राजतंत्र में, प्रशासन की भाषा वह होती है जिसका प्रयोग राजा, महाराजा और रानी, महारानी करते हैं लोकतंत्र में राजभाषा शासक और जनता के बीच संवाद का की माध्यम होती है। लोकतंत्र में, हमारे नेताचुनावों में जनता से जनता की भाषाओं में जनादेश प्राप्त करते हैं। वे भाषाएँ देश के प्रशासन की माध्यम होनी चाहिए एवं उनको लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं का माध्यम भी बनना चाहिए। भारत सरकार ने सिद्धांत के धरातल पर बीसवीं सदी के आठवें दशक में यह निर्णय ले लिया था कि जनतंत्र को सार्थक करने के लिए विभिन्न राज्यों में वहाँ की भाषा को तथा संघ के राजकार्य के लिए हिन्दी को बढ़ावा दियाजाना चाहिए।प्रशासकों को जनता के बीच काम करना है और जनता से संपर्क स्थापित करने के लिएउनकी भाषा का ज्ञान होना अनिवार्य है।
लेखक ने सन् 1984 से लेकर सन् 1988 तक यूरोप में एक यूनिवर्सिटी में, विज़िटिंग प्रोफेसर के रूप में कार्य किया। लेखक को यूरोपके 18 देशों में जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। यूरोप के सभी उन्नत विश्वविद्यालयों में विदेशी भाषाओं के संकाय हैं। संकाय में लगभग40 विदेशी भाषाओं को पढ़ने और पढ़ाने की व्यवस्था होती है। विदेशी भाषा का ज्ञान रखना एक बात है, उसको जिंदगी में ओढ़ना अलगबात है। यूरोप के जिन 18 देशों की लेखक ने यात्राएँ कीं, उसने पाया कि 18 देशों में से 17 देशों का सरकारी कामकाज अंग्रेजी में नहींहोता था।
भारत में 29 राज्य हैं। हर राज्य का सरकारी कामकाज उस राज्य की राज्यभाषा में होना चाहिए। संघ की राजभाषा हिन्दी है। सहराजभाषा अंग्रेजी है। संघ के राजकाज में सह राजभाषा से अधिक महत्व मुख्य राजभाषा को मिलना चाहिए। संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता बनाए रखने का मतलब क्या है। क्या परीक्षार्थी की अभिक्षमता(एपटीट्यूड) को नापने वाला प्रश्न पत्र मूलतः अंग्रेजी में ही बन सकता है। क्या भारत में ऐसे विद्वान नहीं हैं जो भारतीय भाषाओं में मूलप्रश्न पत्र का निर्माण कर सकें। मूल अंग्रेजी के प्रश्न पत्र का अनुवाद जटिल, कठिन एवं अबोधगम्य हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं मेंकराया जाना क्या जरूरी है। संघ लोक सेवा आयोग चाहता क्या है। क्या उसकी कामना यह है कि देश के प्रशासनिक पदों पर केवलअंग्रेजी जानने वाले ही पदस्थ होते रहें।
भविष्य में, संसार में वे भाषाएँ ही टिक पाएँगी जो भाषिक प्रौद्योगिकी की दृष्टि से इतनी विकसित हो जायेंगी जिससे इन्टरनेट पर म करनेवाले प्रयोक्ताओं के लिए उन भाषाओं में उनके प्रयोजन की सामग्री सुलभ होगी। सूचना प्रौद्यौगिकी के संदर्भ में भारतीय भाषाओं की प्रगति एवं विकास के लिए, मैं एक बात की ओर विद्वानों का ध्यान आकर्षित करनाचाहता हूँ। व्यापार, तकनीकी और चिकित्सा आदि क्षेत्रों की अधिकांश बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने माल की बिक्री के लिए सम्बंधितसॉफ्टवेयर ग्रीक, अरबी, चीनी सहित संसार की लगभग 30 से अधिक भाषाओं में बनाती हैं मगर वे हिन्दी, बांग्ला, तेलुगु, मराठी, तमिलजैसी भारतीय भाषाओं का पैक नहीं बनाती। मेरे अमेरिकी प्रवास में, कुछ प्रबंधकों ने मुझे इसका कारण यह बताया कि वे यह अनुभवकरते हैं कि हमारी कम्पनी को हिन्दी, बांग्ला, तेलुगु, मराठी, तमिल जैसी भारतीय भाषाओं के लिए भाषा पैक की जरूरत नहीं है।
कम से कम उसमें अपनी भारतीय भाषा का विकल्प चुने। आप अंग्रेजी में दक्षता प्राप्त करें – यह स्वागतयोग्य है। आप अंग्रेजी सीखकर, ज्ञानवान बने – यह भी ´वेल्कम’ है। मगर जीवन में अंग्रेजी को ओढ़ना बिछाना बंद कर दें। ऐसा करने सेआपकी भाषाएँ विकास की दौड़ में पिछड़ रही हैं। भारत में, भारतीय भाषाओं को सम्मान नहीं मिलेगा तो फिर कहाँ मिलेगा। इस परविचार कीजिए। चिंतन कीजिए। मनन कीजिए।
प्रो. महावीर सरन जैन
सेवानिवृत्त निदेशक केन्द्रीय हिन्दी संस्थान आगरा
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