Tuesday, June 25, 2024
spot_img
Homeअध्यात्म गंगाअयोध्या का रौनाही सनातन और जैनियों का पूज्य स्थान है, जहां रावण...

अयोध्या का रौनाही सनातन और जैनियों का पूज्य स्थान है, जहां रावण ने अयोध्या के राजा अनरण्य को मारा था

अवस्थिति : अयोध्या के 84 कोसी परिक्रमा सीमा में:-

रौनाही गांव(कस्बा) उत्तर प्रदेश के अयोध्या जिले की सोहावल तहसील में स्थित एक बड़ा गाँव है, जिसमें वर्तमान समय में कुल 1436 परिवार रहते हैं। यह जिला मुख्यालय से पश्चिम की ओर 20 किमी , अयोध्या धाम से 24 किमी. , सोहावल से 4 किमी और राज्य की राजधानी लखनऊ से 119 किमी दूर स्थित है। यह सनातन हिंदू धर्म के भगवान श्री राम के पूर्वज राजा अनरण्य , राजा रघु , राजा दशरथ मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम और जैन धर्म के 15वे तीरथंकर भगवान धर्मनाथ से किन्ही ना किन्ही रूपों में जुड़ा तीर्थ स्थल है जो वर्तमान समय में प्रचार प्रसार न होने के कारण आम जन मानस की नजरों में ओझल हो चुका है। इसे लोगों की जानकारी में लाने के लिए ये रिसर्च जानकारी साझा करने का प्रयास कर रहा हूं।

जैन धर्म के तीर्थंकर और कल्याणकों का रतनपुरी केंद्र:-
सरयू नदी के तट पर बसा रौनाही गांव जैन धर्म के लोगों की आस्था का केंद्र है। श्वेतांबर व दिगंबर दोनों समुदायों के 15वें तीर्थंकर धर्मनाथ प्रभु स्वम और उनके चार कल्याणक च्यवन, जन्म, दीक्षा व केवल ज्ञान यहीं पर संपन्न हुए थे। गांव में विशालकाय श्वेतांबर जैन मंदिर में राजा संप्रति के काल की 25 सौ वर्ष पुरानी प्रतिमा मौजूद है। यहां श्री धर्मनाथ दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र, रतनपुरी , पो0 रोनाही, जिला- अयोध्या,उ.प्र.में आज भी देखा जा सकता है। यह पौराणिक रतनपुर रोनाही थाना से 3 किमी. अन्दर ग्राम रतनपुरी में स्थित है। यह क्षेत्र लखनऊ फैजाबाद रेल मार्ग सोहावल स्टेशन से 12 किमी0 की दूरी पर है। जैन
मन्दिर के पुजारी चंद्रशेखर तिवारी ने बताते हैं कि श्री सत्यनारायण कथा में वर्णित तीर्थ रतनपुरी यही है। सरयू नदी के निकट बसे इसी गांव का नाम कालांतर में बिगड़ कर रौनाही पड़ गया।

पन्द्रहवें तीर्थंकर : भगवान धर्मनाथ का जन्म स्थान :-
जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में एक रत्नपुर नाम का नगर था, जिसमें कुरुवंशीय( कही कही इन्हे इच्छाकु वंशीय कहा गया है) काश्यप गोत्रीय महाविभव संपन्न भानु महाराज राज्य करते थे, उनकी रानी का नाम सुप्रभात था। रानी सुप्रभा के गर्भ में वह अहमिन्द्र वैशाख शुक्ल त्रयोदशी के दिन अवतीर्ण हुए और माघ शुक्ल त्रयोदशी के दिन रानी ने भगवान को जन्म दिया। इन्द्र ने धर्मतीर्थ प्रवर्तक भगवान को ‘धर्मनाथ’ के रूप में सम्बोधित किया था।उनकी ऊंचाई 45 धनुष थी। लंबे जीवन काल के बाद, उन्होंने दीक्षा ली और निर्वाण प्राप्त किया। किन्नर यक्ष देव और कंदर्प यक्षिणी देवी क्रमशः उनके शासन देव और शासन देवी हैं।

धर्मनाथ वर्तमान युग (अवसरपिणी) के पंद्रहवें जैन तीर्थंकर थे। जैन मान्यताओं के अनुसार, वे एक सिद्ध बन गए , एक मुक्त आत्मा जिसने अपने सभी कर्मों को नष्ट कर दिया है। राजा भानु, महारानी सुप्रभा और परिवार के अन्य राज सदस्य भगवान धर्मनाथ के जन्म के पूर्व धर्म-कर्म में लगे रहते थे। वहां नित्य हो रहे यज्ञ-हवन, व्रत-उपासना दान-पुण्य आदि के चलते पूरे राज्य में धार्मिक वातावरण निर्मित हो गया था। उसी के फलस्वरूप शिशु के जन्म के बाद उनका नाम धर्मनाथ पड़ गया।धार्मिक वातावरण और राजसी वैभव के बीच धर्मनाथ का लालन-पालन हुआ। युवावस्था में आने पर राजा भानु ने उनका विवाह कर राज्याभिषेक भी कर दिया।

