Sunday, April 28, 2024
spot_img
Homeआपकी बातउच्‍चशिक्षा : कितनी आवश्‍यक?

उच्‍चशिक्षा : कितनी आवश्‍यक?

मैंने अर्थशास्‍त्र में स्‍नातकोत्‍तर (एम ए) किया है, कई मोटी-मोटी किताबें पढ़कर लेकिन जीवन को ठीक-ठीक जीने के लिए इस स्‍नातकोत्‍तर शिक्षा का एक अक्षर भी मेरे काम नहीं आया। काम आया वह व्‍यवहारिक अर्थशास्‍त्र जो अपनी गृहस्‍थी को कुशलता पूर्वक चलाती मां और उनकी निकटवर्ती सखियों से उनके साथ उठते-बैठते, चलते-फिरते, खाते-पीते, खेलते-कूदते, जाने-अनजाने वैसे ही सीख लिया था जैसे उन्‍होंने अपनी मां और उनकी सखियों से सीखा होगा। इस अर्थशास्‍त्र को मुझे सिखाने के लिए न उन्‍होंने कभी कोई क्‍लास लगाई, न ही मुझे कभी उनसे कोई प्रश्‍न पूछने की आवश्‍यकता पड़ी। बस जैसा उन्‍हें करते देखा वैसा ही ग्रहण करते चले गए और जहां आवश्‍यकता पड़ी वहां उपयोग और विकास कर लिया।

मैं विधि स्‍नातक(एलएल बी) भी हूं लेकिन व्‍यवहार जगत में यही देखा कि समाज किताबों में लिखे हुए कानूनों से संचालित नहीं होता अपितु कुछ ऐसे अलिखित, अघोषित नियमों से संचालित होता है जो बलवान की सुविधानुसार बदलते रहते हैं।

औपचारिक शिक्षा के दौरान साहित्‍य भी खूब पढ़ा लेकिन यही अनुभव किया कि जीवन साहित्‍य के लालित्‍यपूर्ण नवरसों के आस्‍वादन से सर्वथा भिन्‍न और कठोर है। नीति श्‍लोक भी खूब रटे और उन्‍हें जीवन में उतारा भी लेकिन वास्तविकता के धरातल पर उन्‍हें प्राय: स्‍वार्थ की राजनीति से पराजित ही होते पाया।

मैं ऐसे बहुतेरे तकनीशियनों को जानती हूं जो अपने घर की विध्‍युत आपूर्ति भंग होने पर एक फ्‍यूज वायर जोड़ते हुए कनफ्‍यूज हो जाते हैं, अपनी सायकिल का पंचर तक नहीं जोड़ सकते, सिलाई मशीन नहीं चला सकते और ऐसे बहुतेरे अंगूठाछापों को भी जानती हूं जो अपने व्‍यवहारिक अनुभव के बल पर बड़ी से बड़ी बिगड़ी मशीनों को चुटकियों में ठीक कर देते हैं। बहुत से अंगूठाछाप बड़े-बड़े डिग्रीधारियों को अपने व्‍यवसाय में नौकरी देकर उनके सफल मालिकों की भूमिका में उनसे काम ले रहे हैं।

इसका यह मतलब नहीं है कि शिक्षा का कोई महत्‍व ही नहीं है और सबको अनपढ़ ही रह जाना चाहिए किंतु यह अवश्‍य ही विचारणीय लगता है कि शिक्षा किसको, कितनी और कैसी? हर व्‍यक्‍ति को उच्‍चशिक्षा में न तो रुचि होती है, न ही योग्‍यता और न ही आवश्‍यकता। जन्‍मजात कुछ विशिष्‍ट प्रतिभा के धनी लोग ही उच्‍चशिक्षा के योग्‍य होते हैं, जो उच्‍चशिक्षा के माध्‍यम से अपनी प्रतिभा को निखारकर विद्‍वान बनते हैं और समाज को दिशा देने का अध्‍यवसाय करते हैं।

