हस्ताक्षर करके सौंपना था। 27 अक्टूबर 1947 को माउंटबैटन ने सभी रियासतों के विलय पत्र स्वीकार कर लिए। इस विलय पत्र में ये शर्त थी कि जे रियासत भौगोलिक रूप से जिस देश की सीमा से मिलती है उसे उसी देश में विलय करना होगा।
 
अब समें जम्मू कश्मीर का मुद्दा आया कैसे? जम्मू कश्मीर की सीमा पाकिस्तान और भारत दोनों से मिलती थी। लेकिन इसकी भौगोलिक स्थिति ऐसी थी कि जम्मू कश्मीर को रसद आदि पाकिस्तान के हिस्से वाले क्षेत्र से मिलता था। ऐसे में उस समय जम्मू कश्मीर के महाराजा ने पाकिस्तान से संधि की कि उनकी रियासत इस मामले में तटस्थ रहेगी और पाकिस्तान के साथ रसद सामग्री के लिए एक अनुबंध किया। जबकि जम्मू कश्मीर रियासत का विलय भारत में हो चुका था। विलय के साथ ही जम्मू कश्मीर बारत का एक अभिन्न अंग व भारतीय राज्य बन गया। उन्होंने बताया कि अंतर्राष्ट्रीय विलय कानूनों के अनुसार एक बार किसी राष्ट्र का किसी दूसरे राष्ट्र में विलय हो जाता है तो वह पूरी तरह से विलीन होने वाले राष्ट्र का अंग हो जाता है, इसके पूर्व उस राज्य या राष्ट्र पर जो बी देनदारियाँ, जिम्मेदारियाँ, ञण आदि होतें हैं वे सून्य हो जाते हैं।
 
लेकिन जम्मू कश्मीर को लेकर विवाद की स्थिति इसलिए पैदा हुई कि जब पाकिस्तान ने भारत पर हमला किया तो भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् में शिकायत करते हुए कहा कि पाकिस्तान भारत की सीमा में अवैध रूप से घुस रहा है इसे रोका जाए। सुरक्षा परिषद ने पाकिस्तान को इस मामले में तलब किया तो तो पाकिस्तान ने आरोप लगाया कि जम्मू कश्मीर में भारत का विलय गलत हुआ है, तो सुरक्षा परिषद ने साफ कहा कि विलय को चुनौती नहीं दी जा सकती। इसके बाद संयुक्त राष्ट्र संघ ने यूनाईडेट नेशंस कमिशन फॉर इंडिया ऐंड पाकिस्तान (यूएनपीआईसी) का गठन किया। इसका काम ये देखना था कि दोनों देशों के विवाद की असली स्थिति क्या है। तब यूएनपीआईसी के सदस्यों ने खुद विवाद की जगह जाकर प्रत्यक्ष निरीक्षण कर पाकिस्तान को निर्देश दिया कि वो भारत की जमीन से तत्काल अपनी सेनाएँ हटाए। तो पाकिस्तान ने कहा कि ये उसकी सेना नहीं बल्कि क्षेत्र के कबीले के लोगों ने भारत की सीमा पर अपना कब्जा किया है क्योंकि ये जमीन उनकी है। लेकिन पाकिस्तान का ये झूठ ज्यादा नहीं चला और से बारत की जमीन छोड़ने का आदेश दिया गया।
 
इसके बाद भारत ने यूएनसीआईपी को 5 पत्र लिखे और साफ कहा कि जम्मू कश्मीर का प्रशासन, सरकार, पौज, से लेकर  चुनाव का काम भारत सरकार द्वारा ही किया जाएगा। इसके बाद जम्मू कश्मीर राज्य के चुनाव हुए औक जम्मू कश्मीर विधान सभा ने जम्मू कश्मीर के भारत में विलय को स्वीकार करते हुए प्रस्ताव पारित किया। इसके पहले 25 नवंबर 1949 में युवराज कर्णसिंह ने बारत के सविंधान को जम्मू कश्मीर में लागू करने का आदेश जारी कर दिया था। इसमें साफ कहा गया था कि जम्मू कश्मीर में किसी भी विवाद की स्थिति में भारत का संविधान ही सर्वोपरि होगा।
 
