( भर्तृहरि साहित्य का हाड़ोती भाषा में अनुवाद कर हो गए लोक भरथरी )
डॉ.प्रभात कुमार सिंघल, कोटा
भर्तृहरि का संदेश जन-जन तक पहुँचाने के लिये 104 संस्कृत श्लोकों का हाड़ौती भाषा में दोहानुवाद कर ” लोक भरथरी” उप नाम से विख्यात हुए कवि पंडित लोकनारायण शर्मा हाड़ोती ( राजस्थानी ) भाषा के सिद्ध-हस्त हस्ताक्षर हैं। ” हिंदी और संस्कृत के पुजारी हाड़ोती में कैसे लिखे प्रश्न सामने था। न तो इसकी कोई किताब है और न ही कोई स्कूल। हां ! गांव का घर, आंगन, गली, चौपाल, जरूर है जहां ठेठ हाड़ोती बोली जाती है।” ये विचार व्यक्त कर पंडित जी ने बताया कि ” बस गांव में बोले जाने वाली बोली को ही पकड़ लिया और सीखते – लिखते अभ्यास करते आगे बढ़ते चले गए। जब तक गांव में रहे कुछ न कुछ लिखते रहे। गांव के स्कूल में द्रोपदी का चीर हरण और हरिश्चंद्र तरामती नाटकों में द्रोपदी और तारा का अभिनय करते थे। जब कोटा आए तो साहित्यकारों की कविताएं पढ़ते और स्वयं भी लिखते। भारतेंदु समिति में बड़े साहित्यकारों के मिले प्रोत्साहन से आगे बढ़ गए और हाड़ोती भाषा की कविताओं में दम आने लगा और रंग जमने लगा।”
साहित्य सृजन के साथ – साथ रंगमंच से सक्रिय रूप से जुड़े पंडित जी का सृजन ग्रामीण परिवेश को उजागर करने के साथ – साथ आध्यात्मिक , धर्म, श्रृंगार और दर्शन बोध की कल्पनाशीलता भी जुड़ा। हिंदी के साथ – साथ हाड़ोती भाषा में कविता, दोहे और गीतों से सजा रंगबिरंगा गुलदस्ता बन गया। हमारे सामने कई गुलदस्ते इनकी साहित्यिक कृतियों के रूप में सामने आए और साहित्य के आकाश पर ऐसे छा गए कि साहित्यकारों के दिल की धड़कन बन गए। जयपुर के शेरटन जेसे होटल में आखर संस्था द्वारा इनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर “साक्षात्कार ” जैसा गरिमामय कार्यक्रम आयोजित किया गया। प्रो. के. बी. भारतीय ने आपका साक्षात्कार मिडिया व प्रबुद्वजनों से कराया। यह कार्यक्रम लब्धप्रतिष्ठित साहित्यकार को ही नसीब होता है।
उज्जैन के राजा भर्तृहरि से जुड़ी अमर फल की कथा लोकप्रिय है। जनश्रुति के अनुसार उन्हें अमर रहने के लिए मिला अमर फल उनकी प्रिय रानी के माध्यम से एक वैश्या तक पहुंच जाता है। इसकी असलियत सामने आने पर भर्तृहरि बड़ा खिन्न होते हैं और रानी के प्रति उनका मोह भंग हो जाता है। छोटे भाई विक्रम को राज्य सौंपकर राजा भर्तृहरि वैराग्य धारण कर योगी बन जाते हैं। योगी बन कर उन्होंने ने संस्कृत में मुक्तक कार्य के रुप में तीन शतक लिखे हैं। श्रृंगार, नीति एवं वैराग्य शतक के रुप में त्रिवेणी शतक संस्कृत श्लोको में लिखे हैं। इन तीनों शतकों को राजस्थान में जन – जन तक पहुंचाने के लिए पंडित जी ने हाड़ोती बोली में पद्यानुवाद कर राजस्थानी साहित्य सेवा का श्लांघनीय कार्य किया। यह कार्य आपके आध्यात्मिक चिन्तन का सशक्त जीवंत प्रमाण भी है।
सृजन :