भगवान बनने से पूर्व धर्मनाथ के शासन काल में पूरे राज्य में अधर्म का नामोनिशान तक नहीं था। वे साक्षात धर्म के अवतार थे। लाखों वर्ष तक धर्मपूर्वक शासन करने के पश्चात एक दिन उन्हें उल्कापात देखकर बोध हो गया कि उनका जन्म केवल भोग-विलास के लिए नहीं, बल्कि जनकल्याण के लिए हुआ है। उसी क्षण उन्होंने राजपाठ त्यागने का निर्णय लिया।

अत: अपने पुत्र सुधर्म का राज्याभिषेक करके स्वयं म‍ुनि-दीक्षा लेकर वन विहार कर लिया। एक वर्ष के घोर तप के पश्चात पौष माह की पूर्णिमा के दिन उन्हें कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ और वे त्रिकालदर्शी तीर्थंकर बन गए। भगवान धर्मनाथ के अनुयायियों की संख्या लगभग 8 लाख थी जिनमें गणधर, शिक्षक, कैवल्य ज्ञानी, मुनि, आर्यिकाएं, श्राविकाएं और श्रावक शामिल थे।

जैन धर्मावलंबियों अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- वज्र है। वज्र कठोरता का प्रतीक भी माना गया है, जो हमें यह शिक्षा देता है कि ‍जीवन में हमें कितना भी दुख क्यों ना मिले, फिर भी हमें वज्र के समान कठोर रहकर दुख को सहन करना चाहिए और घोर दुख में भी धर्म के पदचिह्नों पर चलना चाहिए।मनुष्य रूप में भगवान धर्मनाथ दस लाख वर्ष तक पृथ्वी पर रहें। फिर ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष क‍ी चतुर्थी के दिन सम्मेदशिखरजी पर निर्वाण प्राप्त करके सदा के लिए मुक्त हो गए।

रामजी के पूर्वज राजा अनरण्य का रावण को शाप:-
सनातन धर्म में भगवान रामजी के पूर्वज की लीला स्थली के रूप में इस स्थल को जाना जाता है। राजा अनरण्य इक्ष्वाकु वंश में जन्मे महान राजा थे। अनेक राजा और महाराजाओं को पराजित करता हुआ दशग्रीव रावण इक्ष्वाकु वंश के राजा अनरण्य के पास पहुँचा जो अयोध्या पर राज्य करते थे। उसने उन्हें द्वन्द युद्ध करने अथवा पराजय स्वीकार करने के लिये ललकारा। दोनों में भीषण युद्ध हुआ किन्तु ब्रह्माजी के वरदान के कारण रावण उनसे पराजित न हो सका। जब अनरण्य का शरीर बुरी तरह से क्षत-विक्षत हो गया तो रावण इक्ष्वाकु वंश का अपमान और उपहास करने लगा। इससे कुपित होकर अनरण्य ने उसे शाप दिया कि “तूने अपने व्यंगपूर्ण शब्दों से इक्ष्वाकु वंश का अपमान किया है, इसलिये मैं तुझे शाप देता हूँ कि महाराज इक्ष्वाकु के इसी वंश में जब विष्णु स्वयं अवतार लेंगे तो वही तुम्हारा वध करेंगे।” यह कहते हुए राजा स्वर्ग सिधार गये।

कई पीढ़ियों तक अयोध्या से शत्रुता,रघु ने तोड़ा था रावण का अहंकार :-
रावण को अयोध्या के महाराज अनरण्य ने श्राप दिया था कि उनका वंशधर ही तेरा वध करेगा। इस श्राप के फलस्वरूप रावण अयोध्या के राजाओं का शत्रुओं बन गया। इस श्राप से रावण परेशान था। जब महराज रघु अयोध्या का सिंहासन पर आसीन हुए तब रावण अयोध्या पहुंचा। संयोग ऐसा बना कि रावण जब अयोध्या पहुंचा, तो राजा रघु नगर का निरीक्षण करने गए हुए थे। राजमहल के द्वार पर पहुंचकर रावण ने द्वारपाल द्वारा संदेश भेजा, कि रघु से कहो कि राक्षसराज दशानन आया है और उनसे द्वन्द युद्ध करना चाहता है।

दशानन का संदेश सुनकर महामंत्री द्वार पर पहुंचे। उन्होंने कहा कि राजा रघु, नगर में नहीं हैं आप किसी और समय यहां आएं। पता नहीं क्यों आपको मरने की इतनी जल्दी है। थोड़ी प्रतिक्षा कर लीजिए।

