17 सूत्री समझौता के 70 साल (23 मई) पर विशेष
तिब्बत हमेशा से स्वतंत्र देश रहा है और कभी भी चीन का हिस्सा नहीं रहा । तिब्बत को चीन द्वारा हडपे जाने की घटना को लोगों ने देखा है । 23 मई 1951 को चीन ने तिब्बती प्रतिनिधि दल को बंदुक की नोक पर 17 सूत्री समझौते पर हस्ताक्षर करवाया था । आज इस घटना को 70 साल पूरे हो रहे हैं । इसलिए आज इस विषय पर चर्चा करना आवश्यक है ।
1949 में पीपुल्स रिपब्लिक आफ चाइना का गठन होने के बाद ही बीजिंग रेडियो ने यह घोषणा की कि तिब्बत को साम्राज्यवादी शक्तियों से मुक्त करवाना पडेगा । इसे सुन कर तिब्बत के लोग हैरान हुए । उन्हें लगा कि वे तो स्वतंत्र है फिर माओ तिब्बत को मुक्त करवाने की बात क्यों कर रहा है । लेकिन चीन की मंशा स्पष्ट थी ।
चीन की ओर से खतरा को भांपते हुए तिब्बत अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अंतिम प्रयास शुरु किया । तिब्बत की ओर से विश्व के प्रमुख देश विशेष तौर पर भारत, अमेरिका, इंलैण्ड की सरकारों के साथ संपर्क करने के लिए प्रतिनिधिदल भेजा गया । उस दौरान शकपा के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिदल भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरु से मिला । भारत सरकार का रुख इस पर नकारात्मक था ।
शकपा ने नेहरु से कहा कि यदि तिब्बत को चीन हडप लेता है तो अन्य देश विशेष रुप से भारत की सीमा असुरक्षित हो जाएगी । वर्तमान में तिब्बत में स्थित भारत के व्यापारिक केन्द्रों की सुरक्षा के लिए 75 सैनिक नियुक्त किये गये हैं । यदि तिब्बत को हडपने के बाद चीन की सीमा भारत से लगती है तो अपनी सीमा की सुरक्षा के लिए भारत को लाखों सैनिक तैनात करना होगा । यह भारत के लिए महंगा सौदा होगा । इस कारण भारत चीन के साथ वर्तमान की मैत्री संबंध को छोड कर भविष्य के बारे में सोचे । तिब्बत के प्रतिनिधि भारत के भविष्य के बारे में बता रहे थे । लेकिन पंडित नेहरु को इसमें किसी प्रकार की रुचि नहीं थी । उन्होंने प्रतिनिधिदल से चीन से चर्चा कर समाधान का रास्ता निकालने के लिए हिदायद दी ।
वहीं दूसरी ओर तिब्बत सरकार द्वारा अन्य देशों के लिए भेजे गये प्रतिनिधि दल विदेशी सरकारों से संपर्क ही नहीं कर पा रहे थे । अमेरिका व इंलैंड तो प्रतिनिधिदलों को विजा तक देने के लिए तैयार नहीं थे ।
इसके बाद चीन तिब्बत पर हमला करना शुरु कर दिया । चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के 40 हजार सैनिकों ने तिब्बत के चामदो पर हमला किया और चामदो चीन के कबजे में आ गया । चीन की सेना खडी थी तथा आदेश मिलने पर ल्हासा तक पहुंच सकती थी ।
सभी ओर से निराशा हाथ लगने के बाद ल्हासा ने नगोवो के नेतृत्व में एक प्रतिनिधि दल बीजिंग बातचीत के लिए भेजा । चीन इस प्रतिनिधि मंडल की प्रतीक्षा में ही था । तिब्बत सरकार को चीन की मंशा को लेकर स्पष्टता थी । दलाईलामा व उनके सहयोगी द्रामो में भारतीय सीमांत के पास पहुंच चुके थे। भविष्य का रास्ता अस्पष्ट था । बीजिंग ने तिब्बत के प्रतिनिधि दल को कई दिनों तक चर्चा में उलझाये रखा । अनेक दिन बातचीत चली । इसके बाद चीन सरकार ने तिब्बती प्रतिनिधिदल को स्पष्ट कर दिया कि यदि वे समझौते पर हस्ताक्षर नहीं करते हैं तो चीन की सेना संपूर्ण तिब्बत पर हमला कर देगी । इसी प्रकार के वातावरण में तिब्बत के प्रतिनिधि दल को बंदुक के नोक पर हस्ताक्षर करने पर मजबूर किया गया । इस समझौते में अनेक बातों का उल्लेख था जिसमें प्रमुख बात थी कि तिब्बत चीन का हिस्सा है तथा चीन की सेना तिब्बत के सीमा की रक्षा करेगा ।
यहां इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि तिब्बत प्रतिनिधि दल किसी प्रकार के निर्णय लेकर हस्ताक्षर करने के लिए अधिकृत नहीं थे । इस कारण तिब्बत सरकार की सील उनके पास नहीं था । वे अपने व्यक्तिगत सील लगा कर वहां हस्ताक्षर किया । प्रतिनिधि दल के सदस्यों ने स्पष्ट रुप से चीन सरकार से कहा कि वे व्यक्तिगत हैसियत से हस्ताक्षर कर रहे हैं ।
दलाई लामा से लेकर विश्व के समस्त इतिहासकार (केवल चीन के इतिहासकारों को छोड कर) यह मानते हैं कि बंदुक के नौंक पर 17 सूत्री समझौते पर हस्ताक्षर किया गया था । विएना कनवेंशन व अन्य अंतरराष्ट्रीय नियमों के अनुसार बल पूर्वक हस्ताक्षर कराये गये किसी प्रकार का समझौता मान्य नहीं है । कानूनी रुप से इसकी मान्यता नहीं होनी चाहिए। लेकिन विश्व की राजनीति जिसकी लाठी उसकी भैंस की नीति से चलती है ।
इसके बाद चीन ने सेना भेज कर संपूर्ण तिब्बत पर कब्जा जमा लिया । तिब्बत को उपनिवेश बना कर वहां की धर्म- संस्कृति परंपरा को नष्ट करना प्रारंभ कर दिया । इस समझौते को 70 साल बीत चुके हैं । चीन तिब्बत में तिब्बतीयता व तिब्बती नस्ल को समाप्त करने के लिए निरंतर व योजनाबद्ध कार्य कर रही है । तिब्बत में हान लोगों को बसा रही है ताकि कुछ दिनों में अपने ही देश में तिब्बती अल्पसंख्यक हो जाएं । चीन इस बडी योजना पर लगातार कार्य कर रही है । लेकिन तिब्बत के लोग अभी भी चीन के इस दानवता के खिलाफ लडाई लड रहे हैं ।
तिब्बत को हड़पने पने के बाद चीन चुप्प नहीं बैठा । उसने 1962 में भारत पर हमला कर दिया । शपका द्वारा पंडित नेहरु से कही गई बात सत्य साबित हो रही थी । वर्तमान में भी चीन गलवान घाटी में हो या फिर डोकलाम में अपनी विस्तारवादी नीति जारी रखा हुआ है । दलाईलामा हमेशा कहते हैं कि भारत गुरु है तथा तिब्बत चेला है । संकट की घडी में गुरु को चेले का साथ देना चाहिए। वैसे एक बात और है कि भारत की तत्कालीन नेतृत्व की गलती के कारण तिब्बत गुलाम हुआ है । इसलिए इसका प्रायश्चित भी भारत को ही करना पडेगा ।