Saturday, May 18, 2024
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ब्रह्माजी द्वारा सृष्टि का क्रमिक निर्माण

ब्रह्म देव जी की उत्पत्ति
भारतीय दर्शन शास्त्र में ब्रह्मा जी का नाम के पीछे निर्गुण निराकार और सर्वव्यापी चेतन शक्ति के लिए ‘ब्रह्मा’ शब्द का प्रयोग बताया गया है। सभी गुणों से पूर्ण होने के कारण उन्हें ब्रह्मा नाम से पुकारा जाता है। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्माजी अपने पुत्र नारदजी से कहते हैं कि विष्णु को उत्पन्न करने के बाद सदाशिव और शक्ति ने पूर्ववत प्रयत्न करके मुझे (ब्रह्माजी को) अपने दाहिने अंग से उत्पन्न किया और तुरंत ही मुझे विष्णु के नाभि कमल में डाल दिया।

इस प्रकार उस कमल से पुत्र के रूप में मुझ हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा) का जन्म हुआ। इसी से माना जाने लगा कि सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी की उत्पत्ति नाभि से हुई थी। जब इनकी उत्पत्ति हुई को उन्होंने चारों ओर देखा जिसकी वजह से उनके चार मुख हो गए। ये चारो वेद के प्रतीक हैं।शुरू में उनके पांच सिर थे, जिनमें से एक को शिव जी ने क्रोध में आकर काट दिया था। पांचवा मुख भगवान शिव ने भैरव रूप में काट दिया क्योंकि ब्रह्मा जी द्वारा असत्य बोला गया था तब भैरव को ब्रह्महत्या का दोष भी लगा था यह मुख भैरव से काशी में गिरा और आज वहाँ कपाल मोचन भैरव का मंदिर है।

ब्रह्मा ने सृजन के दौरान ही एक चौंकाने और बेहद ही सुंदर महिला को बनाया था। हालांकि, उनकी यह रचना इतनी सुंदर थी कि वे उसकी सुंदरता से मुग्ध हो गये और ब्र्ह्मा उसे अपनाने की कोशिश करने लगे। ब्रह्मा जी अपने द्वारा उत्पन्न सतरूपा के प्रति आकृष्ट हो गए तथा उन्हें टकटकी बांध कर निहारने लगे। सतरूपा ने ब्रह्मा की दृष्टि से बचने की हर कोशिश की किंतु असफल रहीं। कहा तो ये भी जाता है कि सतरूपा में हजारों जानवरों में बदल जाने की शक्ति थी और उन्होंने ब्रह्मा जी से बचने के लिए ऐसा किया भी, लेकिन ब्रह्मा जी ने जानवर रूप में भी उन्हें परेशान करना नहीं छोड़ा. इसके अलावा ब्रह्मा जी की नज़र से बचने के लिए सतरूपा ऊपर की ओर देखने लगीं, तो ब्रह्मा जी अपना एक सिर ऊपर की ओर विकसित कर दिया जिससे सतरूपा की हर कोशिश नाकाम हो गई।

भगवान शिव ब्रह्मा जी की इस हरकत को देख रहे थे। शिव की दृष्टि में सतरूपा ब्रह्मा की पुत्री सदृश थीं, इसीलिए उन्हें यह घोर पाप लगा। इससे क्रुद्ध होकर शिव जी ने ब्रह्मा का सिर काट डाला ताकि सतरूपा को ब्रह्मा जी की कुदृष्टि से बचाया जा सके।

ब्रह्माजी द्वारा सृष्टि का विधान : मेदिनी की सृष्टि
भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञानुसार ब्रह्माजी ने सबसे पहले मधु और कैटभ के मेदे से मेदिनी की सृष्टि की। ब्रह्माजी ने आठ प्रधान पर्वत (सुमेरु, कैलास, मलय, हिमालय, उदयाचल, अस्ताचल, सुवेल और गन्धमादन) और अनेकों छोटे-छोटे पर्वत बनाए। फिर ब्रह्माजी ने सात समुद्रों (क्षारोद, इक्षुरसोद, सुरोद, घृत, दधि तथा सुस्वादु जल से भरे हुए समुद्र) की सृष्टि की व अनेकानेक नदियों, गांवों, नगरों व असंख्य वृक्षों की रचना की। सात समुद्रों से घिरे सात द्वीप (जम्बूद्वीप, शाकद्वीप, कुशद्वीप, प्लक्षद्वीप, क्रौंचद्वीप, न्यग्रोधद्वीप तथा पुष्करद्वीप) का निर्माण किया। इसमें उनचास उपद्वीप हैं।

चौदह भुवनों की रचना
तदनन्तर ब्रह्माजी ने उस पर्वत के ऊपर सात स्वर्गों (भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक तथा सत्यलोक) की सृष्टि की। पृथ्वी के ऊपर भूर्लोक, उसके बाद भुवर्लोक, उसके ऊपर स्वर्लोक, तत्पश्चात् जनलोक, फिर तपोलोक और उसके आगे सत्यलोक है। मेरु के सबसे ऊपरी शिखर पर स्वर्ण की आभा वाला ब्रह्मलोक है, उससे ऊपर ध्रुवलोक है। मेरुपर्वत के नीचे सात पाताल (अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, पाताल तथा रसातल) हैं जो एक से दूसरे के नीचे स्थित हैं, सबसे नीचे रसातल है।

