Saturday, November 23, 2024
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आर्यसमाज और भारतीय शिक्षा पद्धति 

लाला लाजपतराय ने अपनी पुस्तक ‘ दुःखी भारत ‘ ( Unhappy India ) में यह बताया है कि अंग्रेजों के भारत में आगमन से पूर्व भारत में एक व्यवस्थित शिक्षा प्रणाली प्रचलित थी । गांव – गांव में पाठशालायें स्थापित थीं जिनमें छात्र व्यवस्थित रूप से विभिन्न विद्याओं और शास्त्रों का अभ्यास करते थे । कालान्तर में विदेशी शासन स्थापित होने पर शिक्षा की व्यवस्था में कुछ ऐसे परिर्वतन किये गये जिनके कारण इस देश के लोग अपनी अस्मिता को भूलने लगे और उनमें विदेशी संस्कार बद्धमूल होते गये । ईसाई प्रचारकों ने भी शिक्षा में हाथ बटाया , परन्तु उनका प्रयोजन स्पष्ट ही अपने धर्म का प्रचार करना था । उनके द्वारा कहा गया कि इस शिक्षा के द्वारा उन लोगों को सच्चे ईश्वर तथा ईसा मसीह का वास्तविक ज्ञान प्राप्त कराया जायेगा जो मूर्तियों की घृणास्पद पूजा में लगे हुये हैं ।

भारत की शिक्षा नीति को पाश्चात्य सांचे के अनुसार ढालने का प्रयास अंग्रेज शासकों ने किया ही ब्रह्मसमाज के प्रवर्तक राजा राम मोहनराय ने भी लार्ड मैकाले के स्वर में स्वर मिलाकर अंग्रेजी शिक्षा पद्धति का ही गौरव गान किया । लार्ड एम हर्स्ट को लिखे गये अपने पत्र में उन्होंने संस्कृत के अध्ययन को क्लिस्ट बताते हुए लिखा – ” संस्कृत भाषा इतनी क्लिष्ट है कि उसे सीखने में लगभग सारा जीवन लगाना पड़ता है । ज्ञान वृद्धि के मार्ग में यह शिक्षा कई युगों से बाधक सिद्ध हो रही है । इसे सीखने पर जो लाभ होता है , वह इसको सीखने में किये गये परिश्रम की तुलना में नगण्य है । संस्कृत व्याकरण , वेदान्त , मीमांसा , न्याय आदि विषयों के शास्त्रीय अध्ययन की निरर्थकता तथा निस्सारता का प्रतिपादन करते हुए अन्त में उपसंहार रूप में लिखा गया है — ” यह संस्कृत शिक्षा प्रणाली देश को अन्धकार में गिरा देगी । क्या ब्रिटिश शासन की यही नीति है ? ” 
संस्कृत शिक्षा और स्वामी दयानन्द – 

जिस समय में राजा राममोहनराय ने अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली के प्रचलन का हार्दिक समर्थन किया । नवजागरण के उसी युग में नवोदय के एक अन्य सूत्रधार स्वामी दयानन्द ने शिक्षा के विषय में अपना मौलिक चिंतन प्रस्तुत किया तथा देश की परम्परागत शिक्षा प्रणाली के पुनरुद्धार का अभूतपूर्व प्रयास किया । शिक्षा शास्त्री के रूप में स्वामी दयानन्द ने शिक्षा विषयक जो सूत्र अपने लेखों , ग्रन्थों तथा वक्तृताओं में दिये हैं , उनका संकलन और आंकलन किया जाना आवश्यक है । अपने प्रमुख ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश के द्वितीय और तृतीय समुल्लास में उन्होंने इस विषय को उठाया है । ‘ अथ शिक्षा प्रवक्ष्यामः ‘ इस सूत्र के साथ द्वितीय समुल्लास का प्रारम्भ होता है तथा ‘ अथाऽध्ययनाऽध्ययनविधि व्याख्यास्याम ‘ के साथ तृतीय समुल्लास की रचना आरम्भ होती है । दोनों अध्यायों में शिक्षा विषयक भारत की शास्त्रीय आर्य परिपाटी का विस्तृत विवेचन करते हुए स्वामी दयानन्द ने ब्रह्मचर्य आश्रम , स्वाध्याय और प्रवचन , अध्ययन समाप्ति के पश्चात् दीक्षान्त अनुशासन , संस्कृत के शास्त्रीय वाङ्मय का अध्ययन क्रम और पाठविधि , त्याज्य और ग्राह्य पाठ्य पुस्तकें , स्त्रियों और शूद्रों का शास्त्राध्ययन अधिकार , स्त्री शिक्षा जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों का सांगोपांग वर्णन किया है । 

संस्कृत के पठन – पाठन के लिए स्वामी दयानन्द ने एक विशिष्ट क्रम निर्धारित किया था । इसका उल्लेख सत्यार्थप्रकाश के अतिरिक्त ऋग्वेदा दिभाष्य भूमिका के पठन – पाठन विषय तथा संस्कार विधि के वेदारम्भ संस्कार के अन्तर्गत किया है । पठन – पाठन प्रणाली का यह विस्तृत निर्देश यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि स्वामी दयानन्द संस्कृत शिक्षा प्रणाली के मर्मज्ञ थे तथा वे उसमें क्रान्तिकारी परिवर्तन करना चाहते थे । 

