Sunday, December 22, 2024
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चौपन साल में सच निकल पाया, लाक्षागृह हिंदुओं के अधीन आया

अयोध्या में श्रीराम मंदिर बनने और वर्षों पुराना विवाद खत्म होने के बाद अभी भी काशी और मथुरा के विवाद अदालतों में चल ही रहे थे। ज्ञानवापी के बाद हिंदुओं को एक और जीत हुई है। बागपत के सिविल कोर्ट ने 5 फरवरी 2024 को एकअहम फैसला सुनाया है।

यूपी के बागपत जिले में महाभारत काल के पांडवों के द्वारा मांगे गए पांच गांवों में से एक वर्णावत आधुनिक बरनावा (बागपत जिले) का ऐतिहासिक गांव से संबंधित महत्वपूर्ण निर्णय आया है। यह ऐतिहासिक स्थल जो महाभारत काल की PGW पॉटरी को अपने आप में समेटे हुए है। इस सच को उजागिर करने में भारतीय न्याय व्यवस्था को 54 साल का समय लग गया। राम लला के केस की प्रेरणा ने न्याय तन्त्र को झकझोर दिया और जज की आत्मा अंतः प्रेरित होते हुए आधी शताब्दी से लटके इस पुराने विवाद का निपटारा कर ही दिया। न्यायालय ने सबूतों के आधार पर हिंदू पक्ष में फैसला सुनाया। साथ के 100 बीघे जमीन को हिंदू पक्ष को सौंप दिया।

महाभारत के अनुसार दुर्योधन ने पांडवों को खत्म करने की योजना बनाई थी। वारणावर्त (अब बरनावा) में पुरोचन नाम के शिल्पी से ज्वलनशील पदार्थों लाख, मोम आदि से एक भवन तैयार कराया गया था। यह सुरंग हिडन नदी के किनारे खुलती है। इसके अवशेष आज भी मिलते हैं। गांव के दक्षिण में लगभग 100 फुट ऊंचा और 30 एकड़ भूमि पर फैला हुआ यह टीला लाक्षागृह के अवशेष के रूप में मौजूद है। इस टीले के नीचे 2 सुरंगें स्थित हैं। इस लाक्षागृह के आज भी कई सबूत – जली हुई ईट और दीवालें मिलते हैं। कहा जाता है कि पांडवों की हत्या की साजिश दुर्योधन ने यहीं रची थी, लेकिन विदुर के आगे उसकी योजना धरी की धरी रह गई थी। भवन में आग लगते ही और विदुर की सूझ-बूझ ने पांडवों को यहां से सुरक्षित निकाल लिया था।

बरनावा नाम का गांव मेरठ से करीब 40 किलोमीटर की दूरी पर है। यह इलाका सुनसान ही नजर आता है। यह राजधानी दिल्ली से लगभग 100 किलोमीटर दूर हिंडन और कृष्णा नदी के संगम के पास एक ऐतिहासिक टीला है। यहां एक ऊंचा टीला है और उसके आसपास टूटी हुई दीवारें हैं। दीवारों पर कुछ जले हुए के निशान आज भी देखे जा सकते हैं। बीते 54 सालों से इस जगह को लेकर विवाद चल रहा था। हिंदू पक्ष इसे महाभारत कालीन लाक्षागृह बता रहा तो वहीं मुस्लिम पक्ष लाक्षागृह की 100 बीघे जमीन को कब्रिस्तान और शेख बदरुद्दीन की दरगाह बताकर उस पर कब्जा करना चाहता था। मुस्लिमों ने टीले के आसपास की जमीन पर दावा किया था और कहा था कि यह कब्रिस्तान और दरगाह की जमीन है।

बरनावा के टीले पर जो दरगाह है, वो एक सूफी संत शेख बदरुद्दीन की है। जो लगभग 600वर्षों पूर्व अपने जीवन की अंतिम साधना इसी टीले पर की है। न्यायालय अपने 32 पृष्ठीय आदेश में कहा है कि मुस्लिम पक्ष के सबूत में खामियां पाई गई। पक्षकार 600 साल पहले बने वहां मजार बनने की बात तो कहता है जिसे उस समय के शाह ने वक्फ संपत्ति बनाया, पर शाह का नाम बताने में पक्षकार विफल रहा। वास्तव में सरकारी रिकार्ड मे मजार का कहीं कोई उल्लेख ही नही है। सिविल जज शिवम द्विवेदी ने माना कि महाभारत काल के लाखा घर पर मुस्लिम सूफी बदरुद्दीन का कोई मजार नहीं है। मुस्लिम पक्ष यह स्थापित नहीं कर सका कि 1920 में विवादित स्थल वक्फ संपत्ति थी या कब्रिस्तान। जबकि भारत सरकार के 12 दिसंबर 1920 के नोटिफिकेशन में यह लाक्षागृह के रूप में सरक्षित स्मारक दर्ज है।