एक औसत गृहस्‍थ अच्‍छी आजीविका पा लेने के उद्देश्‍य से ही अपने बच्‍चों को पढ़ाता है। यह हमारे देश की एक बहुत बड़ी विडंबना ही कही जाएगी कि पाश्‍चात्‍य शिक्षा पद्‍धति और पाश्‍चात्‍य जीवन शैली ने हम सभी में साहब या बाबू बनकर कुर्सी पर विराजमान होकर आजीविका कमाने की ऐसी ललक पैदा कर दी है कि हम भारतीय स्‍वरूप के श्रम आधारित सभी व्‍यवसायों को और उन्‍हें आजीविका के तौर पर अंगीकार करने वालों को हेय दृष्‍टि से देखते हैं, उन्‍हें कमतर मानते हैं, इसका ‍परिणाम है कि हमारे तथाकथित उच्‍च शिक्षित युवा विदेशी कंपनियों के नौकर बनकर संतुष्‍ट हैं। उनमें मालिक बनने की प्रतिभा और क्षमता तो है पर भूख नहीं। तथाकथित प्रचलित उच्‍चशिक्षा ने उन्हें इतना आत्‍मकेन्‍द्रित बना दिया है कि वे अपना बंगला, अपनी गाड़ी और लाड़ी से आगे कुछ सोच ही नहीं पाते। वे नौकरी न करके कोई व्‍यवसाय करें तो अपने व्‍यवसाय में औरों को नौकरी देकर अपने और अपने परिवार के अलावा अपने व्‍यवसाय में नौकरी करने वाले अपने ही देशवासी और उसके परिवार के भी पालनहार होने का गौरव अर्जित कर सकते हैं। यह एक तरह से विष्‍णु होने जैसा है पर खेद है कि तथाकथित प्रचलित उच्‍चशिक्षा के प्रभाव में वे औरों के बारे में सोच ही नहीं पाते और पालनहार विष्‍णुत्‍व के विकास का, महान होने का, परोपकार करने का सरलतम, सहजतम अवसर गंवा देते हैं और इस अवसर के साथ ही और भी बहुत कुछ खो देते हैं। जिसमें सर्वोपरि है राष्‍ट्रीय स्‍वास्‍थ्‍य की हानि जो हम झेल रहे हैं, निरर्थक सी उच्‍चशिक्षा प्राप्‍त करने की जद्‍दोजहद में।

कैसे?
वर्तमान में प्रचलित उच्‍चशिक्षा केवल मानसिक श्रम पर जोर देती है। युवावस्‍था में शारीरिक बल अपने चरमोत्‍कर्ष पर होता है। इस बल का यदि सदुपयोग न किया जाए तो यह अपने धारक को या तो वासना के भंवर में फंसा देगा या विध्‍वंसात्‍मक गतिविधियों में। अठारह से चौबीस वर्ष की उम्र विवाह की सबसे आदर्श उम्र है। उच्‍च शिक्षा की प्रचलित व्‍यवस्‍था हमारे युवाओं को इस आदर्श वय में विवाह करने से रोकती है लेकिन अवस्‍थाजन्‍य आंतरिक आवेगों को संयमित रखने का प्रशिक्षण देने की कोई व्‍यवस्‍था इस शिक्षा व्‍यवस्‍था में नहीं है। ऐसी स्‍थिति में हमारे देश का युवावर्ग प्रेमसंबंधों के नाम पर तेजी से विवाहपूर्व यौनाचार की गिरफ्‍त में जाने के लिए विवश है। चंद अपवादों को छोड़कर ये प्रेमसंबंध ज्‍यादातर छलावा(फ्‍लर्ट) ही होते हैं।

परिणाम— भावनात्‍मक आघात, यौन षड्‍यंत्र (सेक्‍स स्‍केन्‍डल्‍स) कई तरह के शारीरिक व मानसिक रोग, परिवार और समाज की निगाहों से छुपाकर कुछ करने के लिए प्रयत्‍नों का तनाव, इन प्रयत्‍नों में ऊर्जा, समय और धन का अपव्‍यय, गैरकानूनी गर्भपात, अनैतिक कार्य करने का अपराध बोध, माता-पिता की अवहेलना, अवज्ञा करने का अपराध बोध, शिक्षा प्राप्‍ति के लक्ष्‍य से भटकाव, आपराधिक वृत्‍ति का विकास माता-पिता, परिवार और समाज पर पड़ने वाला दुष्‍प्रभाव, स्‍वयं की एवं पारिवारिक प्रतिष्‍ठा की हानि, विवाह में अवरोध, आत्‍महत्‍या।

कुल मिलाकर सभी संबद्‍ध पक्षों के को घाटा ही घाटा। लाभ है केवल अवैध गर्भपात करने वाले चिकित्‍सकों को, गर्भनिरोधक गोलियां और कंडोम बेचने वालों को, इनके विज्ञापन बनाने और प्रकाशित करने वालों को।