श्री दुबे ने कहा कि मुद्दा ये है कि धारा 370 को लेकर इतना बवाल क्यों मचा हुआ है। उन्होंने बताया कि जम्मू कश्मीर के साथ ही देश के 15 राज्यों में धारा 370 के 25 चैप्टर अस्ताई रूप से लागू किए गए थे,  ये कई राज्यों में वहाँ के मूल निवासियों से लेकर आदिवासी समुदाय को संरक्षण प्रदान करने के लिए लागू की गई थी। धारा 370 नागालैंड में भी लागू की गई थी, लेकिन वहाँ की स्थितियों को देखते हुए 1962 में इसके साथ विशेष शब्द जोड़ा गय़ा। 15 राज्यों में धारा 370 की 15 धाराएँ आज भी लागू है। जम्मू कश्मीर के लिए जब धारा 370 लागू की गई थी तो इसके साथ अस्थाई शब्द जोड़ा गया था क्योंकि ये तब विशेष परिस्थितियों को देखते हुए लागू की गई थी। साथ ही धारा 370 को हटाने की प्रक्रिया भी लिखी गई थी जिसमें कहा गया था कि भारत के राष्ट्रपति जब चाहे इसमें संशोधन कर इसे खत्म कर सकते हैं। राष्ट्रपति जब इस धारा को निष्प्रभावी करेंगे तो वे जम्मू कश्मीर की विधान सभा से सहमति ले सकते हैं। लेकिन संसद सर्वोच्च है और वह इस धारा को कबी भी निरस्त कर सकती है।
 
 
चर्चा को रोचक बनाते हुए उन्होंने बताया कि भारतीय संविधान की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसमें संपूर्ण शक्तियाँ किसी भी एक व्यक्ति या संस्था को नहीं दी गई है। अगर संसद कोई गलत कानून बना देती है तो सर्वोच्च न्यायालय उसकी समीक्षा कर सकता है। अगर सर्वोच्च न्यायालय का कोई जज गलत फैसला देता है तो संविधान पीठ उसकी समीक्षा कर सकती है। और अगर इसके बाद भी कोई गलत बात रह जाती है तो राष्ट्रपति उस फैसले को बदल सकता है।
 
 
अपने धाराप्रवाह वक्तव्य में श्री दुबे ने कहा कि भारतीय संविधान की धारा 368 सबसे शक्तिशाली धारा है जिसमें किसी भी धारा को परिवर्तन करने का अधिकार संसद को है।
 
धारा 368 के 91 एफ को 1970 में हटा दिया गया जिसमें कहा गया था कि कोई भी आदेश जो नागरिकों के बुनियादी अधिकारों के खिलाफ होगा उसे शून्य माना जाएगा। केशवानंद भारती मामले में सर्वोच्च न्यायालय की 13 जजों की पीठ ने अपने निर्णय में साफ किया था कि संसद भी चाहे तो संविधान के बुनियादी सिध्दांतों को नहीं हटा सकती।
 
धारा 370 पर संसद में 17 अक्टूबर 1949 को विस्तार से चर्चा हुई।
 
 देश में संविधान बनने की प्रक्रिया 9 दिसंबर 1946 को शुरू  हुई थी जबकि जम्मू कश्मीर का भारत में विलय 26 अक्टूबर 1947 को हुआ था। संसद में 26 अक्टूबर 1947 के बाद 1949 तक  धारा 370 को लेकर कोई चर्चा नहीं हुई।
 
17 अक्टूबर 1949 को संसद में जब संसद में इसको लेकर बहस हो रही थी तो सदस्यं का कहना था कि जम्मू कश्मीर की स्थिति सामान्य होने में समय लगेगा क्योंकि तब पाकिस्तान ने भारत पर हमला किया था और भारत का 1.25 लाख किलोमीटर हिस्सा पाकिस्तान के पास था, जिसे वापस लेना था। जम्मू कश्मीर की जनता में भय और असुरक्षा का माहौल है जिसे सामान्य होने में समय लगेगा। दूसरी ओर सुरक्षा परिषद की ओर से भी भारत को अपने पत्र के जवाब का इंतजार था। संसद में धारा 370 पर हो रही इस चर्चा में जम्मू कश्मीर के चार सासंद भी शामिल थे।
 
श्री दुबे ने कहा कि धारा विवाद 370 से नहे बल्कि इसकी आड़ में त्तकालीन शासकों द्वारा किए गी सवैधानिक जालसाजी से ये धारा 370 विवाद का विषय बन गई है। दुनिया के लोकतंत्र के इतिहास में आज तक किसी भी सरकार ने संवैधानिक रूप से ऐसी जालसाजी नहीं की जैसी धारा 370 को लेकर जम्मू कश्मीर के साथ की गई।
 
