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हजारों युवाओं को देशभक्त बनाने वाले महर्षि अरविंद

5 दिसंबर को पुण्यतिथि पर विशेष

स्वतंत्रता आंदोलन में जितनी महत्वपूर्ण भूमिका राजनेताओं की रही है, उससे कई गुना अधिक योगदान उन संतों का रहा है जो सीधे संघर्ष करके जेल भी गए और अपनी आत्मशक्ति से पूरी पीढ़ी को जाग्रत करके स्वाधीनता संग्राम के लिए प्रेरित किया। महर्षि अरविंद ऐसे ही महान सेनानी थे जो जेल भी गए और स्वतंत्रता संघर्ष के लिये युवाओं को तैयार भी किया।

महर्षि अरविंद का वास्तविक नाम अरविंद घोष था। उनका जन्म 15 अगस्त 1872 को कलकत्ता के एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। पिता डॉक्टर कृष्ण धन घोष एक प्रतिष्ठित चिकित्सक और प्रभावशाली व्यक्ति थे, लेकिन पूरी तरह पश्चिमी जीवन शैली में रचे बसे थे, जबकि माता स्वर्णलता देवी भारतीय परंपराओं और आध्यात्मिक धारा के प्रति समर्पित स्वभाव की थीं। घर में दोनों प्रकार का वातावरण था। कृष्ण धन भले पश्चिमी शैली के समर्थक थे पर पत्नी की सेवा पूजा और आध्यात्मिक परंपरा पालन में कोई हस्तक्षेप नहीं करते थे। इस मिले जुले वातावरण में बालक अरविंद ने आँख खोली। उनके मन मस्तिष्क पर दोनों प्रभाव थे। भारतीय विशेषताओं के भी और पश्चिमी प्रगति यात्रा के भी। पिता ने बालक अरविंद का पाँच वर्ष की आयु में दार्जिलिंग के अंग्रेज़ी स्कूल में दाखिला करा दिया और दो वर्ष बाद आगे की पढ़ाई के लिए उन्हें लंदन भेज दिया।

अरविंद जब पढ़ने लंदन जा रहे थे, तब माँ ने भारतीय संस्कृति और दर्शन से संबंधित कुछ पुस्तकें उनके साथ रख दीं। अरविंद अपनी पढ़ाई के साथ समय निकालकर माँ द्वारा दीं गई पुस्तकों का अध्ययन करते थे। इंग्लैड में उनके रहने-खाने की व्यवस्था एक अंग्रेज परिवार में की गई थी। इस तरह उनका परिचय भारतीय दर्शन एवं संस्कृति के साथ यूरोपीय जीवन-शैली का भी हुआ। इसीलिए उनके जीवन में इन दोनों सांस्कृतिक धाराओं का समन्वय देखने को मिलता है। अपने पिता की इच्छा का मान रखते हुए अरविंद घोष ने कैम्ब्रिज में रहते हुए न सिर्फ आईसीएस के लिए आवेदन किया, बल्कि 1890 में भारतीय सिविल सेवा परीक्षा उत्तीर्ण भी कर ली। लेकिन वे घुड़सवारी के जरूरी इम्तिहान में पास नहीं हो पाए। ऐसे में उन्होंने भारत सरकार की सिविल सेवा में एंट्री नहीं मिली।

पढ़ाई के दौरान ही लंदन में उनका परिचय बड़ौदा नरेश से हुआ। बड़ौदा नरेश युवा अरविंद घोष से प्रभावित हुए और उनके समक्ष अपना निजी सचिव बनाने प्रस्ताव रखा। उनके प्रस्ताव को अरविंद ने स्वीकार कर लिया। 1892 में पढ़ाई पूरी करके वह बड़ौदा पहुंच गए और कुछ समय नरेश के निजी सचिव का कार्य किया। कालांतर में वह राजा की सहमति से बड़ौदा कॉलेज में प्रोफेसर और फिर वाइस प्रिंसिपल बने। इसके साथ ही उका भारतीय संस्कृति और पुरातन साहित्य का अध्ययन भी निरंतर जारी रहा।

वह 1896 से 1905 तक बड़ौदा में विभिन्न दायित्वों का निर्वहन करते रहे। बड़ौदा में रहते हुए ही बंगाल के क्रांतिकारियों से उनका संपर्क बन गया था। उनके बड़े भाई बारिन घोष सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी और अनुशीलन समिति में सक्रिय थे। भाई के माध्यम से अरविंद भी 1902 में अनुशीलन समिति से जुड़ गए। बारिन ने उन्हें बाघा जतिन, जतिन बनर्जी और सुरेंद्रनाथ टैगोर जैसी क्रांतिकारियों से मिलवाया। इसके बाद वे 1902 में अहमदाबाद के कांग्रेस सत्र में बाल गंगाधर तिलक से मिले और बाल गंगाधर से प्रभावित होकर स्वतंत्रता संघर्ष से जुड़ गए।

अरविंद बड़ौदा के महाविद्यालय में रहते हुए युवाओं को पश्चमी शिक्षा का अध्ययन तो कराते लेकिन व्यक्तित्व निर्माण के लिए स्व-शिक्षा और स्व-संस्कृति पर गर्व करने का संदेश दिया करते थे। उनके द्वारा दी गई संस्कार और देशभक्ति की शिक्षा ने छात्रों में राष्ट्र भक्ति की ऐसी ज्योति जगाई कि उनमें से अधिकांश युवा आगे चलकर स्वतंत्रता आंदोलन में सहभागी बने। अरविंद अपनी धुन में काम कर रहे थे कि 1905 में अंग्रेजों द्वारा बंगाल विभाजन की घोषणा हुई। इसका विरोध हुआ। अरविंद बड़ौदा की नौकरी छोड़कर कलकत्ता आ गए और आंदोलन से जुड़ गये। गिरफ्तार हुए और जेल भेज दिए गए।

