Sunday, November 24, 2024
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भारतीय संगीत का रोचक इतिहास

भारतीय संगीत प्राचीन काल से भारत मे सुना और विकसित होता संगीत है। इस संगीत का प्रारंभ वैदिक काल से भी पूर्व का है। इस संगीत का मूल स्रोत वेदों को माना जाता है। हिंदू परंपरा मे ऐसा मानना है कि ब्रह्मा ने नारद मुनि को संगीत वरदान में दिया था। पंडित शारंगदेव कृत “संगीत रत्नाकर” ग्रंथ में भारतीय संगीत की परिभाषा “गीतम, वादयम् तथा नृत्यं त्रयम संगीतमुच्यते” कहा गया है। गायन, वाद्य वादन एवम् नृत्य; तीनों कलाओं का समावेश संगीत शब्द में माना गया है। तीनो स्वतंत्र कला होते हुए भी एक दूसरे की पूरक है। भारतीय संगीत की दो प्रकार प्रचलित है; प्रथम कर्नाटक संगीत, जो दक्षिण भारतीय राज्यों में प्रचलित है और हिन्दुस्तानी संगीत शेष भारत में लोकप्रिय है। भारतवर्ष की सारी सभ्यताओं में संगीत का बड़ा महत्व रहा है। धार्मिक एवं सामाजिक परंपराओं में संगीत का प्रचलन प्राचीन काल से रहा है। इस रूप में, संगीत भारतीय संस्कृति की आत्मा मानी जाती है। वैदिक काल में अध्यात्मिक संगीत को मार्गी तथा लोक संगीत को ‘देशी’ कहा जाता था। कालांतर में यही शास्त्रीय और लोक संगीत के रूप में दिखता है। वैदिक काल में सामवेद के मंत्रों का उच्चारण उस समय के वैदिक सप्तक या सामगान के अनुसार सातों स्वरों के प्रयोग के साथ किया जाता था। गुरू-शिष्य परंपरा के अनुसार, शिष्य को गुरू से वेदों का ज्ञान मौखिक ही प्राप्त होता था व उन में किसी प्रकार के परिवर्तन की संभावना से मनाही थी। इस तरह प्राचीन समय में वेदों व संगीत का कोई लिखित रूप न होने के कारण उनका मूल स्वरूप लुप्त होता गया।

भारतीय संगीत का अभिन्न अंग है भारतीय शास्त्रीय संगीत। आज से लगभग ३००० वर्ष पूर्व रचे गए वेदों को संगीत का मूल स्रोत माना जाता है। ऐसा मानना है कि ब्रह्मा जी ने नारद मुनि को संगीत वरदान में दिया था। चारों वेदों में, सामवेद के मंत्रों का उच्चारण उस समय के वैदिक सप्तक या समगान के अनुसार सातों स्वरों के प्रयोग के साथ किया जाता था।

गुरू शिष्य परंपरा के अनुसार, शिष्य को गुरू से वेदों का ज्ञान मौखिक ही प्राप्त होता था व उन में किसी प्रकार के परिवर्तन की संभावना से मनाही थी। इस तरह प्राचीन समय में वेदों व संगीत का कोई लिखित रूप न होने के कारण उनका मूल स्वरूप लुप्त होता गया। भरत मुनि द्वारा रचित भरत नाट्यशास्त्र, भारतीय संगीत के इतिहास का प्रथम लिखित प्रमाण माना जाता है। इसकी रचना के समय के बारे में कई मतभेद हैं। आज के भारतीय शास्त्रीय संगीत के कई पहलुओं का उल्लेख इस प्राचीन ग्रंथ में मिलता है।

भरत् नाट्य शास्त्र के बाद शारंगदेव रचित संगीत रत्नाकर, ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है। बारहवीं सदी के पूर्वाद्ध में लिखे सात अध्यायों वाले इस ग्रंथ में संगीत व नृत्य का विस्तार से वर्णन है।

संगीत रत्नाकर में कई तालों का उल्लेख है व इस ग्रंथ से पता चलता है कि प्राचीन भारतीय पारंपरिक संगीत में अब बदलाव आने शुरू हो चुके थे व संगीत पहले से उदार होने लगा था। १००० वीं सदी के अंत तक, उस समय प्रचलित संगीत के स्वरूप को प्रबंध कहा जाने लगा। प्रबंध दो प्रकार के हुआ करते थे… निबद्ध प्रबंध व अनिबद्ध प्रबंध। निबद्ध प्रबंध को ताल की परिधि में रह कर गाया जाता था जबकि अनिबद्व प्रबंध बिना किसी ताल के बंधन के, मुक्त रूप में गाया जाता था। प्रबंध का एक अच्छा उदाहरण है जयदेव रचित गीत गोविंद।