एक अन्‍य दृष्‍टि से भी उच्‍चशिक्षा के प्रचलित स्‍वरूप से राष्‍ट्रीय स्‍वास्‍थ्‍य को हानि हो रही है। इस व्यवस्‍था में शिक्षा प्राप्‍त करते हुए और बाद में इस शिक्षा से प्राप्‍त नौकरी के निर्वाह में बहुत सारा समय मानसिक कार्यों पर ही व्‍यय होता है। एक पढ़ा-लिखा व्‍यक्‍ति शारीरिक श्रम के महत्‍व को जानता भी हो तो भी अपनी व्‍यस्‍त दिनचर्या में शारीरिक गतिविधियों के लिए समय और ऊर्जा बचा नहीं पाता। परिणाम स्‍परूप युवावस्‍था में ही मधुमेह, हृदयाघात, पक्षाघात, नपुसंकता, मेरूदंड और जोडों से संबंधित कई भयानक और असमय यमराज का आह्वान करने वाले रोगों से तेजी से ग्रस्‍त हो रहा है हमारा युवावर्ग। क्‍या यह राष्‍ट्रीय स्‍वास्‍थ्‍य की हानि नहीं है? कुर्सी पर बैठकर पढ़ने और कार्य करने की बाध्‍यता के कारण हम भी भूमि पर बैठकर की जाने वाली गतिविधियों के लिए अंग्रेजों की भांति अक्षम होते जा रहे हैं। बहुत शीघ्र यह अक्षमता आनुवांशिक होने जा रही है।

उच्‍च‍शिक्षा के ऊंचे द्‍वार में प्रवेश करने के लिए अंग्रेजी भाषा की अघोषित/अनावश्‍यक अनिवार्यता ने हमारे होनहारों का जीवन नरक बना रखा है। न जाने कितनी असली प्रतिभाओं का दम घुट चुका है अंग्रेजी सीखने की बाध्‍यता में।

उच्‍चशिक्षा के किसी भी पाठ्‍यक्रम में प्रवेश के लिए प्रवेश परीक्षा से गुजरना आवश्‍यक है, जिसे उत्‍तीर्ण करने के लिए अंग्रेजी भाषा की अघोषित/अनावश्‍यक अनिवार्यता के कारण किसी न किसी मोटे शुल्‍क वाली कोचिंग क्‍लास की शरण ग्रहण करने की विवशता है और अब तो नामी गिरामी कोचिंग क्‍लास में प्रवेश पाने के लिए भी प्रवेश परीक्षा होती है। क्‍या तमाशा है? न देखते बनता है न आंखें मूंदी जाती हैं। प्रवेश परीक्षा उत्‍तीर्ण कर ली तो फिर महाविद्‍यालय के मोटे शुल्‍क की व्‍यवस्‍था का सवाल है? इस सवाल को हल करने के लिए बैंक्‍स तैयार खड़ी हैं शिक्षाॠण देकर बंधक बनाने के लिए। इतना पुरूषार्थ करके, इतना तनाव झेलकर उच्‍चशिक्षा पा लेने के बाद जब परीक्षा परिणाम सूची में सर्वोच्‍च स्‍थान पर किसी भ्रष्‍टाचारी बड़े आदमी के बेटे को विराजमान देखता है तो इमानदार और नैतिक साधनों पर, व्‍यवस्‍था की नैतिकता पर भरोसा करने वाले निरीह शिक्षार्थी के कलेजे पर जो आघात लगता है उसकी पीड़ा को कोई भुक्‍तभोगी ही जान सकता है।
परिणाम में हासिल क्‍या?

ऐसी निराश मानसिकता और भारीभरकम ॠण के बोझ से लदा हुआ कोई युवा अपना उद्‍यम स्‍थापित करने के बारे में सोच सकता है भला? मालिक बनने का विचार कर सकता है? कदापि नहीं।

