वित्तीय समावेशन को लंबी दूरी तय करनी है और यह सुनिश्चित होने में अभी वक्त है कि हर व्यक्ति के नजदीक ही एक बैंक खाता हो। आखिर इस क्षेत्र में जमीनी हकीकत क्या कहती है? एकदम निचले स्तर पर क्या दिक्कतें सामने आती हैं? धन नामक एक व्यक्ति ने अपनी उद्यमिता की शुरुआत दिल्ली के आसपास के विकसित होते शहरी क्षेत्र से की। इस क्रम में उसने सबसे पहले 21,000 रुपये में एक सेकंड हैंड ऑटो रिक्शा खरीदा। कुछ वक्त बाद उसका ऑटो उस फाइनैंसर ने जब्त कर लिया जिसने उसके पिछले मालिक को ऋण दिया था। पांच साल बाद भी उसे उसको 6,500 रुपये चुकाने हैं। लेकिन वह इस झटके से रुक नहीं गया। इसके बाद वह एक सफल कार चालक बन गया। उसने एक सेकंड हैंड मारुति वैन खरीदी और बाद में उसकी कमाई तथा अपने पुरखों के घर की मदद से एक नई वैन। मीरा मित्रा अपनी पुस्तक में लिखती हैं कि उसकी इस यात्रा में दो सबसे बड़ी बाधाएं थीं अनौपचारिक रूप से लिए गए कर्ज की ऊंची लागत और वसूली करने वालों को पैसे देना।
शंकर-बिहार के समस्तीपुर का रहने वाला है। वह एक अन्य गांव वाले के साथ दिल्ली आया था। वह दरबदर भटकता हुआ अपनी आर्थिक स्थिति में सुधार करता गया। धीरे-धीरे वह गरीब से कम गरीब हुआ और आखिरकार एक कार्यालय में अनुबंध के आधार पर सुरक्षा गार्ड का नियमित काम पाने में सफल रहा। वह कुछ पैसा साहूकारी के काम से भी कमाने लगा। इसके बाद उसने फैसला किया कि वह 12.5 वर्ग मीटर की खोली खरीदेगा। जिसमें बस चार दीवारें और टिन की एक छत थी। उसने इसके लिए 80,000 रुपये खर्च किए। इसके अलावा 10 फीसदी राशि उस दलाल को दी गई जिसने उस जमीन पर उसका मालिकाना हक पक्का कराया।
उसने यह पैसा रिश्तेदारों से उधार लिया। उसने बताया कि इसमें से कुछ 5 फीसदी मासिक दर पर लिया गया था। वह ऋण लेने के लिए बैंक का रुख नहीं कर सकता था क्योंकि उसके पास सही कागज नहीं थे। समय बीतता गया और उसने एक नया कारोबार शुरू कर दिया। यह कारोबार था मोबाइल फोन और दिल्ली तथा अपने गांव में बैंक खाते की मदद से अन्य प्रवासी मजदूरों का पैसा पहुंचाना। मित्रा अपनी पुस्तक में कहती हैं कि श्रमिक और उद्यमी प्रकृति के गरीबों के लिए सबसे अहम चुनौती है तार्किक दर पर ऋण और सर पर छत।
एक किस्सा उन स्वयंसहायता समूहों का भी है जिनकी सदस्य गरीब परिवारों की महिलाएं थीं और जिन्होंने बक्से में थोड़ा-थोड़ा पैसा रखने से शुरुआत करके अंत में अपने बैंक खाता खोला। उनको दीवाली मेले में खाने पीने का स्टाल लगाने में जबरदस्त कामयाबी हासिल हुई और धीरे-धीरे वे कंपनियों को खाने के डिब्बे पहुंचाने के अपेक्षाकृत स्थायी और सफल कारोबार तक पहुंच गईं। लेकिन ये समूह भाग्यशाली थे कि इनको उन स्वयंसेवी संगठनों की मदद मिली जो इस काम से परिचित थे। साथ ही इनको कारोबारी सामाजिक उत्तरदायित्व के तहत भी कुछ सहायता हासिल हुई। इसी तरह बैंकों से संबंधित स्वयंसहायता समूहों से होने वाली रिकवरी भी सूक्ष्म वित्त संस्थानों के 95 फीसदी के स्तर से बहुत ज्यादा कम है। पश्चिम बंगाल में इनसे होने वाली रिकवरी महज 60 फीसदी है।
