आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती आधुनिक भारत के महान चिंतक, समाज सुधारक और देशभक्त थे। देश की स्वतंत्रता आंदोलन की 1857 में हुई क्रांति में स्वामी जी ने महत्वपूर्ण योगदान दिया था। स्वामी विवेकानंद से 20-25 वर्ष पहले ही इन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन की क्रांति को चिंगारी बता दी थी! देश के अनन्य भक्त चंद्रशेखर आजाद एवं भगत सिंह ने भी स्वामी जी से प्रेरणा प्राप्त की थी। लोकमान्य तिलक ने भी इन्हें स्वराज का पहला संदेश वाहक कहा था। आधुनिक पुनर्जागरण को दिशा देने वाले महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती की जयंती आज पूरा भारतवासी हर्ष एवं उल्लास के साथ मना रहा है!
यद्यपि कि स्वामी जी का जन्म 12 फरवरी 1824 ई को काठियावाड़ के टंकारा में हुआ था जो वर्तमान गुजरात राज्य के मोरबी नमक क्षेत्र में है! हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष में दशमी तिथि को इनका जन्म हुआ था। इस वर्ष 2024 में 5 मार्च दिन मंगलवार को यह तिथि होने के कारण इनका जन्म दिवस आज मनाया जा रहा है।
मूल नक्षत्र में जन्म होने के कारण इनका नाम मूलशंकर तिवारी रखा गया था। उनके पिता का नाम कृष्णलाल जी तिवारी या त्रिवेदी था और मां का नाम अमृत बाई था। इनके पिता एक कर कलेक्टर होने के साथ ब्राह्मण परिवार के एक समृद्ध और प्रभावशाली व्यक्ति थे। पिता के कारण ही इन्होंने वेद और वेदांग, धर्मशास्त्र, संस्कृत भाषा एवं विभिन्न धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन किया। पिता की शिव भक्ति से प्रभावित होकर यह बचपन में ही शिव भक्त हो गए। किंतु स्वामी जी के जीवन में ऐसी बहुत सी घटनाएं हुई जिनकी वजह से समाज के कई मूल्य पर इन्होंने प्रश्न उठाए और ज्ञान की खोज में निकल पड़े।
शुरुआत शिवरात्रि के दिन से हुई जब यह बहुत छोटे थे। शिवरात्रि के उस दिन इनका पूरा परिवार रात्रि जागरण के लिए मंदिर में रुका था। सारे परिवार वालों के सो जाने के बाद भी ये जागते रहे कि भगवान शिव आएंगे और प्रसाद ग्रहण करेंगे परंतु उन्होंने देखा कि- शिवजी के लिए रखे भोग को चूहे खा रहे हैं। यह देखकर वह चौंक गए और सोचने लगे कि- जो ईश्वर स्वयं को चढ़ाए गए प्रसाद की रक्षा तक नहीं कर सकता, वह मानवता की रक्षा भला क्या करेगा? उसी दिन से उनका विश्वास मूर्ति पूजा से उठ गया। इस घटना ने उन्हें बहुत प्रभावित किया और वे आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए घर छोड़कर चले गए। यात्रा करते हुए वह गुरु स्वामी विरजानंद के पास पहुंचे। गुरुवार ने उन्हें पाणिनी व्याकरण, पतंजलि योगसूत्र तथा वेद वेदांग का अध्ययन कराया। साथ ही गुरु दक्षिणा में उन्होंने मांगा कि “विद्या को सफल कर दिखाओ, परोपकार करो, मत-मतांतरों की अविद्या को मिटा, वेद के प्रकाश से अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करो। वैदिक धर्म का आलोक सर्वत्र वीकीर्न करो। यही तुम्हारी गुरु दक्षिणा है।” फिर उन्होंने अंतिम शिक्षा दी- “मनुष्यकृत ग्रंथों में ईश्वर और ऋषियों की निंदा है ऋषीकृत ग्रंथों में नहीं।”
इस प्रकार गुरु से शिक्षा प्राप्त कर दयानंद सरस्वती ने जगह-जगह व्याप्त अंधविश्वास और अज्ञानता के खिलाफ लोगों को जागरूक किया तथा यात्रा करते हुए इन्होंने हरिद्वार में कुंभ के अवसर पर पाखंड खंडिनी पताका फहराई। इन्होंने अनेक शास्त्रार्थ किया। सत्य और ज्ञान का प्रचार करने के लिए स्वामी जी ने सारे देश का भ्रमण करना प्रारंभ किया और जहां यह गए प्राचीन परंपरा के पंडित और विद्वान उनके ज्ञान से शास्त्रार्थ से पराजित होकर नतमस्तक होते गए। संस्कृत भाषा का उन्हें अगाध ज्ञान था। संस्कृत में वे धारा प्रवाह बोलते थे।साथ ही साथ वे प्रचंड तार्किक भी थे। इन्होंने ईसाई एवं मुस्लिम धर्म ग्रंथो का भली भांति अध्ययन एवं मंथन किया था। अतएव अपने शिष्यों के साथ मिलकर तीन-तीन मोर्चे पर इन्होंने संघर्ष किया। दो मोर्चे तो ईसाइयत और इस्लाम के थे किंतु तीसरा मोर्चा सनातन धर्मी हिंदुओं का था। स्वामी दयानंद ने बुद्धिवाद की जो मसाल जलाई थी उसका कोई जवाब नहीं था।