भर्तृहरि के साहित्य की ओर दिशा मुड़ने का दिलचस्प वाकिया है। उन्होंने एक रद्दी बेचने वाले से फटी – पुरानी एक किताब खरीदी। जब देखा और जब पढ़ा तो मन में विचार आया क्यों न इसका हाड़ोती में अनुवाद कर दिया जाए। बस फिर क्या था अनुवाद कर अपने विचार को सार्थक बना दिया। रंगमंच के नायक होने से आपने तीस -पैतीस नाटकों में अभिनय भी किया है। नाटकों में आपसी संवादों का प्रभाव रहा कि आपको इतनी अच्छी संस्कृत भाषा का ज्ञान हुआ और आप संस्कृत में लिखे भर्तृहरि साहित्य का अनुवाद कर पाए। अमर-फल जैसी अनूठी कृति का तीन भागों *अमर फल-1 श्रृंगार शतकम्* , *अमर फल-2, नीति शतकम्* और *अमर फल -3 वैराग्य शतकम्* का सरल, सहज हाड़ौती बोली में किया गया अनुवाद आपकी आध्यात्मिक चिंतन का भी सशक्त प्रमाण है।
आपकी 40 कविता, गजल एवं गीतों के संग्रह के रूप में प्रथम पुस्तक ‘‘अब तो पीऊॅ ऊजाळो‘‘ का प्रकाशन सन 1999 में हुआ। हिंदी में आपकी ” ‘‘खुलती रही किताब‘‘ ने भी साहित्यिक जगत में लोकप्रियता की बुलंदियों को छुआ। आपने एक उपन्यास “और राज करे छे सोभाग” भी लिखा जो अप्रकाशित है। आपकी रचनायें रजत किरण, स्वर्ण कलश, आदि साहित्यिक पत्र – पत्रिकाओं में व्यापक रूप से प्रकाशित हुई है।
“अब तो पीँऊँ ऊजाळो” में चामल की महिमा में चम्बल नदी का बखान करते हुये लिखा…….
“धन-धन भाग दियो करतार, मली मोखली चामल धार।
जिन्दगाणी में हीरा जड़ द्या, अब जग मग नत बार-थूवार‘‘।।”
इसी श्रृंखला में गीत की एक बानगी………
” कि- कद ताँई अन्धेरों ढोऊ बाबुल अब तो पीऊँ उजाळो।
सद्याँ-सद्याँ को बेटी माथा को थाँ धोद्यो काळों‘‘।। ”
अद्भुत श्रृंगार की पंक्तियां……….
दोनी अस्या सट मलग्या
जाणै मही मेघ की होगी
ऊं मचले ,बरसै वा उमगे
चुळी-चुळी सी चुनड़ होगी
चरला चरला रुत चोई
हूं पै द्यो दान बखै
प्रकृति सौंदर्य की अद्भुत बानगी देखिए…
छाई गुडल ज्यों घुल्यो ऊबटणो
हलद हाथ ले भोर बावली
सर सर पुरवा करै सिगसो
फसलां पड़ै नदाण।
सम्मान :
सबसे बड़ा सम्मान तो आपका यही है कि आप राजस्थान के साहित्यकारों में हाड़ोती भाषा के सशक्त साहित्यकार के रूप में अपनी खास और विशिष्ट स्थान रखते हैं। सभी के दिलों में आपके प्रति असीम आदर और सम्मान के भाव हैं। पंडित लोक नारायण शर्मा के सम्मान स्वरूप साहित्यकारों की टिप्पणियां भी उनके काव्य सृजनशीलता का प्रतिबिंब दर्शाती हैं। कथाकार विजय जोशी कहते हैं ” सांस्कृतिक मूल्यों के संरक्षण, प्रकृति के भावों, और आध्यात्मिक संदर्भों के सजग और समर्थ कवि हैं जो सृजन संदर्भों की उपनिषदीय परंपरा को आत्मसात किए हुए हैं।
