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भारत-भाषा प्रहरी

किसी भाषा के विकास और उसके प्रसार के लिए उसके भाषावैज्ञानिक पक्ष पर कार्य किए जाने की आवश्यकता होती है । कोई भाषा आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी प्रभावी भूमिका निभा सके, इसके लिए भी यह आवश्यक होता है कि उस भाषा के लिए विभिन्न प्रकार के शब्दकोश तैयार किए जाएँ और अन्य भाषा-भाषी क्षेत्रों में प्रसार के लिए उनका तुलनात्मक तथा व्यतिरेकी अध्ययन आदि भी किया जाए। लेकिन इस क्षेत्र में हिंदी में जितना काम होना चाहिए था शायद उतना नहीं हुआ। भाषाविज्ञान, शैलीविज्ञान,, अनुवादशास्त्र, कोश-निर्माण, भाषा प्रद्योगिकी आदि क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले विद्वान तो गिने-चुने हैं। इनमें एक प्रमुख नाम है प्रोफेसर कृष्ण कुमार गोस्वामी।

हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी पर भी समान अधिकार रखने वाले प्रो. गोस्वामी ने केंद्रीय हिन्दी संस्थान, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान (द.भा.हिं.प्र.स., हैदराबाद) और दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षण-कार्य किया है। वे केंद्रीय हिन्दी संस्थान में प्रोफेसर, विभागाध्यक्ष तथा प्रभारी अथवा क्षेत्रीय निदेशक के पद पर काम करते हुए सेवानिवृत्त हुए। सेवानिवृत्ति के बाद भी प्रो. गोस्वामी ने भारत सरकार की कंप्यूटर संस्था प्रगत संगणक विकास केंद्र (सी-डैक) में लगभग आठ वर्ष प्रोफेसर और सलाहकार के पद पर सक्रियता से कार्य किया। 1942 में अखंड भारत में खानेवाल नगर (संप्रति पाकिस्तान में है) जन्मे प्रोफेसर कृष्ण कुमार गोस्वामी सेवानिवृत्ति के पश्चात आज भी शैक्षिक कार्यों में इस प्रकार सक्रिय हैं मानों वे सेवानिवृत्त हुए ही नहीं। प्रो. गोस्वामी ने हाल ही में हिंदी के विकास के लिए एक महत्वपूर्ण ग्रंथ हिंदी-अंग्रेजी पदबंध कोश ( English-Hindi Phrasal Dictionary) तैयार कर हिंदी जगत को एक महत्वपूर्ण उपहार दिया है।


हिन्दी को भौगोलिक क्षेत्र, साहित्यिक परंपरा और अखिल भारतीय प्रयोग के संदर्भ में परिभाषित किया जा सकता है। इसके भीतर जहाँ अठारह बोलियाँ आती हैं वहाँ उनमें मैथिली, राजस्थानी, अवधी, ब्रज और खड़ीबोली जैसी मुख्य बोलियों की साहित्यिक परंपरा भी समाहित है। अखिल भारतीय प्रयोग के संदर्भ में हिन्दी लोक भाषा के रूप में प्रयुक्त होती है तो संविधान तथा राजकीय संदर्भ में वह राजभाषा की भी भूमिका निभा रही है। इसी परिप्रेक्ष्य में प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी एक मौन साधक के रूप में हिन्दी के वैज्ञानिक विवेचन और विश्लेषण में जुटे हुए हैं और अन्य भाषाओं के साथ इसके संबंधों की चर्चा करते हुए उनके तुलनात्मक तथा व्यतिरेकी अध्ययन में सार्थक कार्य कर कर रहे हैं। इसके साथ-साथ वे भूमंडलीकरण के युग में अनुवाद की नई परंपरा से जुड़ कर उसके विभिन्न आयामों और पक्षों के विशद विश्लेषण में जूझ रहे हैं। साथ ही साहित्य के भाषापरक आयामों का विवेचन करते हुए साहित्यिक आलोचना के भाषापरक प्रतिमानों पर भी वे अपनी लेखनी उठाते हैं। इस प्रकार आज के युग में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रो. गोस्वामी भाषाविज्ञान के क्षेत्र में, विशेषकर हिन्दी भाषा में, अग्रणी विद्वान के रूप में प्रतिस्थापित हैं।