सात द्वीप, सात स्वर्ग तथा सात पाताल सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ब्रह्माजी के अधिकार में है। ऐसे-ऐसे असंख्य ब्रह्माण्ड हैं और वे महाविष्णु के रोमकूपों में स्थित हैं। श्रीकृष्ण की माया से प्रत्येक ब्रह्माण्ड में अलग-अलग दिक्पाल, ब्रह्मा, विष्णु व महेश, देवता, ग्रह, नक्षत्र, मनुष्य आदि स्थित हैं। पृथ्वी पर चार वर्ण के लोग और उसके नीचे पाताललोक में नाग रहते हैं। पाताल से ब्रह्मलोकपर्यन्त ब्रह्माण्ड कहा गया है। उसके ऊपर वैकुण्ठलोक है; वह ब्रह्माण्ड से बाहर है। उसके ऊपर पचास करोड़ योजन विस्तार वाला गोलोक है। कृत्रिम विश्व व उसके भीतर रहने वाली जो वस्तुएं हैं वे अनित्य हैं। वैकुण्ठ, शिवलोक और गोलोक ही नित्यधाम हैं।

मानवी-सृष्टि की रचना
भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा लेकर ब्रह्माजी ने मानवी-सृष्टि की रचना की। ब्रह्मा जी ने आदि देव भगवान की खोज करने के लिए कमल की नाल के छिद्र में प्रवेश कर जल में अंत तक ढूंढा। परंतु भगवान उन्हें कहीं भी नहीं मिले। ब्रह्मा जी ने अपने अधिष्ठान भगवान को खोजने में सौ वर्ष व्यतीत कर दिये। अंत में ब्रह्मा जी ने समाधि ले ली। इस समाधि द्वारा उन्होंने अपने अधिष्ठान को अपने अंतःकरण में प्रकाशित होते देखा। शेष जी की शैय्या पर पुरुषोत्तम भगवान अकेले लेटे हुए दिखाई दिये। ब्रह्मा जी ने पुरुषो त्तम भगवान से सृष्टि रचना का आदेश प्राप्त किया और कमल के छिद्र से बाहर निकल कर कमल कोष पर विराजमान हो गये। इसके बाद संसार की रचना पर विचार करने लगे।

अनेक ऋषियों महर्षियों का निर्माण
ब्रह्मा जी ने उस कमल कोष के तीन विभाग भूः भुवः स्वः किये। ब्रह्मा जी ने सृष्टि रचने का दृढ़ संकल्प लिया और उनके मन से मरीचि, नेत्रों से अत्रि, मुख से अंगिरा, कान से, पुलस्त्य, नाभि से पुलह, हाथ से कृतु, त्वचा से भृगु, प्राण से वशिष्ठ, अंगूठे से दक्ष तथा गोद से नारद उत्पन्न हुये। इसी प्रकार उनके दायें स्तन से धर्म, पीठ से अधर्म, हृदय से काम, दोनों भौंहों से क्रोध, मुख से सरस्वती, नीचे के ओंठ से लोभ, लिंग से समुद्र तथा छाया से कर्दम ऋषि प्रकट हुये। इस प्रकार यह सम्पूर्ण जगत ब्रह्मा जी के मन और शरीर से उत्पन्न हुये। एक बार ब्रह्मा जी ने एक घटना से लज्जित होकर अपना शरीर त्याग दिया। उनके उस त्यागे हुये शरीर को दिशाओं ने कुहरा और अन्धकार के रूप में ग्रहण कर लिया।

वेद उपवेदो का विधान
इसके बाद ब्रह्मा जी के पूर्व वाले मुख से ऋग्वेद, दक्षिण वाले मुख से यजुर्वेद, पश्चिम वाले मुख से सामवेद और उत्तर वाले मुख से अथर्ववेद की ऋचाएँ निकलीं। तत्पश्चात ब्रह्मा जी ने आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्ववेद और स्थापत्व आदि उप-वेदों की रचना की। उन्होंने अपने मुख से इतिहास पुराण उत्पन्न किया और फिर योग विद्या, दान, तप, सत्य, धर्म आदि की रचना की। उनके हृदय से ओंकार, अन्य अंगों से वर्ण, स्वर, छन्द आदि तथा क्रीड़ा से सात सुर प्रकट हुये।

कायिक सृष्टि का विधान
पुराणों में ब्रह्मा-पुत्रों को ‘ब्रह्म आत्मा वै जायते पुत्र:’ ही कहा गया है। ब्रह्मा ने सर्वप्रथम जिन चार-सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार पुत्रों का सृजन किया उनकी सृष्टि रचना के कार्य में कोई रुचि नहीं थी वे ब्रह्मचर्य रहकर ब्रह्म तत्व को जानने में ही मगन रहते थे। इन वीतराग पुत्रों के इस निरपेक्ष व्यवहार पर ब्रह्मा को महान क्रोध उत्पन्न हुआ। ब्रह्मा के उस क्रोध से एक प्रचंड ज्योति ने जन्म लिया। उस समय क्रोध से जलते ब्रह्मा के मस्तक से अर्धनारीश्वर रुद्र उत्पन्न हुआ। ब्रह्मा ने उस अर्ध-नारीश्वर रुद्र को स्त्री और पुरुष दो भागों में विभक्त कर दिया। पुरुष का नाम ‘का’ और स्त्री का नाम ‘या’ रखा। उन्हीं दो भागों में से एक से पुरुष तथा दूसरे से स्त्री की उत्पत्ति हुई। पुरुष का नाम मनु और स्त्री का नाम शतरूपा था। मनु और शतरूपा ने मानव संसार की शुरुआत की।

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।)

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