उन्होंने बताया कि तत्कालीन राष्ट्रपति ने जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को संविधान में आर्टिकल 35 (ए) के जरिए लागू किया गया था। 1954 में अनुच्छेद 370 में किए गए संशोधन 35 (ए) के तहत बगैर संसद की जानकारी के राष्ट्रपति ने सीधे जम्मू कश्मीर को कुछ विशेष अधिकार दे दिये।
 
1965 तक जम्मू और कश्मीर में राज्यपाल की जगह सदर-ए-रियासत और मुख्यमंत्री की जगह प्रधानमंत्री हुआ करता था। इसी अनुच्छेद 370 की वजह से ही जम्मू-कश्मीर का अपना अलग झंडा और प्रतीक चिन्ह भी है।
धारा 370 के जरिए कश्मीर को मिलीं रियायतें जम्मू-कश्मीर में केंद्र के कानून लागू नहीं होते
धारा 370 के तहत भारत के सभी राज्यों में लागू होने वाले कानून इस राज्य में लागू नहीं होते हैं। भारत सरकार यहां केवल रक्षा, विदेश नीति, वित्त और संचार जैसे मामलों में ही दखल दे सकती है। इसके अलावा किसी और विषय पर केंद्र सरकार कोई कानून नहीं बना सकती। कानून बनाने से पहले भारत सरकार को राज्य की अनुमति लेनी होती है।
 
इसी विशेष दर्जे के कारण जम्मू और कश्मीर राज्य पर संविधान की अनुच्छेद 356 लागू नहीं होती। सरकार ने 1975 मे एक विचित्र आदेश जारी कर चुनाव क्षेत्रों के परिसीमन का 1972 का अपना ही आदेश रद्द कर दिया।
 
श्री दुबे ने कहा कि 1972 में बना परिसीमन कानून जम्मू कश्मीर लागू था लेकिन भारत सरकार ने 2002 में एक आदेश जारी कर नया परिसीमन नियम जारी किया जिसमें कहा गया की जम्मू कश्मीर को छोड़कर। भारत सरकार की इस नासमझी की वजह से जम्मू कश्मीर में विचित्र स्थिति है। जम्मू कश्मीर के 16 हजार किलोमीटर के कश्मीर वाले हिस्से में जिसमें मुस्लिम आबादी ज्यादा है वहाँ विधान सबा की 47 सीटें हैं जबकि जम्मू और लद्दाख का 85 हजार किलोमीटर क्षेत्र जहाँ गैर मुस्लिम आबादी ज्यादा है वहाँ मात्र 41 सीटें हैं। जम्मू कश्मीर विधान सभा की 24 सीटें खाली रखी गई है ये सीटें पाकिस्तान द्वारा कब्जाए गए जम्मू कश्मीर के हिस्से की है।
 
 
 
श्री दुबे ने बताया कि 1976 का शहरी भूमि कानून जम्मू और कश्मीर पर लागू नहीं होता। इसके तहत भारतीय नागरिक को विशेष अधिकार प्राप्त राज्यों के अलावा भारत में कहीं भी भूमि खरीदने का अधिकार है। यानी भारत के दूसरे राज्यों के लोग जम्मू और कश्मीर में जमीन नहीं खरीद सकते हैं।

भारतीय संविधान की अनुच्छेद 360 जिसमें देश में वित्तीय आपातकाल लगाने का प्रावधान है, वह भी जम्मू और कश्मीर पर लागू नहीं होती। राज्य के अधिकार में आते हैं मौलिक अधिकार  राज्य की नागरिकता, प्रॉपर्टी का मालिकाना हक जैसे अन्य सभी मौलिक अधिकार राज्य के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। दूसरे राज्य का भारतीय नागरिक जम्मू-कश्मीर में जमीन या प्रॉपर्टी नहीं खरीद सकता है। जम्मू-कश्मीर के नागरिकों को दोहरी नागरिकता होती है जो जम्मू-कश्मीर और भारत की होती है। यहां भारत के किसी दूसरे राज्य के नागरिक सरकारी नौकरी हासिल नहीं कर सकते। अलग है जम्मू-कश्मीर का संविधान यहां का संविधान भारत के संविधान से अलग है।

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