Monday, November 18, 2024
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हिन्दुओं के अंतिम संस्कार पर भी ग्रीन ट्रिब्यूनल को आपत्ति!

सरकरी तंत्र पर काफी पहले एक व्यंग्य पढ़ा था कि प्रधानमंत्री ने खर्चों में कटौती करने का फैसला किया। उन्होंने आदेश जारी किया कि गैर-जरुरी खर्च को बंद किया जाए। फाइल वित्त मंत्री के पास पहुंची। उन्होंने वित्त सचिव से इस बारे में चर्चा करते हुए कहा कि मेरे पास सिर्फ पांच सरकारी कारें हैं। एक मेरे लिए, एक का पत्नी इस्तेमाल करती है। एक बच्चों को स्कूल लाने-ले जाने के लिए है। तुम्हें तो पता है कि मेरा कुत्ता बीमार चल रहा है इसलिए एक उसके लिए छोड़नी पड़ती है और एक कार आपात स्थिति के लिए रखना जरुरी है क्योंकि अगर इनमें से कोई भी कार खराब हो गई तो फिर टैक्सी मंगवानी पड़ेगी जिससे सरकार पर अतिरिक्त भार पड़ेगा।

सचिव ने कहा नहीं सर आप तो जरा भी फिजूलखर्च नहीं कर रहे हें। सचिव वापस अपने केबिन में लौटा और उसने संयुक्त सचिव को बुलाकर कहा कि मेरे पास दो कारें हैं। एक मेरे लिए व दूसरी परिवार के लिए क्या तुम्हें लगता है कि इसमें भी कटौती की जा सकती है? उसने जवाब दिया कि सर आप तो पहले से ही इतनी कंजूसी बरत रहे हैं। अगर इसमें कुछ भी कमी की तो आपके लिए दफ्तर आना भी मुश्किल हो जाएगा। ऐसे होते होते मामला बाबू तक पहुंचा।

बड़े बाबू ने कहा कि ऊपर से नीचे तक सभी ने अपने खर्चों को सही ठहरा दिया अब तुम्ही अपनी कलाकारी दिखाओ। बाबू सोचने लगा। तभी उसके मैज के नीचे बैठी बिल्ली बोली ‘म्याऊं’। बाबू की निगाह उस पर गई। इस बिल्ली को इसलिए पाला गया था कि वह फाइल कुतरने वाले चूहों को खा सकें। उसे हर रोज पाव भर दूध पिलाया जाता था। उसकी निगाहों में चमक आ गई। वह खुशी से बोला, हो गया काम। यह बिल्ली मुफ्त में पाव भर दूध पी रही है। इसे तो पहले से ही चूहे खाने को मिल रहे हैं। यह खर्च बेकार का है। उसकी बात सुनते ही विभाग में हर्ष की लहर दौड़ गई। उसने खर्च में कटौती करने का नोट तैयार किया। बड़े बाबू ने उस पर अपनी संस्तुति की और फिर फाइल सचिव से होते हुए मंत्री तक पहुंच गई। सभी खर्च में कटौती करके बेहद उत्साहित व संतुष्ट नजर आ रहे थे!

यह सब बताना इसलिए जरुरी हो गया है क्योंकि जब अखबार खोला तो उसमें एक खबर छपी थी कि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने अंतिम संस्कार करने के लिए, शव को जलाए जाने की जगह उसका विकल्प खोजने की सलाह दी है। उसने पर्यावरण मंत्रालय व दिल्ली सरकार से कहा है कि वे शवों के दाह संस्कार के लिए वैकल्पिक तरीके उपलब्ध कराए जाने संबंधी योजनाओं की पहल करे। ट्रिब्यूनल ने लकड़ियां जलाकर किए जाने वाले पारंपरिक दाह संस्कार को पर्यावरण के लिए घातक बताते हुए कहा है कि लोगों की विचारधारा बदलने व विद्युत शवदाह व सीएनजी जैसे पर्यावरण अनुकुल तरीके अपनाने की जरुरत है।