अपनी इस पाठविधि का क्रियान्वयन करने के लिए स्वामी जी ने स्वयं उत्तरप्रदेश के कई नगरों में संस्कृत पाठशालाओं की स्थापना की । धनी वर्ग के लोगों को उन्होंने पाठशाला संस्थापन के पवित्र कार्य में आर्थिक सहायता देने के लिए प्रेरित किया । इन पाठशालाओं प्राचीन गुरुकुल प्रणाली के अनुरूप ही रक्खा गया जिसके अनुसार छात्र और अध्यापक एक दूसरे के निकट सम्पर्क में रहकर चरित्र निर्माण के साथ – साथ शास्त्राध्ययन में प्रवृत्त हो सकें । स्वामी जी ने ये पाठशालायें कासगंज , फर्रुखाबाद , मिर्जापुर , छलेसर , काशी श्रादि स्थानों में स्थापित कीं । योग्य अध्यापकों के अभाव तथा आर्ष ग्रन्थों के पठन – पाठन में छात्रों द्वारा विशेष अभिरुचि व्यक्त न किये जाने के कारण स्वामी जी को अपने जीवनकाल में ही इन पाठशालाओं को बन्द कर देना पड़ा था । तथापि यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि संस्कृत के उद्धार हेतु स्वामी जी का पाठशाला संस्थापन का कार्य वस्तुतः श्लाघनीय था | इन पाठ शालाओं में ही आर्यसमाज द्वारा कालान्तर में स्थापित गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के बीज छिपे थे जिसने भारतीय शिक्षा क्षेत्र में युगान्तरकारी परिवर्तन उपस्थित किया । 

स्वामी दयानन्द ने संस्कृत शिक्षा प्रणाली को सुगम बनाने के लिए ‘ पठन – पाठन व्यवस्था ‘ के अन्तर्गत कतिपय पाठ्य – ग्रन्थ भी लिखे । ऐसे ग्रन्थों में संस्कृत वाक्य प्रबोध , व्यवहारभानु तथा वेदांगप्रकाश के चौदह भाग उल्लेखनीय हैं । संस्कृत वाक्य प्रबोध की रचना छात्रों में संस्कृत सम्भाषण में रुचि उत्पन्न करना तथा उनमें दैनन्दिन विषयों पर संस्कृत के माध्यम से सुगमरीत्या वार्तालाप करने की क्षमता उत्पन्न करने हेतु की । ‘ व्यवहारभानु ‘ छात्रों और अध्यापकों की आचार संहिता है जिसमें गुरु शिष्य सम्बन्ध का विवेचन एवं उनके प्रचार व्यवहार तथा नीति रीति विषयक स्वर्णिम सूत्रों का गुंफन हुआ है । वेदांगप्रकाश पाणिनीय व्याकरण के विविध अंगों को सुगम रूप से सीखने का अद्भुत ग्रन्थ है ।

स्वामी दयानन्द केवल पुस्तकीय ज्ञान के ही पक्षपाती नहीं थे । उनकी दृढ़धारणा थी कि जब तक देश के नवयुवकों को उद्योग , कला कौशल तथा तकनीकी व्यवसायों की शिक्षा नहीं दी जायेगी , तब तक देश आर्थिक दृष्टि से समृद्ध नहीं होगा । इसी दृष्टि से उन्होंने कुछ युवकों को जर्मनी भेजने की योजना की थी , ताकि वहां रहकर वे औद्योगिक प्रशिक्षण प्राप्त कर सकें तथा देश की सम्पन्नता में अपना योगदान कर सकें । 
स्वामी दयानन्द के शिक्षा – सिद्धान्त

संक्षेप में स्वामी दयानन्द के शिक्षा विषयक सूत्रों को इस प्रकार निबद्ध किया जा सकता— 
१. विद्यार्थी का मुख्य प्रयोजन शास्त्राभ्यास के साथ – साथ चरित्र निर्माण करना है । चरित्र निर्माण की शिक्षा गुरुकुल शिक्षा प्रणाली में ही सम्भव है अतः प्राचीन पद्धति में गुरुकुलों की स्थापना आवश्यक है । 
२- पाठ्य ग्रन्थों में उन्हीं पुस्तकों का समावेश होना चाहिए , जो साक्षात् कृतधर्मा मन्त्रद्रष्टा ऋषियों की कृतियां हैं । अनार्ष ग्रन्थों का पठन पाठन क्रम में समावेश नहीं होना चाहिए । 
३- ईश्वरीय ज्ञान वेद तथा संस्कृत शास्त्रों की शिक्षा को सर्वोपरि प्राथमिकता दी जानी चाहिए ।
४- शास्त्रों के साथ – साथ प्राविधिक कला – कौशल की शिक्षा भी जीवन यापन की दृष्टि से आवश्यक है । 
५- शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो । भारत की राष्ट्रभाषा आर्यभाषा ( हिन्दी ) ही देश की शिक्षा का सार्वदेशिक माध्यम होना चाहिए । 
६- बालक और बालिकाओं का सहशिक्षण चरित्रविघातक फलतः हानिकर है । 
७- कन्याओं की शिक्षा भी उतनी ही आवश्यक है जितनी बालकों की । 
८- शिक्षा के क्षेत्र में राजा और रंक , गरीब और अमीर का भेदभाव अवांछनीय है । प्रत्येक छात्र को अपनी योग्यता के अनुसार शिक्षा प्राप्त करने का समान रूप से अधिकार मिलना चाहिए । 
६- अवसर और अनुकूलता होने पर विदेशी भाषायें भी सीखना वांछनीय है । 
१०- शिक्षा के द्वारा स्वाभिमान , स्वदेश प्रेम , ईश्वरभक्ति तथा स्वावलम्बन जैसे गुणों का विकास किया जाना अपेक्षित है । 
स्वामी जी के दिवंगत होने के पश्चात् उनके स्थानापन्न आर्यसमाज ने अपने शिक्षा विषयक कार्यक्रम को इसी आधार पर मूर्तरूप दिया ।

स्त्रोत – सुधारक (गुरुकुल झज्जर का मासिक पत्र) जुलाई 1976
प्रस्तुतकर्ता – अमित सिवाहा 

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