भाषाविज्ञान, अनुवादविज्ञान, कोशविज्ञान, शैलीविज्ञान, समाजभाषाविज्ञान, भाषाप्रोद्यौगिकी, प्रयोजनमूलक हिन्दी और साहित्य क्षेत्रों में विशेषज्ञ प्रो. गोस्वामी ने एम. ए., एम. लिट.(भाषाविज्ञान), पी-एच. डी. जैसी पदवियाँप्राप्त प्रो. गोस्वामी की पूरी शिक्षा-दीक्षा दिल्ली में हुई। इनकी मातृभाषा लहंदा (सिरायकी) है। मातृभाषा लहंदा के अतिरिक्त प्रो. गोस्वामी को हिन्दी, अंग्रेजी, पंजाबी और उर्दू भाषाओं में महारत हासिल है। इसकेअतिरिक्त उन्हें संस्कृत और फ्रांसीसी भाषाओं का भी अच्छा ज्ञान है।

प्रो. गोस्वामी ने भाषाविज्ञानी, अनुवादशास्त्री, लेखक, समालोचक, विद्वान, संपादक, यायावर, प्रोफेसर और व्याख्याता के रूप में देश-विदेश में हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार तथा उसके शैक्षिक विकास में जीवन भर योगदान किया है। उन्होंने विश्व में भाषाकर्मी तथा संस्कृतिकर्मी की भूमिका निभाते हुए अपनी पहचान बना ली है। उन्होंने समूचे भारत में – पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण अर्थात कश्मीर से तमिलनाडू एवं केरल तक तथा गुजरात से मिज़ोरम तक यात्रा करते हुए हिन्दी की अलख जगाई है। विदेश में उन्होंने नेपाल (2003), संयुक्त राष्ट्र अमेरिका (2007, 2009 और 2016), युनाइटेड अरब अमीरात (दुबई, शारजाह, अबूधाबी आदि-2008), मारिशस (2011), स्वीडन (2012), डेनमार्क (2012), दक्षिण अफ्रीका (जोहन्सबर्ग 2012), फ्रांस (पेरिस-2016) आदि देशों के विश्वविद्यालयों तथा शैक्षिक संस्थाओं में हिन्दी संरचना, अनुवाद, भाषा शिक्षण, भारतीय संस्कृति, भाषा प्रौद्योगिकी आदि विषयों पर विशेष व्याख्यान दिए और संगोष्ठियों तथा सम्मेलनों की अध्यक्षता की।

प्रो. गोस्वामी के अध्यापन कार्य की एक विशेषता यह भी है कि उन्होंने हिन्दी का अध्यापन 45 वर्षों तक न केवल मातृभाषा के रूप में किया है वरन द्वितीय भाषा और विदेशी भाषा के रूप में भी किया है और आज भी वे कर रहे हैं। इनके विषय-विशेष और अध्यापन क्षेत्र भाषाविज्ञान, अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान, अनुवाद विज्ञान, समाजभाषाविज्ञान, शैलीविज्ञान, कोशविज्ञान, कंप्यूटरीकृत भाषाविज्ञान और भाषा प्रौद्योगिकी, भाषा शिक्षण, प्रयोजनमूलक हिन्दी, हिन्दी व्याकरण और संरचना, साहित्य, भारतीय संस्कृति आदि हैं। इन्होंने अनेक शोधार्थियों को भाषाविज्ञान, शैलीविज्ञान, अनुवाद विज्ञान, भाषा प्रौद्योगिकी, साहित्य आदि में शोध कार्य कराया हैं। इसी लिए भारत और विदेश में प्रो गोस्वामी के हजारों छात्र हैं जो देश-विदेश में अध्यापन, अनुवाद, आशु-अनुवाद आदि कार्यों में संलग्न हैं। भारत में अनेक छात्र विश्वविद्यालयों, कालिजों, शैक्षिक संस्थानों, सरकारी कार्यालयों, कंपनियों, उपक्रमों आदि में अध्यापन, राजभाषा प्रबंधन, अनुवाद आदि क्षेत्रों में कार्य कर रहे हैं। उन्होंने स्कूली और महाविद्यालयीय अध्यापकों और अध्यापक-शिक्षकों को भी भाषाविज्ञान, अनुवाद विज्ञान, हिन्दी – शिक्षण आदि की नई उद्भावनाओं तथा उनमें हो रहे विकास के बारे में विशेष व्याख्यान दिए हैं।


