रवीश जी, आपके ब्लॉग से प्रेरणा लेकर 2010 में ब्लॉगिंग शुरु की थी, आपकी ही वजह से सालों बाद आज वापस आ रही हूं
चलिए मान लिया कन्हैया उमर खालिद सब सही हैं गद्दार वो हैं जिन्होने उन्हे गद्दार बनाकर इस देश पर थोप दिया लेकिन महोदय क्यों आप देश के टुकड़े टुकड़े करने का दावा करने वाले उन नारों पर कुछ नहीं बोलते, बल्कि ये बताते हैं कि जब कश्मीर में ये नारे दशकों से लगते रहे तो जेएनयू में क्यों नहीं लग सकते?
आप उन चैनलों से पूछते हैं कि अगर वीडियो फर्जी निकल गया तो क्या फिर से वह उतने ही घंटे चिल्ला चिल्लाकर प्रोग्राम चलाएँगे जितने कन्हैया के विरोध में चलाए गए—मै आपसे पूछती हूँ रवीश जी कि हेडली की गवाही के बाद ये सच सामने आने के बाद कि इशरत जहाँ फिदायीन थी आपने कितने घंटे अपनी कुटिल मुस्कान और मध्यम आवाज़ में Prime Times किए?
या फिर आपके ही दोस्तों बरखा, सागरिका और राजदीप (जिनके नाम आप 41 मिनट में में कई बार दोहराते रहे) ने कितने घंटे के कार्यक्रम चलाए जब एक दशक तक मोदी को गुजरात दंगो का अपराधी बताने वाले आपलोगों के एजेंडे को धता बताते हुए न्यायपालिका ने उन्हे क्लीन चिट दे दिया? अर्णब और दीपक चौरसिया को नीचा दिखाकर खुद को महान साबित करने की जो कोशिश आपने कल की वो तब अपने इन दोस्तों के खिलाफ भी की होती जो SC के फैसले को भी दरनिकार करते हुए आजतक 2002 दंगों में मोदी को घसीटते रहते हैं. लेकिन आपने ऐसा नहीं किया तो क्या ये मान लिया जाना चाहिए कि आपकी भी मौन सहमति इसमें थी?
उमर खालिद को भागना नहीं चाहिए था आप ये कहते हैं लेकिन अपने इस 41 मिनट के भाषण में 2011 में यूपीए सरकार के तत्कालीन गृहराज्यमंत्री जितेंद्र सिंह का संसद में दिया गया वह लिखित जवाब क्यों नहीं दिखाते जिसमें यूपीए सरकार ने 23 संगठनों को ‘Naxal Outfit’ का दर्जा देते हुए उन पर प्रतिबंध लगा होने को माना था. क्यों नहीं बताते कि उन 23 संगठनों में आपके उमर खालिद का DSU भी था. आप कहीं भी ये ज़िक्र तक क्यों नहीं करते कि 3 फरवरी से 9 फरवरी के बीच उमर खालिद के फोन से किए और रिसीव किए गए 800 calls का क्या कारण था? वह 800 कॉल पाकिस्तान, कश्मीर, खाड़ी देशों और बांग्लादेश को क्यों किए गए?
आप भारत के संविधान की दुहाई देते हुए ये बताते हैं कि क्यों सेक्युलर होना गुनाह नहीं है, सबको बोलने का हक है. सहमत हूँ बिल्कुल नहीं है. लेकिन घुटने पर ज़रा ज़ोर डालिए और याद कीजिए संविधान के मुताबिक ‘Contempt of Court’ की वो परिभाषा जिसके दायरे में ‘Judicial Killing’ शब्द आता है और जिस पर 9 फरवरी का वह कार्यक्रम आयोजित किया गया था. बड़ी चतुराई से आप ये छुपा जाते हैं कि अब अदालत की अवमानना के आरोप में आपके प्यारे कन्हैया, उमर खालिद औऱ गिलानी को सुप्रीम कोर्ट में ये सफाई देनी होगी कि कैसे वह देश के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को धता बता कर उसके खिलाफ कार्यक्रम आयोजित कर सकते हैं.
खुद को महान दिखाने की कोशिश में आप बार बार ये बताते हैं कि बाकी चैनलों के जैसा कभी आपने भी किया होगा. उनकी तरह कभी आप भी आरुषि केस में जासूस बने होंग या कभी जज. सही है…लेकिन अच्छा होता Times now n India News के archive रखने के साथ साथ आप अपने भी Archive से कभी उन prime times की क्लिप निकाल कर हमें सुना देते जहाँ आप कभी काँग्रेस के तो कभी वामियों के प्रवक्ता की तरह व्यवहार करते हैं.
अरे रवीश कुमार, अर्णब और दीपक में हिम्मत तो है स्टैंड लेने की जो कभी बीफ मामले पर, तोगड़िया और आदित्यनाथ के भड़काउ बयानों पर बीजेपी के विरोध में होता है तो कभी कांग्रेस और वामियों की दोहरी राजनीति पर उनके विरोध में या फिर अरविंद केजरीवाल की कथित स्वच्छ राजनीति की परतें उधेड़ने की. आप घुटनों को थपथपाइए और याद कीजिए कि आपने ऐसा आखिरी बार कब किया था? कब आखिरी बार आपके अंदर का बीजेपी विरोधी प्रवक्ता (पार्टी बदल सकती है) एंकर के खोल से बाहर निकला था ?
एक वक्त वो भी था जब 2008 में महज़ 12 हज़ार की पहली सैलरी से 8 हज़ार रुपए का टीवी और 2100 रुपए का टाटा स्काई मैने सिर्फ इसलिए खरीदा था ताकि रवीश की रिपोर्ट देख सकूं. केबल कनेक्शन लेकर 1900 रुपए बचाए जा सकते थे लेकिन वह नहीं बचे क्योंकि केबल पर NDTV नहीं आता था. एक समय ये है जब आखिरी बार NDTV कब देखा था मुझे घुटना थपथपाने पर भी शायद याद न आए.
जाइए उन्हे अपनी इस भर्राई आवाज़ से बरगलिए जो ये जानते न हों कि अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात करने वाले रवीश कुमार ने अपने एकाउँट से पश्यन्ती शुक्ला को 4 साल पहले सिर्फ इसलिए unfrnd कर दिया था क्योंकि कमेंट में जहाँ तारीफें सुनने की आदत रही हो वहाँ एक निम्न पत्रकार ने ये लिख दिया था कि- ‘सर आपसे सहमत नहीं हूँ, आप चाहें तो तर्क प्रस्तुत करूँ’
उन्हें अपने मासूम होनें की सफाई दीजिए जिनसे आपने 2010 की कुंभ की रिपोर्टिंग के दौरान मनसा देवी की पहाड़ी पर ये न कहा हो कि मै आधा बिहारी, आधा बंगाली हूँ और बंगाल का मतलब मुझपर वामपंथ का प्रभाव है. ये अलग बात है कि वामपंथ को आप सेक्युलर की श्रेणी में खड़ा करते हैं, और दक्षिणपंथियों को संघी कहकर बदनाम करते हैं.
जाइए जाकर उन्हे उल्लू बनाइए जो ये जानते न हों कि आप कितने ‘घाघ’ हैं,
साभार- http://pashyantishukla.blogspot.in/ से