उनका कहना था कि यह मामला आस्था और लोगों की जीवन दशा से जुड़ा हुआ है इसलिए यह नेतृत्व करने वालों और खासतौर से धार्मिक नेताओं का दायित्व है कि वे आस्थाओं का रुख एक दिशा की ओर मोड़े और इनमें बदलाव लाए। इसके साथ ही पंचाट ने यह भी कहा कि नदी में अस्थियां बहाने से पानी में प्रदूषण बढ़ता है।

यह पढ़कर लगा कि इस पंचाट के जजों का दिमाग कितना उर्वरक है। कहां तक सोच डाला कि मरने पर जलाए जाने से भी प्रदूषण होता है। अभी तो शुरुआत है। कल को वे कहेंगे कि हवन करने पर रोक लगाई जानी चाहिए क्योंकि इससे वायुमंडल शुद्ध नहीं होता बल्कि प्रदूषण फैलता है। भगवान की पूजा करते समय अगरबत्ती न जलायी जाए क्योंकि इससे वहीं वातावरण पैदा होता है जो कि सिगरेट पीने के धुंआ छोड़ने से होता है। रसोई घर के अंदर तड़का या छौंक न लगाया जाए। होली पर होलिका दहन न किया जाए। दीपावली पर दिए जलाना बंद हो। पटाखे चलाने के समय पर तो पहले से ही प्रतिबंध लगाया जा चुका है। हालांकि कम से कम इस मामले में कोई बुराई नहीं हैं क्योंकि पटाखे चलाना किसी परंपरा और रिवाज का हिस्सा नहीं है व इससे ध्वनि व वायु प्रदूषण होता है। यज्ञ, हवन और शादियों में अग्नि के समय फेरे लेने से भी प्रदूषण होता है।

अपना मानना है कि अंतिम संस्कार के मामले में ट्रिब्यूनल ने जो राय जताई है वह उसके अति उत्साही होना है। दुनिया में कोई इंसान एक ही बार पैदा होता है व एक ही बार मरता है। अगर उसके अंतिम संस्कार से प्रदूषण फैलाने के साथ-साथ लकड़ी का इस्तेमाल न कर वनों के संरक्षण की भी सोच काम कर रही हो तो फिर कल को फर्नीचर बनाए जाने पर भी रोक लगाए जाने की बात कही जाने लगेगी। फिर तो क्रिकेट, हाकी सरीखे लोकप्रिय खेलों पर भी प्रतिबंध लगा दिया जाएगा क्योंकि बल्ले, विकिट, हाकी स्टिक सब लकड़ी से ही बनते हैं। गांवों में गरीब बच्चे गुल्ली डंडा खेलने से वंचित रह जाएंगे।

उड़ीसा में जगन्नाथपुरी की रथयात्रा पर रोक लगा दी जाएगी क्योंकि यह रथ तैयार करने के लिए हर साल न जाने कितने पेड़ काटने पड़ते हैं। लकड़ी के भगवान बनाने पर भी रोक लगा दी जाएगी। फिर कोई दियासलाई के निर्माण पर भी रोक लगाने की याचिका दायर करेगा क्योंकि इसके लिए भी पेड़ काटने पड़ते हैं। एक बार फिर चकमक पत्थर और लालटनों का युग वापस लौट आएगा। हम आदिम युग के मजे लेने लगेंगे।

कई बार तो मुझे यह आशंका भी सताने लगती है कि कहीं किसी दिन कोई सिरफिरा अतिउत्साही व्यक्ति अदालत में यह याचिका दायर न कर दे कि सब्जियों, फूलों के उपयोग पर भी रोक लगा दी जाए क्योंकि वनस्पति विज्ञान के मुताबिक यह सभी जीवित वस्तुएं हैं इन मूक प्राणियों को खाना उनकी हत्या करने जैसा है। उन्हें इस अत्याचार से बचाया जाना चाहिए। धार्मिक आधार पर तो ‘बीफ’ खाने पर प्रतिबंध का मुद्दा गरमाया हुआ है व जैनी पहले से ही अरबी, लहसुन, प्याज आदि को वर्जित मानते आ रहे हैं।