उच्‍चशिक्षा प्राप्‍त करने वाले विद्‍यार्थियों में से बहुत थोड़े ही इतने भाग्‍यशाली या जुगाड़ू होते हैं कि उन्‍हें उत्‍तीर्ण होते ही अच्‍छी नौकरी मिल जाए। एक औसत ‍बुद्‍धिधारी युवा तो उच्‍चशिक्षा प्राप्‍त करके भी रोजगार के लिए दर-दर की ठोकरें खाने या अपर्याप्‍त और असम्‍मानजनक वेतन पर नौकरी करने के लिए विवश है। तीन से चार लाख लाख के पैकेज की कोई वाहियात सी नौकरी, जिसे बनाए रखने और नामालूम सी सालाना वेतन वृद्‍धि पाने के लिए प्रतिदिन/रात कम से कम दस से बारह घंटे अनवरत काम का दबाव, आका को प्रसन्‍न रखने के लिए निजी सेवा। महिलाओं के प्रकरण में अन्‍य खतरे भी हैं। ऐसी नौकरी मिलने के बावजूद अपनी नौकरी को बचाए रखने के लिए उसे कड़ी मेहनत और प्रतिस्‍पर्धा करना पड़ रही है और कभी भी नौकरी से निकाल दिए जाने की तलवार तो फिर भी हर वक्‍त उसके सिर पर मंडरा ही रही है याने हर दिन परीक्षा। यदि ऐसा न होता तो किसी शासकीय कार्यालय में चपरासी की भर्ती के लिए इंजीनियर और पी एच डी धारक जैसे उच्‍चशिक्षितों के लाखों आवेदन पत्र न आए होते और न ही मुखपृष्‍ठ पर समाचार का विषय ही बनते।

नौकरी चाहे कितनी भी अच्‍छी क्‍यों न हो, देश की अधिकांश आबादी का नौकर होना किसी भी राष्‍ट्र के लिए लाभदायक नहीं है क्‍योंकि नौकर अपने लिए कुछ भी उत्‍पन्‍न नहीं करता वह जो भी उत्‍पादन करता है मालिक के लिए करता है। इसलिए वह वस्‍तुत: अपने ही द्‍वारा उत्‍पन्‍न की हुई वस्‍तु को भोगने के सुख से सदा वंचित ही रहता है। नौकरी से प्राप्‍त वेतन से वह ग्राहक के रूप में अपने ही द्‍वारा उत्‍पन्‍न की हुई वस्‍तु का बहुत छोटा भाग ही खरीद पाता है, अत: वह और उसका परिवार सदा असंतुष्‍ट ही रहते हैं, तरसते रहते हैं। इस असंतुष्‍टि के कारण उसे अपनी मौलिक रचनात्‍मकता के प्रयोग के लिए कोई प्रेरणा नहीं मिलती। यह स्‍थिति किसी भी राष्‍ट्र को पतन की ओर उन्‍मुख करने का राजमार्ग है जो हमने सबके लिए उच्‍चशिक्षा के दुराग्रह के रूप में खोल दिया है।

इस राजमार्ग पर बहुत तेजी से चलते हुए हम ऐसा बहुत कुछ खो चुके हैं, खोते जा रहे हैं जो कि हमारा अपना था, मौलिक था और बहुत मूल्‍यवान था, जिसके होने से हम हम थे, जिसके खोने से हम खो गए हैं। हम भारतीय थे, अब इंडियन हो गए हैं। नकलचीं इंडियन—जिसे अपने देश का कुछ भी नहीं सुहाता, विदेशी सब कुछ भाता है। हमारी मौलिकता, हमारी पहचान खो गई है।

मजा तो यह देखकर आता है कि इतनी उच्‍चशिक्षा के बावजूद हमारे गंवारूपन में कोई कमी नहीं आ रही है। हमारे देश में घृणित स्‍वरूप की जो असामाजिक हरकतें एक अनपढ़ व्‍यक्‍ति अपनी अज्ञानता में करता है, ठीक वैसी ही हरकतें उच्‍चशिक्षित व्‍यक्‍ति भी करे तो हम उसे उच्‍चशिक्षित तो क्‍या, शिक्षित भी कैसे मान लें? बानगी देखिए-
हमारी सड़कें, पान की पीकों से पटी हुई हैं। क्‍या यह पीक केवल अनपढ़ों का है?

सार्वजनिक शौचालयों की दुर्दशा के मामले में हम पूरे विश्‍व में अव्‍वल हैं शायद इसीलिए सड़क के किनारे खड़े होकर लघुशंका करने वालों की तादाद कम होने की बजाए बढ़ती जा रही है। ऐसा करने वाले केवल अनपढ़ नहीं हैं।

सामान्‍य आपसी संवाद में भी मां, बहनों से शाब्‍दिक बलात्‍कार करने वाली गालियों का तकिया-कलाम के रूप में प्रयोग क्‍या सिर्फ अनपढ़ ही करते हैं?