अक्सर यह देखने में आया है कि हिंदी के अधिकांश युवा साहित्यकार लेखक एवं प्राध्यापक आदि भी भाषा प्रद्योगिकी से कटे हुए हैं और आज की सूचना प्रौद्योगिकी के युग में भी अपने-आप को इससे जुड़ने में असमर्थ पाते हैं। ज्यादातर महाविद्यालयों में आज भी भाषा प्रौद्योगिकी भाषा शिक्षण का हिस्सा नहीं है। लेकिन 75 वर्षीय युवा प्रो. गोस्वामी ने इस क्षेत्र में भी बहुत काम किया है और सी-डैक जैसी प्रौद्योगिकी संस्थान में हिंदी भाषा के लिए प्रौद्योगिकी तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
प्रो. गोस्वामी सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कंप्यूटर साधित सामग्री – इन्टरनेट, वेबसाइट, मशीनी अनुवाद आदि कार्यक्रमों में भी कार्य किया। सी-डैक में रहते हुए उन्होंने अंग्रेज़ी से हिन्दी, उर्दू, पंजाबी और नेपाली भाषाओं में मशीनी अनुवाद के विकास में भाषापरक योगदान किया। इसके साथ ही हिन्दी से अन्य भारतीय भाषाओं के मशीनी अनुवाद की परियोजनाओं में सक्रिय भाग लिया। जापानी और अंग्रेज़ी की मशीनी अनुवाद संबंधी ए-स्टार नामक एक परियोजना में एशिया की सात भाषाएँ भी सम्मिलित हैं जिनमें एक भाषा हिन्दी है। हिन्दी भाषा के भाषापरक कार्य में गोस्वामी जी का महत्वपूर्ण योगदान है। इस परियोजना में लिखित अनुवाद के साथ मौखिक अनुवाद की भी व्यवस्था है।

प्रो. गोस्वामी भारत के अनेक विश्वविद्यालयों और शैक्षिक संस्थानों से जुड़े रहे हैं जिनमें गुलबर्गा विश्वविद्यालय, गुलबर्गा; मैसूर विश्वविद्यालय, मैसूर; लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ; महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा; अटल बिहारी वाजपेयी हिन्दी विश्वविद्यालय, भोपाल; इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली; महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय रोहतक; हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय, महेंद्रगढ़; हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय; शिमला; उस्मानिया कालेज, हैदराबाद; राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एन. सी. ई. आर. टी.); वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग; केंद्रीय हिंदी निदेशालय; केंद्रीय माध्यामिक शिक्षा बोर्ड; राष्ट्रीय मुक्त विद्यालयीय संस्थान; लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी, मसूरी; शिक्षा विभाग, आंध्र प्रदेश आदि की समितियों में सदस्य, संपादक, विशेषज्ञ, लेखक, संयोजक, अध्यापक-शिक्षक आदि के रूप में सक्रिय भाग लेते रहते हैं। इसके अतिरिक्त भारत सरकार के कई मंत्रालयों और विभागों की सलाहकार समितियों और विशेषज्ञ समितियों के सदस्य के रूप में भी मनोनीत होते रहते हैं। प्रो. गोस्वामी को कई सम्मान और पुरस्कार प्राप्त हुए हैं।

