Saturday, April 27, 2024
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Homeपुस्तक चर्चाकिशन प्रणय के राजस्थानी मालवी उपन्यास ‘गाम परगाम ने मौसर’ का लोकार्पण

किशन प्रणय के राजस्थानी मालवी उपन्यास ‘गाम परगाम ने मौसर’ का लोकार्पण

कोटा, ‘आखर’ राजस्थान के तत्वावधान में विश्व मातृभाषा दिवस पर आईटीसी राजपूताना जयपुर में आयोजित समारोह में युवा कवि, उपन्यासकार किशन प्रणय के राजस्थानी मालवी उपन्यास ‘गाम परगाम ने मौसर’ का लोकार्पण हुआ । समारोह के मुख्य अतिथि अमर उजाला के समूह संपादक सलाहकार एवं प्रख्यात व्यंग्यकार यशवंत व्यास और राजस्थान लोक सेवा आयोग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. ललित के. पँवार थे।

इस अवसर पर यशवंत व्यास ने मालवी बोली और उससे जुड़े लोक गीत पर उद्बोधन देते हुए मातृभाषाओं की बारीक बातों और अंतर-संबंधों पर प्रकाश डाला । अतिथि डॉ. ललित के. पँवार ने इस उपन्यास को मालवी भाषा की समृद्धि बताया। लेखक किशन प्रणय ने बताया कि इस उपन्यास से मालवा के परिवेश और वहाँ की सांस्कृतिक शब्दावलियों को समझने में मदद मिलेगी। यह उनकी ग्यारहवीं पुस्तक है।

इस अवसर पर आयोजित काव्य-सत्र में मुरलीधर गौड़, देवीलाल महिया, विमला महरिया और मोहनपुरी ने सरस काव्य-पाठ किया। हाड़ौती के मधुर गीतकार मुरलीधर गौड़ के गुरु ब्रहम्मा और मांड बेटी मांड गीतों की स्वर लहरियों से श्रोता झूम उठे। समारोह में सागर कुमावत मऊँ की धाराळी कलम तथा बाबूलाल शर्मा की भटकै ‘विज्ञ’ चकोर का लोकार्पण भी हुआ। समारोह का संचालन प्रदक्षिणा ने किया तथा आखर के प्रमोद शर्मा ने धन्यवाद ज्ञापित किया।

ज्ञातव्य है कि साहित्य के क्षेत्र में विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित किशन प्रणय की इससे पूर्व हाल ही में काव्य-प्रतिवेदन पुस्तक ‘भ से भगत’ का प्रख्यात साहित्यकार डॉ. नन्दकिशोर आचार्य, प्रसिद्ध कवियत्री एवं नाट्यशास्त्रज्ञ डॉ. संगीता गुंदेचा और केंद्रीय संस्कृत अकादमी के कुलपति डॉ श्रीनिवास वरखेडी के आतिथ्य में प्रगति मैदान दिल्ली में आयोजित विश्व पुस्तक मेला 2024 में लोकार्पण हुआ था।

कथाकार-समीक्षक विजय जोशी ने लिखा है – ‘कीं उपन्यास में बोली ईं लैर बात हो तो समझ में आवै कै युवा रचनाकार को मन आपणी बोली अर संस्कृति कै बेई एक हूँस राखै है। या हूँस ईं बगत जरूरी है जो बोली अर भाषा की पैठ बनाया राखेगी। ईं उपन्यास में लोक जीवन में रम्या परम्परा का वै अध्याय है, जां में बदलता परिवेश की सुगबुगाहट है, तो मन में भीतर तक जाजम बिछाया बैठी परम्परा की सरसराहट बी है। याई कोईनीं समाज कै घणी भीतर तक दब्या पाँव चालती आरी रीत की भींत है तो ईं भींत में बन्या नई सोच का आल्या बी है। येई वै आल्या है जां में जग की बाताँ जग में घूम-फिर कै आर बिराज जावै है, अर फेर दिन उग्याँ पाछी जग आड़ी जातरा करबा चली जावै है।’

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