रिहाई के बाद पुनः पीढ़ी निर्माण में लग गए। साथ ही अपने जीवन-यापन के लिए कलकत्ता नेशनल लॉ कॉलेज में अध्यापन कार्य करने लगे। इससे उनके दोनों काम हो रहे थे। जीवन-यापन का साधन भी और युवाओं में स्वत्व एवं स्वाभिमान का जागरण भी। उन्होंने एक साधारण मकान में रहकर साधा जीवन जीने का निर्णय लिया। केवल धोती कुर्ता पहनते, स्वदेशी आंदोलन भी आरंभ किया। जन जाग्रति के लिए बंगला भाषा में पत्रिका “बन्दे मातरम्” का प्रकाशन प्रारम्भ किया।

भारत की स्वतंत्रता के लिए बंगाल में दोनों प्रकार के प्रयास हो रहे थे। सामाजिक जागरण का भी और क्रांतिकारी आंदोलन का भी। तभी 1908 में अलीपुर बम विस्फोट हुआ। अंग्रेज सरकार को बहाना मिला और 37 बंगाली युवकों को आरोपी बनाया गया। इसमें अरविंद घोष और उनके बड़े भाई बारिन घोष भी बंदी बनाए गए। 2 मई 1908 को सभी बंदी जेल भेज दिए गए। अलीपुर में अरविंद घोष और बारिन घोष के पिता कृष्णधन घोष का एक गार्डन हाउस था, जो सशस्त्र क्रांति की योजना बनाने की गतिविधियों का केंद्र बन गया था। वहां हथियार जमा किए जाते और बम भी बनाए जाते थे।

हालांकि दिखावे के लिए वहां भजन-कीर्तन के चलता था, ताकि किसी को कोई संदेह न हो। बम बनाते समय एक दिन विस्फोट हो गया जिसमें एक युवक की मृत्यु हो गई। पुलिस ने पूरा इलाका घेरा और सभी संबंधित युवकों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया। इस कांड में अरविंद को एक साल जेल की सजा हुई। वह 6 मई 1909 को रिहा हुए। अलीपुर जेल जीवन का यह एक वर्ष उनके जीवन को बदल गया। वे स्वधीनता संघर्ष के हमराही तो रहे पर मार्ग पूरी तरह बदलकर। जेल की कोठरी में उनका समय अध्ययन और साधना में बीता था।

पढ़ाई के दौरान लंदन की जीवन शैली और बाद में भारतीय जीवन दोनों तस्वीर उनके सामने थी। विशेषताएं भी और वर्जनाएं भी। कारण भी और विसंगति भी। उन्होंने कारणों के निवारण के लिए भारतीय समाज जीवन में आत्मिक शक्ति को जगाने का संकल्प किया। और इसके लिए आध्यात्म और शिक्षा का मार्ग चुना। इसकी झलक 30 मई 1909 को उत्तरपाड़ा की उस आम सभा में मिलती है जो रिहाई के बाद अरविंद के सम्मान में आयोजित की गई थी। इस सभा में उन्होंने जेल के कुछ संस्मरण तो सुनाए पर उनका अधिकांश संबोधन आध्यात्मिक शक्ति को जगाकर संकल्पवान बनने का था।

संघर्ष और दर्शन के लिए उन्हें भगवान श्रीकृष्ण का जीवन और गीता का संदेश अद्भुत लगा। उन्होंने यही मार्ग अपनाया। जेल से रिहा तो पर उन पर निगरानी थी वह अपना वेष बदलकर गुप्त रूप से पुड्डचेरी चले गए। तब पुड्डचेरी अंग्रेजों के अधिकार में नहीं। वहाँ फ्रांसीसी शासन था। पुड्डचेरी में उन्होंने योग साधना केंद्र आरंभ किया और योग से आरोग्य एवं संकल्पशक्ति जागरण के वैज्ञानिक तर्क देकर युवा पीढ़ी को भी आकर्षित किया। पुड्डचेरी में उन्होंने अरविंद आश्रम ऑरोविले की स्थापना की थी और काशवाहिनी नामक रचना की। इससे उनकी और उनके आश्रम की ख्याति बढ़ी। आगे चलकर उन्होंने वेद को भी जोड़ा और वेदों के वैज्ञानिक पक्ष को समाज के सामने प्रस्तुत किया। वेद से जुड़ते ही उनकी ख्याति महर्षि अरविंद के रूप में हुई। उनका उद्देश्य समाज जीवन में भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की जाग्रति उत्पन्न कर एक स्वाभिमान सम्पन्न समाज का निर्माण करना था और उन्होंने इसी उद्देश्य पूर्ति के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया।

महर्षि अरविंद एक महान योगी और दार्शनिक थे। उनके दर्शन का प्रभाव पूरे विश्व पर पड़ा। भारतीयों के साथ विदेशी नागरिक भी उनके शिष्य बने और भारतीय संस्कृति से जुड़े। उन्होंने वेद उपनिषद और गीता पर टीका लिखी। भारतीय स्वतंत्रता, स्वाभिमान और आध्यात्मिक साधना का मंत्र देने वाले इस महान योगी ने 5 दिसंबर 1950 को अपने जीवन की अंतिम श्वांस ली। 4 दिन तक उनके शिष्यों के दर्शन के लिए दिव्य रखी गई और 9 दिसंबर को उन्हें आश्रम में समाधि दी गई।

Ramesh Sharma
 
(लेखक राजनीतिक व सामाजिक विषयों पर लेखन करते हैं)