शरद पूर्णिमा का दिन हिंदू सनातन धर्म में बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि त्रेता युग में जन्मे महर्षि वाल्मीकि की जयंती के रूप में इस दिन को मनाते हैं। महर्षि वाल्मीकि जी का जीवन बुरे कर्मों को त्याग कर अच्छे कर्मों और भक्ति की राह पर चलने का मार्ग प्रशस्त करता है। इसी महान संदेश को लोगों तक पहुंचाने के लिए वाल्मीकि जयंती मनाई जाती है। महर्षि वाल्मीकि ने 24000 श्लोकों से युक्त रामायण की रचना संस्कृत भाषा में की थी ।अतः रामायण को प्रथम महाकाव्य और महर्षि वाल्मीकि को ‘आदि कवि’ के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है। ब्रह्माजी के द्वारा आशीर्वाद प्राप्त होने तथा देवर्षि नारद जी द्वारा संक्षिप्त राम कथा की प्रेरणा पाकर वाल्मीकि जी ने राम कथा को महान रामायण ग्रंथ के रूप में समाज को प्रदान किया जिसके लिए भारत युगों- युगों तक महान विभूति के रूप में स्मरण रखेगा।
धर्म ग्रंथो के मुताबिक त्रेता युग की बात है। एक दिन ब्रह्ममुहूर्त में महर्षि वाल्मीकि जी अपने शिष्यों के साथ गंगा नदी को स्नान के लिए जा रहे थे। रास्ते में तमसा नदी पर उनकी दृष्टि गई। ऋषि ने अपने शिष्यों से कहा- यहां का पानी इतना शुद्ध, स्वच्छ और पवित्र है, जो मेरे मन को आकर्षित कर रहा है। आज मैं तमसा नदी में ही स्नान कर लेता हूं। और वह अपने वस्त्र अपने शिष्य भारद्वाज मुनि को सौंप कर नहाने का सही स्थान ढूंढने लगे। तभी उनकी दृष्टि क्रौंच पक्षियों के एक जोड़े पर पड़ी जो वृक्ष की टहनी पर रतिक्रिया में लीन थे। यह क्रौंच वर्तमान रामपुर के आसपास पाए जाने वाले सारस पक्षी है।
उन प्रसन्न पक्षियों को देख ऋषि वाल्मीकि भी प्रसन्नता महसूस करने लगे और तन्मय होकर वहीं खड़े हो उन्हें देखने लगे। तभी उनमें से एक पक्षी जोर से चीखते हुए जमीन पर गिर पड़ा और मादा पक्षी उसके शोक से करूण विलाप करने लगी। ऋषि वाल्मीकि जो इन्हें देखकर अति प्रसन्न और भाव विभोर हो गए थे, इन पर अचानक आए दुख के कारण बहुत ही दुखी और क्रोधित हो उठे। अपने शिकार को लेने के लिए बहेलिया (शिकारी )वहां पहुंचा तब ऋषि वाल्मीकि के मुख से अनायास ही शिकारी के लिए क्रोध में भरकर श्राप निकल आया-
“मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम् ॥”
अर्थात् “हे निषाद! तुमको अनंत काल तक प्रतिष्ठा( शांति )ना मिले,क्योंकि तुमने प्रेम यानी प्रणय- क्रिया में लीन और असावधान क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक की हत्या कर दी है। ”
ऋषि वाल्मीकि के मुख से श्राप के रूप में निकला हुआ यह श्लोक हृदय की विह्वलता और करुणा से भरा हुआ अनायास ही निकल गया था। करुणा से युक्त अचानक निकला हुआ यह श्लोक ही संस्कृत साहित्य का पहला श्लोक और रामायण महाकाव्य का प्रथम श्लोक भी बना।
वाल्मीकि जी के द्वारा इस श्राप के छंद वद्ध वचन सोच- समझकर नहीं बोले गए थे । वाक्य का उच्चारण करते हुए वाल्मीकि जी सोच में डूब गए कि- “आखिर उन्होंने ऐसे वचन क्यों और कैसे कहे? ” नदी के तट से वापस आश्रम में आते हुए ऋषि ने अपने शिष्य भारद्वाज को बताया कि उनके मुख से अनायास ही यह वाक्य नहीं निकला है जो आठ- आठ अक्षरों के चार चरणों में कुल मिलाकर 32 अक्षरों से युक्त है। इस छन्द को उन्होंने “श्लोक ” नाम दिया। और बोले श्लोक नामक यही छन्द काव्य रचना का आधार बनेगा। इसी पर आधारित रामायण की रचना करूंगा क्योंकि यह यूं ही मेरे मुंह से नहीं निकले हैं” परंतु बहुत विचार के बाद भी उनके पास लिखने के लिए विषय नहीं मिला। उन्हें चिंता हुई कि अब वे राम कथा कैसे लिख सकेंगे?
इन्हीं विचारों में मगन ,आसन पर विराजमान होकर ध्यान करने लगे तभी सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी उन्हें दर्शन दिए और देवर्षि नारद जी द्वारा सुनाए गए राम कथा का स्मरण वाल्मीकि जी को कराया। और ब्रह्मा जी ने पुरुषोत्तम राम की कथा को काव्यबद्ध करने के लिए प्रेरित किया। इसी प्रेरणा का वर्णन रामायण के दो श्लोकों में किया गया है। इस प्रकार महर्षि वाल्मीकि जी द्वारा संस्कृत भाषा में प्रथम श्लोक के साथ 24000 श्लोकों वाले “रामायण “नामक पुण्य महाकाव्य की प्रतिष्ठा हुई!।जो संस्कृत भाषा का ही नहीं वल्कि संपूर्ण भारतवर्ष के इतिहास में आर्ष, उपजीव्य और आदिकाव्य के रूप में विख्यात है।
डॉ सुनीता त्रिपाठी” जागृति ”
नई दिल्ली