रावण, मंत्री की बात सुनकर चिढ़ गया। उसने कहा कि पृथ्वी पर एक ही चक्रवर्ती सम्राट है और वो मैं हूं। इतना कहकर रावण चला गया।

जब महाराज रघु लौटे तो महामंत्री से रावण आगमन और चुनौती को बताया। राजा रघु ने अपने धनुष पर नारायण अस्त्र का अनुसंधान कर प्रत्यंचा चढ़ा ली और लंका की तरफ तीर छोड़ दिया। उस तीर में से कई लाख तीर और बिखर गए। लंका के कई भवन और वहां के लोग ध्वस्त होने लगे। लंका में त्राहि-त्राहि मच गई।

रावण विद्वान था। उसने पहचान लिया कि किसी ने नारायण शास्त्र का प्रयोग किया है। उसने घोषणा कर दी कि कोई रथ पर न बैठे। कोई किसी प्रकार का अस्त्र-शस्त्र हाथ में न ले। सभी हाथ ऊपर उठाकर कहें कि “हम महाराज रघु की शरण में हैं।”

लंका के शूरवीरों ने रावण की इस आज्ञा का पालन किया। स्वंय रावण ने भी ऐसा ही किया। सभी तीर वापस लौट गए पर लंका का आठवां भाग पूरी तरह नष्ट हो चुका था। इस घटना के बाद रावण, जब तक महाराज रघु जीवित रहे, तब तक उसने अयोध्या की ओर कूच करने का साहस नहीं किया।

राजा अज से रावण का युद्ध :-
राजा अज से रावण का बड़ा युद्ध हुआ। उन्होंने पवन अस्त्र से सेना सहित रावण को लंका पहुंचा दिया। इनका तेज बल देखकर रावण चुपचाप बैठा था। फिर दशरथ का जन्म हुआ और रावण को ब्रह्मा के वरदान की बात याद आई और तप करने के लिए निकल पड़ा। तप के बाद जब ब्रह्मा ने कहा कि वर मांगें, तब रावण ने दशरथ के पुत्र उत्पन्न नहीं होने का वर मांगा, ब्रह्मा ने वर दे दिया, लेकिन रावण मन में बड़ा दुखी हुअा। तब उसने कौशल पुरी जाकर कौशल्या को चुरा लिया और पिटारी समुद्र में राघव मच्छ काे साैंपी। इसके बाद राजा दशरथ के मंत्री सुमंत को वह पिटारी मिली। उसने खोलकर देखा तो उसमें सुंदर कन्या मिली। इसके बाद उसने कन्या से पूरी जानकारी ली और उसे सुमंत उसे कौशलपुर ले आया। जहां राजा अपनी कन्या के खो जाने से दुखी था। सुमंत ने उन्हें बेटी वापिस लौटाई। जब राजा को सुमंत के बारे में दशरथ का मंत्री होना पता चला तो उन्होंने कन्या का विवाह राजा दशरथ से कर दिया।

दशरथ से भी मिली पराजय :-
महाराज रघु के बाद आयोध्या के राजा अज और दशरथ से वह पराजित होता रहा । उस समय आर्य राजाओ और राक्षसो के बीच युद्ध होते थे । राजा दशरथ काशीराज दिवोदास के साथ मिलकर राक्षसराज रावण से युद्ध कर रहे थे । रावण आर्यावर्त/, भारत वर्ष देश पर अपना अधिकार कर वैदिक संस्कृति को समाप्त कर राक्षस संस्कृति को थोपना चाहता था । यही युद्ध का मुख्य कारण था दाशराज युद्ध। इस युद्ध को कुछ इतिहासकार, दसवां देवासुर संग्राम भी कहते हैं।

यह युद्ध दशरथ तथा दिवोदास आदि दस राजाओं ने मिलकर असुरों के नेता शंभर के विरुद्ध लड़ा था। असुर शंभर, राक्षस राज रावण का साढ़ू तथा मय दानव की बड़ी बेटी मायावती का पति था। भयंकर योद्धा होने पर भी युद्ध में यद्यपि शंभर हार कर वीरगति को प्राप्त हुआ, पर दशरथ भी बुरी तरह घायल होकर मूर्छित हुए। उस युद्ध में, रानी कैकई भी उनके साथ थीं। उन्होंने, बड़ी वीरता से युद्ध करते हुए, घायल दशरथ को युद्ध क्षेत्र से बाहर निकाला और उनकी जान बचाई। इसी के पुरस्कार स्वरूप दशरथ ने कैकई को दो वरदान मांगने को बोला, जिनका परिणाम बाद में कुमार भरत को राजगद्दी और श्री रामजी को वनवास हुआ था।