देवनागरी लिपि और अन्य भारतीय लिपियों के समर्थन में प्रो. गोस्वामी पिछले 40 वर्षों से संघर्ष कर रहे हैं। उन्होंने इसके प्रचार में अनेक बार कार्यशालाएँ, संगोष्ठियाँ और सम्मेलन आयोजित किए और देश-विदेश में देवनागरी लिपि संबंधी संगोष्ठियों मे सक्रिय भाग लिया। । गोवा में कोंकणी भाषा लिखने के लिए देवनागरी लिपि और रोमन लिपि में विवाद चल रहा था। सन 2008 में नागरी लिपि परिषद के सहयोग से गोस्वामी जी ने देवनागरी लिपि और रोमन लिपि में भाषावैज्ञानिक दृष्टि से तुलना करते हुए देवनागरी की वैज्ञानिकता, मानकता और उत्कृष्टता को सिद्ध किया। इस व्याख्यान से रोमन लिपि के अधिकतर समर्थक भी सहमत हो गए। प्रो. गोस्वामी ने के आई. आई. टी. ग्रुप ऑफ कालेजेस के अध्यक्ष श्री बलदेव राज कामराह और अन्य विशेषज्ञों के साथ मिल कर सन 2009 में विश्व नागरी विज्ञान संस्थान की स्थापना की। सन 2012 में प्रो. गोस्वामी ने विश्व नागरी विज्ञान संस्थान की ओर से भारत सरकार को देवनागरी के मानकीकरण के बारे में लिखा। भारतीय मानक ब्यूरो ने प्रो. गोस्वामी के प्रस्ताव को स्वीकार किया और उन्हीं की अध्यक्षता में एक अखिल भारतीय समिति का गठन किया जिस में शिक्षा, साहित्य, भाषा, जनसंचार, प्रकाशन, सूचना प्रौद्योगिकी आदि विषयों के विशेषज्ञों और विश्वविद्यालयों तथा भारत सरकार के राजभाषा विभाग, प्रगत संगणन विकास केंद्र, केंद्रीय हिन्दी निदेशालय के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस समिति ने भारत सरकार द्वारा पारित देवनागरी लिपि और मानक हिन्दी वर्तनी के आधार पर विचार-विमर्श किया और उसे थोड़े-बहुत संशोधन के साथ स्वीकार किया। इसकी वेबसाइट आई. एस. 16500:2012 का लोकार्पण 28 अगस्त, 2012 को हुआ था।

प्रो. गोस्वामी भाषा को मानव जाति के लिए एक ईश्वरीय वरदान मानते हैं। उनका कथन है कि भाषा मात्र ध्वनि-संरचना नहीं है वरन सामाजिक व्यवहार की वस्तु है जिससे व्यक्ति परस्पर विचार-विमर्श करता है। इसके बिना मानव सभ्यता का विकास संभव नहीं है। मनुष्य को समाज में संपर्क स्थापित करना होता है और इसके लिए भाषा सर्वाधिक सशक्त, सक्षम और जीवंत माध्यम है। इसका प्रयोग हमारे चिंतन और मनन में, प्रार्थना और ध्यान में, संस्कार और रीति-रिवाजों में, संबंधों और संचार में सभी जगहों में होता है। भाषा के बिना मनुष्य अन्य प्राणियों की भाँति मूक प्राणी रह जाता। भाषा मानव-संबंधों को जोड़ती है तो तोड़ती भी है। इस लिए भाषा के प्रयोग में सतर्कता और सजगता की अपेक्षा रहती है। यह एक या एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक ज्ञान का अंतरण करती है। भाषा अपनी संरचना और प्रकृति में ही जटिल नहीं होती, अपने प्रयोजन में भी बहुमुखी और बहुआयामी भी होती है। यह सर्जनात्मक साहित्य के साथ-साथ वाणिज्य, विज्ञान, प्रशासन आदि अनेक प्रयोजनमूलक संदर्भों में सार्थक और शक्तिशाली भूमिका निभाती है। इसीलिए इसके व्यापक स्वरूप और क्षेत्रों का अध्ययन विभिन्न भाषावैज्ञानिक दृष्टियों और आयामों से हो रहा है। इसी संदर्भ में प्रो. गोस्वामी ने प्रयोजनमूलक हिन्दी के प्रशासनिक, बैंकिंग, वाणिज्यिक आदि पक्षों पर कार्य भी किया है।