इन्होंने वेदों के प्रचार-प्रसार के लिए मुंबई में 10 अप्रैल 1875 ईस्वी में आर्य समाज (श्रेष्ठ जीवन पद्धति) की स्थापना की। “वेदों की ओर लौटो “इनका प्रमुख नारा था। इन्होंने कर्म सिद्धांत, पुनर्जन्म तथा संन्यास को अपने दर्शन का स्तंभ बनाया। इन्होंने सबसे पहले 1876 में “स्वराज” का नारा दिया था जिसे बाद में लोकमान्य तिलक ने आगे बढ़ाया।
स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा रचित “सत्यार्थ प्रकाश” नामक ग्रंथ आर्यसमाज का मूल ग्रंथ है और आर्य समाज का आदर्श वाक्य है-” किनवंतो विश्वमार्यं” जिसका अर्थ है -“विश्व को आर्य (श्रेष्ठ) बनाते चलो”। आर्य समाज की स्थापना का मूल उद्देश्य ही समाज सुधार और देश को गुलामी से मुक्त करना था। स्वामी जी ने धर्मांतरित हो गए हजारों लोगों को पुनः वैदिक धर्म में लौट आने को प्रेरित किया और वेदों का सच्चा ज्ञान बताया।
स्वामी जी जानते थे कि वेदों को छोड़ने के कारण ही भारत की यह दुर्दशा हो चली है इसलिए इन्होंने वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना की। मुंबई के ककड़बड़ी में आर्य समाज की स्थापना करके हिंदुओं को हिंदू धर्म में व्याप्त बुराइयां छुआछूत की समस्या को मिटाने का भरपूर प्रयास किया। गांधी जी ने भी आर्य समाज का समर्थन किया था। गांधीजी ने कहा था कि -मैं जहां से भी गुजरता हूं वहां से आर्य समाज पहले ही गुजर चुका होता है। आर्य समाज ने लोगों में आजादी की अलख जगा दी थी।
आर्य समाज के कारण ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर “स्वदेशी आंदोलन” का प्रारंभ हुआ था। आर्य समाज एक हिंदू सुधार आंदोलन है जिसकी स्थापना स्वामी जी ने मथुरा के स्वामी और अपने गुरु वीरजानंद की प्रेरणा से की थी। यह आंदोलन हिंदू धर्म पर हुए पाश्चात्य प्रभावों की प्रतिक्रिया के फल स्वरुप हिंदू धर्म में सुधार के लिए प्रारंभ हुआ था। आर्य समाज में शुद्ध वैदिक परंपरा में विश्वास किया जाता था। मूर्ति पूजा, अवतार वाद, झूठ,वलिदान प्रथा, कर्मकांड एवं अंधविश्वास को अस्वीकार किया जाता था।
इन्होंने स्त्रियों एवं शूद्रों को वेद पढ़ने का अधिकार दिया, निम्न जातियों को जनेऊ धारण करने का अधिकार प्रदान किया, छुआ -छूत व जातिगत भेदभाव का विरोध कर इन्होंने हिंदू धर्म को एक करने का पूरा प्रयास किया। ज्ञान की खोज में जब यह जगह-जगह भ्रमण कर रहे थे उन दिनों कोलकाता में बाबू केशव चंद्रसेन तथा देवेंद्र नाथ ठाकुर के संपर्क में आए। वहीं से इन्होंने पूरे वस्त्र पहनना तथा हिंदी में लिखना व बोलना प्रारंभ किया था। वहीं पर इन्होंने तत्कालीन वायरस राव को कहा था विदेशियों का राज्य पूर्ण सुखदायक नहीं है। भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक- पृथक शिक्षा, अलग-अलग व्यवहार का छूटना अति आवश्यक है लेकिन यह दुष्कर भी है परंतु बिना इसके छूटे परस्पर का व्यवहार उपकार पूर्ण और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है अतः मैं चाहता हूं कि- “गुलामी से मुक्ति का उपाय संपूर्ण भारतीयों की एक ही सोच हो और वह वेदों पर आधारित हो क्योंकि वेदों को छोड़कर कोई अन्य धर्म ग्रंथ प्रामाणिक नहीं है।” अतः वेदों की ओर लौट चलो ऐसा इन्होंने नारा दिया।
देश में आजादी का अलख जगाने के लिए “स्वदेशी आंदोलन” तथा”सन्यासी आंदोलन” के प्रणेता इस महापुरुष का 31 अक्टूबर 1883 को राजस्थान के अजमेर में निधन हो गया। भारत की वैभवशाली वैदिक संस्कृति की विरासत को जन-जन तक पहुंचने वाले महर्षि स्वामी जी ने प्रथम जनगणना के समय आगरा से देश के सभी आर्य समाजों को यह निर्देश भिजवाया था कि- सभी सदस्य अपना धर्म सनातन धर्म लिखवाएं। वैदिक संस्कृति के रखवाले, राष्ट्रवाद के प्रमुख सोपान, स्वदेश, स्वराज, स्वधर्म और स्वभाषा के उत्थान में महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती जी का योगदान चिरस्मरणीय रहेगा।
(लेखिका विभिन्न विषयों पर लिखती रहती हैं।)