अपनी सृजन में वे परंपरा और यथार्थ को समन्वित करते हैं। इससे उनकी रचनाएं अपने समय का प्रतिनिधित्व करती हैं।” जितेन्द्र ‘ निर्मोही’ जी इनकी हिंदी पुस्तक पर कहते है अब तक हमने उनका अनुवाद रूप् देखा है। हिंदी साहित्य में इस तरह प्रवेश करना निश्चित रूप् से अभिनन्दन योग्य है। प्रो.कृष्ण बिहारी भारतीय के शब्दों में ‘‘शर्मा ने उन श्लोकों में कहे गये लोक अनुभवों को हाड़ौती भाषा के दोहों में व्यक्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। वस्तुतः भर्तृहरि के भावों को लोक तक पहुँचाने में सफलता हासिल की है। हाड़ौती के मुहावरों एवं सुन्दर शब्दों के संयोजन से कवि ने अमरफळ को सूक्तिमय बनाया है। श्रीनन्दन चतुर्वेदी की टिप्पणी ‘‘शब्द और भाव सम्पदा की धणी भाषा संस्कृत से लोक भाषा में अनुवाद करना कितना कठिन कार्य है, इसे वही महसूस कर सकता है, जिसने यह कार्य किया हो।”अम्बिका दत्त के शब्दों में ‘‘वर्तमान समय के सच को जानने के लिये उनको, उनके लेखन को जानना जरूरी है, पं लोकनारायण शर्मा जी भी ऐसे ही मां भारती के गले की माला के पुष्प है- मोती है, जिनकी साहित्य साधना से उस माला की वृद्वि होती है। नहुष व्यास कहते हैं ” पंडित जी का संस्कृत और हाड़ौती का पुराने समय से प्रगाढ़ सम्बन्ध रहा है, और आपने पद्यानुवाद के लिये इन दोनों भाषाओं का चयन करके हाड़ौती साहित्य को समृद्व बनाकर हम सभी को गौरवान्वित किया है।
साहित्य साधना और सृजन की पांच दशक की साहित्य सेवा यात्रा में आपको सृजन साहित्य समिति कोटा, प्रवर अधीक्षक डाक घर कोटा, भर्तुहरि हरिशचन्द्र सम्मान उज्जैन, समाज सेवी घनश्याम बंसल स्मृति सम्मान, श्री भारतेन्दू हरिशचन्द्र सम्मान, राजस्थानी अनुवाद के लिये बावजी चतर सिंह पुरस्कार, सारंग साहित्य समिति कोटा द्वारा साहित्य शिखर सम्मान , आर्याव्रत साहित्य सम्मान, स्वं लक्ष्मीनारायण मालव स्मृति सम्मान, मदर टेरेसा महाविद्यालय कोटा द्वारा सम्मान, चम्बल साहित्य समिति सम्मान से कई संस्थाओं द्वारा आपको सम्मानित किया गया है।
परिचय :
जीवन के 76 बसंत की बहार देख चुके साहित्य साधक कवि पंडित लोकनारायण शर्मा ‘लोक भरथरी का जन्म 12 जनवरी- 1946 बारां जिले की तहसील अटरु के ग्राम सकतपुरा में पिता प.राम कृष्ण वैद्य एवं माता रामनाथीबाई के आंगन में हुआ। मात्र तीन-चार महिने के थे एक बघेरा मुंह में दबाकर जंगल में ले गया , एक बार नदी में बह गए और कुछ बड़े हुये तो पिता के कोप का शिकार होने से हनुमान जी के मन्दिर में जाकर आपको जीवन यापन करना पड़ा। संघर्षमय जीवन के साथ आपने संस्कृत में उपाध्याय अर्थात हायर सैकेण्डरी तक शिक्षा प्राप्त की। आपका विवाह 1967 में श्रीमती चित्रा देवी के साथ कोटा में हुआ। आप भारतीय डाक विभाग में पर्यवेक्षक के पद से सेवा निवृत्त हुए। आप सांरग साहित्य समिति के अधिष्ठाता हैं। विराट व्यक्तित्व के धनी कई संघटनों ने भी जुड़े रहे, आप कोटा भारतीय मजदूर संघ में प्रान्तीय सचिव भी रहे हैं। आपकी कविताओं का प्रसारण समय-समय पर आकाशवाणी के कोटा केन्द्र से होता रहा है। वर्तमान में आप कोटा के रंगबाड़ी स्थित अपने आवास में साहित्य सृजन में सक्रिय हैं।
संपर्क सूत्र मो. 8739825505
( डॉ.प्रभात कुमार सिंघल कोटा में रहते हैं व साहित्य पर्यटन, कला व संस्कृति से जुड़े विषयों पर शोधफूर्ण लेखन करते हैं)