सूक्ष्म वित्त की स्थिति की बात करें तो वह आंध्र प्रदेश में वर्ष 2010 में आए संकट से बहुत बाहर निकल आया है। लेकिन सवाल उनकी पहुंच का है। उज्जीवन के संस्थापक समित घोष द केस ऑफ माइक्रोफाइनैंस इन इंडिया2 में कहते हैं कि उनकी पेशकश में केवल मासिक या साप्ताहिक किस्त वाला ऋण शामिल है जो एक या दो साल के लिए दिया जाता है। ऐसी पेशकश का उपयोग सीमित है लेकिन यह अधिकांश बाजार को लक्षित करता है।
हालांकि उज्जीवन देश के सबसे बढिय़ा ढंग से संचालित एमएफआई में से एक है और अब वह सबसे बड़े सूक्ष्म वित्त संस्थानों में भी शुमार है। उसने सन 2009 में एक अध्ययन में चेतावनी दी थी कि इस उद्योग से उपभोक्ता 20 से 25 फीसदी सालाना की दर से बाहर जा सकते हैं। हालांकि करीब 10 फीसदी लोगों को तो समूह ने स्वयं बाहर कर दिया क्योंकि उनके ऋण जोखिम की स्थिति बेहतर नहीं थी। उपभोक्ताओं को भी समूह गारंटी और साप्ताहिक बैठकों की व्यवस्था नहीं जमी। उज्जीवन ने उपभोक्ताओं को मासिक बैठक और भुगतान चक्र का विकल्प दिया। इसके अलावा उनको समूह गारंटी से बाहर जाने का अवसर भी दिया गया। इसका प्रभाव यह हुआ कि बाहर जाने वालों का आंकड़ा घटकर 18 फीसदी रह गया। इससे भी अहम बात यह है कि उसने पाया कि किसी क्षेत्र में 5 से 7 साल तक काम करने के बाद भी वह कुल संभावित उपभोक्ताओं के बस पांचवें हिस्से तक ही पहुंच सका।
अब सरकार मुद्रा बैंक के रूप में एक नई पेशकश लेकर आई है। यह बैंक इस पूरे क्षेत्र की नियामकीय संस्था के रूप में काम करेगा और साथ ही नए सिरे से वित्तीय मदद मुहैया कराने का काम भी करेगा। बड़े एमएफआई का नियमन रिजर्व बैंक के हाथों से ले लेने का भी कोई तुक नहीं है क्योंकि वह अपने काम को बेहतरीन तरीके से अंजाम देता आया है। जहां तक स्वयंसेवी संगठनों द्वारा समर्थित समूहों की बात है तो अगर राष्टï्रीयकृत बैंक स्वयंसहायता समूहों के लिए बढिय़ा रिकवरी दर नहीं हासिल कर सकते तो फिर एक नई संस्था इस काम को कैसे अंजाम देगी? ऐसे में उन छोटे स्थानीय बैंकों से बहुत अधिक उम्मीद है जिनको रिजर्व बैंक जल्दी लाइसेंस जारी कर सकता है। क्या वे ऋण के जोखिमों का आकलन कर सकेंगे और क्या वे उनको इतना ऋण मुहैया करा सकेंगे कि वित्तीय समावेशन को सही मायने में बढ़ावा दिया जा सके? ऐसे ऋण के सहज प्रवाह के लिए यह आवश्यक है कि उसका पेशेवर ढंग से संचालन किया जाए और उसे सरकार के करीब ही रखा जाए।
साभार- बिज़नेस स्टैंडर्ड से