पंचाट ने फिलहाल दाह संस्कार के लिए सीएनजी या बिजली के शवदाह बनाने का विकल्प खोजने की बात कही है। पर क्या उसके बाद यह सवाल नहीं उठेगा कि भले ही लकड़ी बच रही हो पर इससे प्रदूषण तो फैल ही रहा है। आखिर जो भी चीज़ जलाई जाएगी उससे गैस व धुंआ तो पैदा होगा ही। अतः अंतिम संस्कार करने के लिए कोई और तरीका ढूंढा जाए।

हिंदुओं को तो जमीन में गाड़ा भी नहीं जा सकता है। इसकी वजह सिर्फ धार्मिक नहीं है। मुसलमान व ईसाइयों को अंतिम संस्कार के लिए जमीन की घोर कमी का सामना करना पड़ रहा है। शहरों में कब्रगाहों में जगह ही नहीं बची है। शव दफनाने के लिए लाखों रुपए खर्च करके जमीन लेनी पड़ रही है। तो कहीं एक के ऊपर दूसरे को दफनाना पड़ रहा है। शव को नदी में बहा नहीं सकते क्योंकि इससे जल प्रदूषण फैलेगा और उन्हें पक्षियों की तरह गिद्दों को खाने के लिए छोड़ा नहीं जा सकता है क्योंकि गिद्ध गायब हो चुके हैं वे लुप्तप्राय पक्षियों की सूची में शामिल हो चुके हैं।

विज्ञान का छात्र रह चुकने के बाद भी मेरी मंद बुद्धि में यह बात समझ में नहीं आती है कि प्रदूषण पहले ज्यादा फैलता था या अब फैल रहा है। जब हम बच्चे थे तो घरों में चूल्हों में बुरादे या कोयले की अंगीठियों में खाना बनता था। जिन्हें जलाते समय जबरदस्त धुआं निकलता था। फिल्मों में तो सुबह को दिखाने के लिए उगते हुए सूरज के साथ घरों व मिलों से निकलते हुए धुंए से इन्हे प्रतिबिंबित किया जाता था। तब वाहन भी बहुत ज्यादा धुंआ छोड़ते थे। ट्रकों के पीछे तो यहां तक लिखा होता था कि बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला।

तब हर हिंदू घर में महीने में एकाध बार तो हवन हो ही जाता था पर उस समय कभी भी प्रदूषण का प्रश्न नहीं उठते देखा। स्टीम इंजन कितना धुंआ छोड़ते थे। सदिर्यों में तो सड़कों के किनारे गरीब लोग लकड़ी तो क्या पुराना टायर जलाकर आग सेंकते नजर आते थे। अब क्या सारा प्रदूषण कारों और इंसानों के अंतिम संस्कार से ही फैल रहा है?

विदेश में बसे किसी परिचित ने बताया था कि जब उसके मां बाप वहां आए और उन्होंने पूजा करने के लिए अगरबत्ती जलाई तो उसके धुंए से फायर अलार्म बजने लगा। फायरब्रिगेड आ गई। उनकी बहुत फजीहत हुई। कम से कम हिंदुस्तान में तो नियम व मानक इतने कड़े नहीं होने चाहिए कि लोग छटफटाहट महसूस करने लगे। यह नियम तो वैसे ही है जैसे कि विमान यात्रा के दौरान अपने साथ किसी भी तरह का तरल पदार्थ न ले जाने देने के नियम के कारण दुधमुंहें बच्चे को दूध की बाटल को साथ ले जाने से रोक दिया जाए।

साभार- http://www.nayaindia.com/ से

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