भाषा के विभिन्न प्रकार्यों और प्रयोजनों के परिप्रेक्ष्य में साहित्य एक विशिष्ट अनुशासन है। प्रो. गोस्वामी के मतानुसार साहित्य एक अनुभूतिजन्य संरचना है जिसकी सर्जनात्मकता और कलात्मकता को भाषा ही साकार रूप प्रदान करती है। भाषा साहित्य का एकमात्र सशक्त और जीवंत माध्यम तो है ही किंतु यह कहना भी असमीचीन नहीं होगा कि साहित्य का जन्म भाषा के गर्भ से ही होता है। अत: गोस्वामीजी कहते हैं कि किसी साहित्यिक कृति की साहित्यिकता और सर्जनात्मकता का केंद्र-बिंदु भाषा है और भाषापरक उपकरणों से साहित्यिक कृति का अध्ययन शैलीविज्ञान करता है जो भाषाविज्ञान की अनुप्रयोगिक शाखा है। साहित्य के अध्ययन में शैलीविज्ञान मार्क्सवादी, मनोविश्लेषणवादी, समाजशास्त्रीय, मिथकीय आदि आलोचना-प्रणालियों को साहित्येतर उपादान मानता है जो साहित्यिक कृतियों के बाह्य संबंधों की खोज करता है तथा समाज, संस्कृति आदि के परिप्रेक्ष्य में साहित्य का मूल्यांकन करता है। शैलीविज्ञान तो साहित्य के कलात्मक और सौंदर्यपरक रूपों को उजागर करता है। प्रो. गोस्वामी ने आचार्य रामचंद्र शुक्ल, प्रेमचंद, निराला, जय शंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, अज्ञेय की रचनाओं का शैलीवैज्ञानिक अध्ययन किया है।

प्रो. गोस्वामी अनुवाद को आधुनिक युग की सामाजिक आवश्यकता मानते हैं क्योंकि आज भूमंडलीकरण के कारण विश्व एक-दूसरे के निकट आ गया है जिससे अनुवाद की महत्ता, प्रासंगिकता और सार्थकता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। प्रो. गोस्वामी विद्वानों के अनुसार भाषा की प्रकृति ऐसी स्थिर, निष्क्रिय और समरूपी नहीं है कि एक भाषा की इकाई का अंतरण या प्रतिस्थापन दूसरी भाषा में किया जा सके। भाषा न तो ऐसी ग्रहीता है और न ही सामान्य माध्यम अथवा उपकरण है जो किसी अन्य भाषा के कथ्य को बिना किसी टकराव या संघर्ष के अपने भीतर समेट ले। अत: अनुवाद का अध्ययन करते हुए व्यावहारिक और सैद्धांतिक संबंधों तथा उनके परस्पर सामंजस्य को ध्यान में रखना होगा। भाषा अपने सामाजिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक आदि परिवेश में पलती और पनपती है, इसलिए एक भाषा के कथ्य को दूसरी भाषा में प्रतिस्थापित या अंतरण करना आसान नहीं है। ललित साहित्य की सर्जनात्मक प्रक्रिया में जहां अनुवाद जीवंत और सक्रिय होता है वहाँ विज्ञान, वाणिज्य आदि ज्ञान साहित्य की विभिन्न प्रयुक्तियों में भी यह सार्थक और सशक्त भूमिका निभाता है। इसलिए अनुवाद के बारे में अभी भी अधिक गंभीर चिंतन करने कि आवश्यकता है। इसी परिप्रेक्ष्य में प्रो. गोस्वामी ने अनुवाद संबंधी कई पुस्तकों का हिन्दी में लेखन और संपादन किया है ताकि अनुवाद के विभिन्न पक्षों का परिचय हिन्दी पाठकों को मिल सके। प्रो. गोस्वामी ने भाषाविज्ञान, शैलीविज्ञान, अनुवाद विज्ञान, प्रयोजनमूलक हिन्दी, भाषा प्रौद्योगिकी, राजभाषा हिन्दी, साहित्य आदि कई विषयों पर पंद्रह पुस्तकों की रचना की है। बीस पुस्तकों के संपादन तथा सहसंपादन के अतिरिक्त लगभग 200 शोधपत्र एवं आलेख भी लिखे हैं। इनमें दो शब्दकोश और एक पदबंध कोश भी प्रकाशित हैं। प्रो गोस्वामी के साक्षात्कार परिकल्पना (ब्लॉग), अनुवाद (पत्रिका) और ट्रांसफ्रेम (ई-पत्रिका) में प्रकाशित हुए हैं। उनके लेखन और साहित्य को वैश्विक मान्यता मिली हुई है।