राजा दशरथ के मुकुट बालि से रावण ले गया था :-
अयोध्या के राजा दशरथ एक बार भ्रमण करते हुए वन की ओर निकले वहां उनका समाना बालि से हो गया. राजा दशरथ की किसी बात से नाराज हो बालि ने उन्हें युद्ध के लिए चुनोती दी. राजा दशरथ की तीनो रानियों में से कैकयी अश्त्र शस्त्र एवं रथ चालन में पारंगत थी। अक्सर राजा दशरथ जब कभी कही भ्रमण के लिए जाते तो कैकयी को भी अपने साथ ले जाते थे इसलिए कई बार वह युद्ध में राजा दशरथ के साथ होती थी. जब बालि एवं राजा दशरथ के मध्य भयंकर युद्ध चल रहा था उस समय संयोग वश रानी कैकयी भी उनके साथ थी।

युद्ध में बालि राजा दशरथ पर भारी पड़ने लगा वह इसलिए क्योकि बालि को यह वरदान प्राप्त था की उसकी दृष्टि यदि किसी पर भी पद जाए तो उसकी आधी शक्ति बालि को प्राप्त हो जाती थी. अतः यह तो निश्चित था की उन दोनों के युद्ध में हार राजा दशरथ की ही होगी।

राजा दशरथ के युद्ध हारने पर बालि ने उनके सामने एक शर्त रखी की या तो वे अपनी पत्नी कैकयी को वहां छोड़ जाए या रघुकुल की शान अपना मुकुट यहां पर छोड़ जाए। तब राजा दशरथ को अपना मुकुट वहां छोड़ रानी कैकेयी के साथ वापस अयोध्या लौटना पड़ा। कैकेयी ने रघुकुल की आन को वापस लाने के लिए श्री राम के वनवास का कलंक अपने ऊपर ले लिया और श्री राम को वन भिजवाया. उन्होंने श्री राम से कहा भी था कि बाली से मुकुट वापस लेकर आना है।

श्री रामजी ने जब बालि को मारकर गिरा दिया. उसके बाद उनका बालि के साथ संवाद होने लगा. प्रभु ने अपना परिचय देकर बालि से अपने कुल के शान मुकुट के बारे में पूछा था। तब बालि ने बताया- “रावण को मैंने बंदी बनाया था. जब वह भागा तो साथ में छल से वह मुकुट भी लेकर भाग गया. प्रभु मेरे पुत्र को सेवा में ले लें. वह अपने प्राणों की बाजी लगाकर आपका मुकुट लेकर आएगा।”

जब अंगद श्री रामजी के दूत बनकर रावण की सभा में गए. वहां उन्होंने सभा में अपने पैर जमा दिए और उपस्थित वीरों को अपना पैर हिलाकर दिखाने की चुनौती दे दी. रावण के महल के सभी योद्धा ने अपनी पूरी ताकत अंगद के पैर को हिलाने में लगाई परन्तु कोई भी योद्धा सफल नहीं हो पाया।

जब रावण के सभा के सारे योद्धा अंगद के पैर को हिला न पाए तो स्वयं रावण अंगद के पास पहुचा और उसके पैर को हिलाने के लिए जैसे ही झुका उसके सर से वह मुकुट गिर गया। अंगद वह मुकुट को लेकर वापस श्री राम दल में भिजवाया था।

राम रावण युद्ध :-
कालांतर में त्रेता युग में इसी महान इक्ष्वाकु वंश में स्वयं श्रीमन् नारायण अयोध्या नरेश दशरथ के घर प्रभु श्री राम के रूप में जन्मे और उन्होंने ही दशानन रावण, उसके सम्पूर्ण कुल और पूरी राक्षस जाति का वध किया। रामायण और राम चरित मानस में इस युद्ध से भारत का हर नागरिक परिचित है।

लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।)

image_print

एक निवेदन

ये साईट भारतीय जीवन मूल्यों और संस्कृति को समर्पित है। हिंदी के विद्वान लेखक अपने शोधपूर्ण लेखों से इसे समृध्द करते हैं। जिन विषयों पर देश का मैन लाईन मीडिया मौन रहता है, हम उन मुद्दों को देश के सामने लाते हैं। इस साईट के संचालन में हमारा कोई आर्थिक व कारोबारी आधार नहीं है। ये साईट भारतीयता की सोच रखने वाले स्नेही जनों के सहयोग से चल रही है। यदि आप अपनी ओर से कोई सहयोग देना चाहें तो आपका स्वागत है। आपका छोटा सा सहयोग भी हमें इस साईट को और समृध्द करने और भारतीय जीवन मूल्यों को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए प्रेरित करेगा।

RELATED ARTICLES
- Advertisment -spot_img

लोकप्रिय

उपभोक्ता मंच

- Advertisment -

वार त्यौहार