“सूफी बदरुद्दीन शाह सूफियों के चिश्ती संप्रदाय के अनुयायी थे और प्रसिद्ध चिश्ती संत नसीरुद्दीन शाह चिराग देहलवी के शिष्य थे। सूफी बदरुद्दीन शाह का जन्म 1236 ई में जिला बागपत के सिरसलगढ़ नामक स्थान पर हुआ था। उन्हें सूफियों की महान परंपरा में दीक्षित किया गया और अंततः बरनावा में बसने से पहले, उन्होंने दिल्ली की यात्रा की थी। वे बागपत में लगातार उपदेश देते रहे। 1343 में उनकी मृत्यु हो गई और उन्हें बरनावा में ही दफनाया गया, जहां समय के साथ उनके दफनाने का स्थान इस क्षेत्र के सबसे महत्वपूर्ण सूफी केंद्रों में से एक बन गया।

बरनावा का प्राथमिक सूफी मजार गांव के भीतर स्थित है जो उत्तरी टीले पर निकलता है। यहां सल्तनत के साथ-साथ बाद के काल की भी कई इमारतें हैं, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण है दरगाह और उससे सटी एक पुरानी मस्जिद। मंदिर के भीतर एक प्राचीन कुरान मौजूद है, जिसके सभी पन्नों पर सोने से सुलेख है। दक्षिणी टीले के ऊपर कुछ अन्य प्राचीन इमारतें हैं, जो संभवतः महान सूफी के समय की हैं। वर्तमान में हर साल सूफी बदरुद्दीन के मुख्य दरगाह में एक उर्स और त्यौहार आयोजित किया जाता है और पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश से कवाल आते हैं और महान संत की याद में कव्वाली पेश करते हैं, जिसमें अमीर खुसरो की मूल प्रस्तुति भी शामिल है, यह परंपरा लगभग 800 साल पुरानी है।”

लाक्षागृह का टीला करीब 100 बीघा परिक्षेत्र में फ़ैला हुआ है। यहां पुरातत्व सर्वेक्षण का संरक्षित एक बोर्ड भी लगा है जिसमें लाक्षागृह बरनावा लिखा हुआ है। इसमें बताया गया है कि यह पांडवकालीन है। यहां लोग ना के बराबर ही आते हैं। 1952 और 2018 में यहां एएसआई की देखरेख में खुदाई हुई थी। इसमें कई वर्ष पुराने मिट्टी के बर्तन मिले थे। इन बर्तनों की उम्र 4500 साल पुरानी बताई गई।

इसका वर्तमान संरचना मुगलकालीन है। बदरुद्दीन की मजार और कब्रिस्तान यहां पर अवैध कब्जे के रूप में बना है। यहां 6 साल पहले भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की टीम खुदाई कर चुकी है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) लाल किला, भारतीय पुरातत्व संस्थान, नई दिल्ली द्वारा सन 2018 में ट्रेंच लगाकर टीले का उत्खनन किया जा चुका है। उत्खनन से महत्वपूर्ण चीजें भी प्राप्त हो चुकी हैं।

टीले के नीचे जो दफन है, वो सब भारत की संस्कृति महाभारत काल की पेंटेड ग्रे वेयर PGW , कुषाणकाल, गुप्तकाल, राजपूत काल की पॉटरी के साक्ष्य यहां मिलते हैं। इन सबको ध्यान में रखते हुए कोर्ट ने यह फैसला दिया होगा। इसी को सपोर्ट करते हुए यहां एक गुरुकुल भी यहां लगभग 60 वर्षों से चल रहा है। यहीं पर आचार्य बालकृष्ण जी ने साधना की है और यहां गुरुकुल परिसर में पांच भव्य यज्ञशालाएं हैं। इनमें वर्ष में दो बार बड़े यज्ञों के आयोजन होते हैं, जिनमें देश भर ही नहीं विदेश से भी श्रद्धालु भाग लेते हैं।

यह केस मेरठ की अदालत में 1970 में फाइल किया गया था। इसके वाद में लाक्षागृह गुरुकुल के संस्थापक ब्रह्मचारी महाराज थे। वहीं मुकीम खान मुस्लिम पक्ष की तरफ से थे। फिलहाल दोनों का ही निधन हो चुका है। न्यायालय में बरनावा लाक्षागृह का मामला 54 साल तक चला। जिसमें करीब 875 तारीखें लगाई गईं और दोनों पक्षों के 12 गवाह बने। जिस पर न्यायालय ने 32 पेज पर 104 बिंदुओं में फैसला दिया। जिसमें न्यायाधीश ने आखिर में केवल इतना लिखा कि “वादी वाद साबित करने में असफल रहे और इसे निरस्त किया जाता है।”