भाषा क्षेत्र की ऐसे प्रकांड विद्वान प्रो गोस्वामी ने केवल हिंदी भाषा के विकास प्रचार-प्रसार अध्ययन अध्यापन के क्षेत्र में अपनी सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं बल्कि जब कहीं और जहां कहीं आवश्यकता होती है वह इसके लिए खड़े भी होते हैं जहां एक और अनेक साहित्यकार लेखक आवश्यकतानुसार जरूरत होने पर भी राजनीतिक खेमों या आर्थिक दबावों से प्रभावित होकर मौन धारण कर अपने कर्तव्य से विमुख हो जाते हैं प्रो गोस्वामी न केवल बेबाकी से काम लेते हैं बल्कि हिंदी के पक्ष में खड़े होते हैं और अपनी आवाज भी उठाते हैं। मुझे याद है पिछले दिनों एक हिंदी का सम्मेलन विदेश में हुआ । हिंदी के नाम पर वहां देश – विदेश की सैकड़ों लोग जुटे, जिनमें बड़ी संख्या में भारतीय और भारतीय मूल के लोग थे। लेकिन उसमें ज्यादातर आलेख अंग्रेजी में ही पढ़े गए । उसमें आयोजन से लेकर सहभागिता तक न जाने कितने हिंदी के महापंडित और महापुरुष रहे होंगे, लेकिन प्रो गोस्वामी ही थे जिन्होंने इसके विरुद्ध आवाज उठाई और लिखा। कोई और होता तो शायद यह सोचता कि इस प्रकार आवाज उठाने से संभव है अगली बार उन्हें ऐसी विदेश यात्रा का मौका न मिले। लेकिन प्रो गोस्वामी जैसे विद्वान को ऐसी बातों की परवाह कहाँ। इसी प्रकार जब यह खबर फैली की मैथिली, डोंगरी आदि बोलियों के बाद अब भोजपुरी और राजस्थानी जैसी हिंदी की बोलियों को भी संविधान की अष्टम अनुसूची में भाषा का स्थान दिया जा रहा है तो हिंदी के क्षेत्र में अपना परचम फहराने वाले अनेक साहित्यकार लेखक और अन्य महापुरुषों ने जब मौन साध लिया तो प्रोफेसर गोस्वामी ने विभिन्न माध्यमों से अनेक लेख देश के सामने प्रस्तुत कर देश को आगाह किया कि इससे इन बोलियों को तो कोई विशेष लाभ न होगा लेकिन देश की राजभाषा हिंदी की स्थिति काफी कमजोर होगी। उनके इस प्रकार के भाषा- वैज्ञानिक विश्लेषण से ऐसे अनेक लोग अज्ञानवश बोलियों को भाषा का दर्जा देने के पक्ष में खड़े थे, उन्हें बात समझ में आई और विचार की यह प्रक्रिया आगे बढ़ी ।

ऐसे भाषा-सेवक, भाषाविज्ञानी, शैलीविज्ञानी, अनुवादशास्त्री, साहित्यकार एवं विद्वान प्रो. गोस्वामी से प्रेरणा लेकर आज के हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के विद्वानों साहित्यकारों, लेखकों तथा भाषाविदों को अपनी भाषा के विकास व प्रसार में योगदान देना चाहिए और पुरस्कारों की होड़ से ऊपर उठकर और जहाँ जरूरी हो निर्भीक हो कर अपनी आवाज भी बुलंद करनी चाहिए।

“वैश्विक हिंदी सम्मेलन” भारत – भाषा प्रहरी प्रो. गोस्वामी की हिंदी भाषा की इस सतत् सेवा के लिए उनका अभिनंदन करता है।

संपर्क सूत्र :
1764, औट्रम लाइन्स, डॉ. मुखर्जी नगर, (किंग्ज़्वे कैंप), दिल्ली – 110 009 (भारत)
फोन: 011-45651396 मो. : 0-9971553740, ई-मेल: [email protected]

प्रस्तुति : डॉ. एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य’

वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
[email protected]