उच्‍चशिक्षा पर इतना जोर होने के बावजूद सार्वजनिक स्‍थलों को स्‍वच्‍छ रखने के लिए प्रधानमंत्री स्‍तर के व्‍यक्‍ति को बाकायदा स्‍वच्‍छ भारत अभियान चलाना पड़ रहा है। क्‍या केवल अनपढ़ों की बदौलत?

सड़कों पर आवागमन के नियमों का उल्‍लंघन केवल अनपढ़ करते हैं?

दारू पीकर पत्‍नी को पीटने वाले क्‍या केवल अनपढ़ होते हैं? अंतर इतना भर है कि अनपढ़ देशी पीकर पीटता है और पढ़ा लिखा विदेशी पीकर लेकिन इस फर्क से पति के हाथों रोज पिटने वाली पत्‍नी की पीड़ा में कोई अंतर आता है क्‍या?
तम्‍बाखू और नशीली दवाईयों की खपत में कमी आई या वृद्‍धि हुई?
आयकर की चोरी कौन करता है?
नित नये तरीकों से भ्रष्‍टाचार के नित नये कीर्तिमान कौन रच रहा है?
उच्‍चशिक्षा के बावजूद मिलावटी या नकली सामान के विक्रय में कमी आई या वृद्‍धि हुई?
उच्‍चशिक्षा के बावजूद महिला और बच्‍चों के शोषण में कमी आई?
गरीबों के शोषण में कमी आई?
गरीबी में कमी आई?
बालश्रम का शोषण रुका?
वर्गभेद, जातिभेद मिटा?
भाईचारे में वृद्‍धि हुई?
परिवारिक बिखराव बढ़ा या घटा?
अपराधों में कमी आई?
सामाजिक सुरक्षा बढ़ी या घटी?
हम सुसंस्‍कृत हुए या विकृत?
भ्रूण हत्‍या रुकी?
बीमारियों और बीमारों की संख्‍या में कमी आई?
विवेकपूर्ण मतदान के प्रति जागरुकता आई? कितने प्रतिशत उच्‍चशिक्षित अपने वातानुकूलित घरों से निकलकर तपती धूप या कड़कड़ाती ठंड में मतदान केन्‍द्र तक जाकर पंक्‍तिबद्‍ध होकर मतदान करने की जहमत उठाते हैं?
अपने देश, अपनी भाषा, अपनी संस्‍कृति के सम्‍मान के लिए आत्‍मबलिदान की भावना बढ़ी है या घटी है?
एकदूजे के धर्म और निजता के प्रति सम्‍मान बढ़ा?
मैं जानती हूं इन सब प्रश्‍नों का जवाब नकारात्‍मक ही है।
तो फिर ऐसी उच्‍चशिक्षा का क्‍या लाभ?

आमतौर पर ढाई- तीन साल की उम्र से लगाकर चौबीस-पच्‍चीस साल या इससे भी अधिक उम्र तक लगातार पढ़ते रहने के बावजूद जो शिक्षा किसी समु‍चित रोजगार/आजीविका की उपलब्‍धि सुनिश्‍चित नहीं कर पाती उसे हम उच्‍च शिक्षा कैसे मान सकते हैं? आज हमारे देश में जैसी उच्‍चशिक्षा प्रचलित है उससे हमें लाभ हो रहा है या नुकसान? ऐसी उच्‍चशिक्षा प्राप्‍त करना सबके लिए क्‍यों आवश्‍यक होना चाहिए? क्‍या एक आम आदमी के लिए यह समय और संपत्‍ति बर्बाद करने की निरर्थक कवायद नहीं है? इसकी अपेक्षा एक औसत बु‍द्‍धि के विद्‍यार्थी के लिए क्‍या यह उचित नहीं होगा कि दसवीं या बारहवीं कक्षा के साथ या बाद उसे किसी ऐसे हुनर से संपन्‍न कर दिया जाए जो अगले साल दो साल में उसे अपनी गृहस्‍थी को चलाने योग्‍य धन अर्जन करने के काबिल बना दे ताकि वह ठीक समय पर विवाह करने और अपने विवाहित जीवन की जिम्‍मेदारियों का भलीभांति निर्वाह करने योग्‍य हो जाए?