वादी पक्ष से मुकीम खान ने सबसे पहले याचिका दायर की और उनकी मौत के बाद खैराती खान व अहमद खान ने मरने तक पैरवी की तो अब खालिद खान पैरवी कर रहे थे।इस तरह ही प्रतिवादी पक्ष में शुरूआत में कृष्णदत्त रहे और उनकी मौत के बाद हर्रा गांव के छिद्दा सिंह, बरनावा के जगमोहन, बरनावा के जयकिशन महाराज ने पैरवी की। इन सभी की मौत हो चुकी है। वहीं, अब मेरठ की पंचशील कॉलोनी में रहने वाले राजपाल त्यागी व जयवीर, बरनावा के आदेश व विजयपाल कश्यप पैरवी कर रहे थे। यह सभी इस मामले में गवाह भी रहे।

एएसआई सर्वे में भी यहां महाभारत काल के साक्ष्य मिलने की बात कही गई है। राजस्व रिकार्ड में भी इस जगह का नाम लाक्षागृह के नाम से ही दर्ज किया गया है। कोर्ट में हिंदू पक्ष ने बताया था कि यहां आज भी सुरंग मौजूद है जिसकी मदद से पांडव बच निकले थे। इसके अलावा लाख के किले की बड़ी सी ईंट जमीन के अंदर राख और शिव मंदिर के अवशेष मौजूद हैं। यह जगह एएसआई द्वारा संरक्षित है। यहां प्राचीन काल के अवशेष आज भी मौजूद हैं। एएसआइ आगरा से अभियन्ता श्री अमर नाथ गुप्ता और उनके सुपरवाइजर शमशेर खान के देखरेख में पिछले दिनों कारीगरों की टीम ने पहचान खो रहे संरक्षित क्षेत्र की चाहरदीवारी का निर्माण कर गुम्बदनुमा अवशेष को नक्काशी कर पत्थर लगाकर संवारा है । इसमें करीब 24 लाख रुपये के खर्च हुआ था।

प्रदेश के पर्यटन एवं संस्कृति विभाग द्वारा लाक्षागृह को महाभारत सर्किट योजना से जोड़कर वर्ष 2006- 07 में करीब डेढ़ करोड़ रुपये की धनराशि से सौंदर्यकरण कराया गया। इसमें सुरंगों का सौन्दर्यकरण, सभा कक्ष, पर्यटकों के लिए शेड, फुटपाथ, सीढि़या, स्नानागार व शौचालय आदि का निर्माण हुआ। लाक्षागृह पर्यटन स्थल के रूप में विकसित हो रहा है।

लाक्षागृह के विकास के लिए पिछली केंद्र सरकार के पर्यटन एवं संस्कृति मंत्रालय द्वारा भी लाक्षागृह को स्वदेश दर्शन योजना के आध्यात्मिक परिपथ-1 प्रोजेक्ट के तहत वर्ष 2016 में 1.39 करोड़ की धनराशि से विकास की स्वीकृति दी थी परन्तु ए एस आई के मानक को फॉलो ना कर पाने के कारण यह योजना शुरू ही नहीं हो पाई।

यहां के स्थानीय लोग इस जगह को शापित भी मानते आ रहे हैं। इसीलिए यहां आसपास लोगों ने निर्माण नहीं किया है। उनका कहना है कि यहां बस्ती बसना संभव नहीं है। इस लाक्षागृह में जब आग लगवाई गई तो बहुत सारे लोग जलकर मर गए थे। इसके बाद से यह जगह उजाड़ ही पड़ी रही। यहां ज्यादा परिवर्तन दिखाई नहीं पड़ता है।

इस धर्मस्थल को लेकर स्थानीय अदालत के फैसले के आने के बाद से इस जगह की सुरक्षा के लिए प्रशासन ने टेंट लगाकर पुलिस और डेढ़ सेक्शन पीएसी की तैनाती कर दी है।आने जाने वालों को चेक किया जा रहा है। फैसले के बाद काफी लोग वहां देखने के लिए पहुंच रहे हैं। मीडिया सूत्रों का कहना है कि मौजूदा स्थल पर असमाजिक तत्वों की गतिविधि रोकने और क्षेत्र में शांतिपूर्ण माहौल बनाए रखने के लिए सुरक्षा बढ़ाई गई है। फिलहाल वहां पर लोगों को भीड़ लगाने या किसी भी तरह के आयोजन करने से मना किया गया है। फैसले के बाद काफी लोग वहां देखने के लिए पहुंच रहे हैं।

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।)

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