जो कोई किसी विशेष प्रतिभा संपन्‍न होकर ज्ञान का पिपासु है, शोधवृत्‍ति से संपन्‍न है, उच्‍चशिक्षा के योग्‍य है उसके लिए भी क्‍या यह उचित नहीं होगा कि वह अपनी आजीविका कमाते हुए अपने बल पर ज्ञानार्जन करे? उच्‍चशिक्षा के लिए न तो वह माता-पिता पर भार बने, न ही कर्ज के भंवर में अपने को उलझाए।

यदि ऐसा हो सका तो क्‍या होंगे इसके लाभ?
सबके पास रोजगार होगा।
परिवार बिखरेंगे नहीं।
युवापीढ़ी को अनैतिक यौनाचार के दलदल से बचाया जा सकेगा।
माता-पिता महंगी शिक्षा के बोझ और ॠण के बोझ से मुक्‍त होंगे। तनाव मुक्‍त, रोग मुक्‍त होंगे।
युवा अनावश्‍यक पढ़ाई के और ॠण के बोझ से मुक्‍त होंगे। तनाव मुक्‍त, सबल होंगे।
अंग्रेजी सीखने की बाध्‍यता और तद्‍जनित तनाव से मुक्‍त होंगे तो स्‍वस्‍थ और सुविकसित होंगे।
बच्‍चों का विकास परिवार की निगरानी में होगा तो वे संस्‍कारवान, चरित्रवान बनेंगे।
सबके पास रोजगार होगा तो अपराध घटेंगे।
सचमुच जीवन जीने के लिए कुछ फुरसत होगी।
सामाजिक समरसता, सुरक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य और आनन्‍द में वृद्‍धि होगी।

कौन करेगा यह?
अकेले सरकार?
नहीं। केवल सरकार के किए यह संभव होने वाला नहीं है।
इसके लिए तो स्‍वयं युवा को ही नौकर बनने की सोच को त्‍याग कर मालिक बनने की सोच के साथ आगे आना होगा। कुछ जोखिम उठाने की प्रवृत्‍ति अपनाना होगी। यदि हमें भारत देश के रूप में गौरवमय जीवन जीना है तो इसके अलावा कोई विकल्‍प नहीं है।
आचार्य श्री विद्‍यासागर अहिंसक रोजगार प्रशिक्षण केन्‍द्र, विजयनगर, इन्‍दौर युवाओं को दे रहा है एक ऐसा मंच जहां वे अपने पुरुषार्थ से भारत को एक नौकर देश से एक मालिक देश में बदल सकते हैं। यह तभी संभव होगा जब हमारे अर्जुन और एकलव्‍य विषयों की भीड़ में से अपने लक्ष्‍य का ठीक-ठीक संधान करें और उनकी आंख केवल और केवल अपने लक्ष्‍य पर टिकी रहे दीर्घकाल तक, दृढ़ता पूर्वक।

***

निवेदक
विजयलक्ष्‍मी जैन
आचार्य श्री विद्‍यासागर अहिंसक रोजगार प्रशिक्षण केन्‍द्र,
विजयनगर, इन्‍दौर

नोट:

१) आचार्य श्री विद्‍यासागर अहिंसक रोजगार प्रशिक्षण केन्‍द्र, विजयनगर, इन्‍दौर में प्रशिक्षण हेतु चयन कार्य प्रचलित है। चयन साक्षात्‍कार के माध्‍यम से होगा। सभी प्रशिक्षण निशुल्‍क हैं। कृपया, साक्षात्‍कार की तिथि एवं स्‍थान की जानकारी हेतु [email protected] पर संपर्क करें।

२) इस लेख पर अनुकूल/प्रतिकूल सभी तरह की प्रतिक्रियाओं/सुझावों का [email protected] पर स्‍वागत है।

image_print

एक निवेदन

ये साईट भारतीय जीवन मूल्यों और संस्कृति को समर्पित है। हिंदी के विद्वान लेखक अपने शोधपूर्ण लेखों से इसे समृध्द करते हैं। जिन विषयों पर देश का मैन लाईन मीडिया मौन रहता है, हम उन मुद्दों को देश के सामने लाते हैं। इस साईट के संचालन में हमारा कोई आर्थिक व कारोबारी आधार नहीं है। ये साईट भारतीयता की सोच रखने वाले स्नेही जनों के सहयोग से चल रही है। यदि आप अपनी ओर से कोई सहयोग देना चाहें तो आपका स्वागत है। आपका छोटा सा सहयोग भी हमें इस साईट को और समृध्द करने और भारतीय जीवन मूल्यों को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए प्रेरित करेगा।

RELATED ARTICLES
- Advertisment -spot_img

लोकप्रिय

उपभोक्ता मंच

- Advertisment -spot_img

वार त्यौहार