युग परिवर्तन के साथ संगीत के स्वरूप में भी परिवर्तन आने लगा मगर मूल तत्व एक ही रहे। मुगल शासन काल में भारतीय संगीत फ़ारसी व मुसलिम संस्कृति के प्रभाव से अछूता न रह सका। उत्तर भारत में मुगल राज्य ज़्यादा फैला हुआ था जिस कारण उत्तर भारतीय संगीत पर मुसलिम संस्कृति व इस्लाम का प्रभाव ज़्यादा महसूस किया जा सकता है। जबकि दक्षिण भारत में प्रचलित संगीत किसी प्रकार के बाहरी प्रभाव से अछूता ही रहा। इस तरह भारतीय संगीत का दो भागों में विभाजन हो गया:

१) उत्तर भारतीय संगीत या हिन्दुस्तानी संगीत
२) कर्नाटक शैली।

उत्तर भारतीय संगीत में काफ़ी बदलाव आए। संगीत अब मंदिरों तक सीमित न रह कर शहंशाहों के दरबार की शोभा बन चुका था। इसी समय कुछ नई शैलियॉं भी प्रचलन में आईं जैसे ख़याल, ग़जल आदि और भारतीय संगीत का कई नए वाद्यों से भी परिचय हुआ जैसे सरोद, सितार इत्यादि।

बाद में सूफ़ी आंदोलन ने भी भारतीय संगीत पर अपना प्रभाव जमाया। आगे चलकर देश के विभिन्न हिस्सों में कई नई पद्धतियों व घरानों का जन्म हुआ। ब्रिटिश शासनकाल के दौरान कई नए वाद्य प्रचलन में आए। आम जनता में भी प्रसिद्ध आज का वाद्य हारमोनियम, उसी समय प्रचलन में आया। इस तरह भारतीय संगीत के उत्थान व उसमें परिवर्तन लाने में हर युग का अपना महत्वपूर्ण योगदान रहा।

भारतीय शास्त्रीय संगीत आधारित है स्वरों व ताल के अनुशासित प्रयोग पर।सात स्वरों व बाईस श्रुतियों के प्रभावशाली प्रयोग से विभिन्न तरह के भाव उत्पन्न करने की चेष्टा की जाती है। सात स्वरों के समुह को सप्तक कहा जाता है। भारतीय संगीत सप्तक के ये सात स्वर इस प्रकार हैं।

षडज (सा), ऋषभ(रे), गंधार(ग), मध्यम(म), पंचम(प), धैवत(ध), निषाद(नि)।

सप्तक को मूलत: तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है…मन्द्र सप्तक़, मध्य सप्तक व तार सप्तक।अर्थात सातों स्वरों को तीनों सप्तकों में गाया बजाया जा सकता है।षड्ज व पंचम स्वर अचल स्वर कहलाते हैं क्योंकि इनके स्थान में किसी तरह का परिवर्तन नहीं किया जा सकता और इन्हें इनके शुद्ध रूप में ही गाया बजाया जा सकता है जबकि अन्य स्वरों को उनके कोमल व तीव्र रूप में भी गाया जाता है। इन्हीं स्वरों को विभिन्न प्रकार से गूॅंथ कर रागों की रचना की जाती है।

राग क्या है
राग संगीत की आत्मा हैं, संगीत का मूलाधार। राग शब्द का उल्लेख भरत नाट््य शास्त्र में भी मिलता है। रागों का सृजन बाईस श्रुतियों के विभिन्न प्रकार से प्रयोग कर, विभिन्न रस या भावों को दर्शाने के लिए किया जाता है। प्राचीन समय में रागों को पुरूष व स्त्री रागों में अर्थात राग व रागिनियों में विभाजित किया गया था।सिऱ्फ यही नहीं, कई रागों को पुत्र राग का भी दर्जा प्राप्त था।उदाहरणत: राग भैरव को पुरूष राग, और भैरवी, बिलावली सहित कई अन्य रागों को उसकी रागिनियॉं तथा राग ललित, बिलावल आदि रागों को इनके पुत्र रागों का स्थान दिया गया था।बाद में आगे चलकर पं विष्णु नारायण भातखंडे ने सभी रागों को दस थाटों में बॉंट दिया।अर्थात एक थाट से कई रागों की उत्पत्ति हो सकती थी। अगर थाट को एक पेड़ माना जाए व उससे उपजी रागों को उसकी शाखाओं के रूप में देखा जाए तो गलत न होगा। उदाहरणत: राग शंकरा, राग दुर्गा, राग अल्हैया बिलावल आदि राग थाट बिलावल से उत्पन्न होते हैं। थाट बिलावल में सभी स्वर शुद्ध माने गए हैं अत: तकनीकी दृष्टि से इस थाट से उपजे सभी रागों में सारे स्वर शुद्ध प्रयोग किए जाने चाहिए। मगर दस थाटों के इस सिद्धांत के बारे में कई मतांतर हैं क्योंकि कुछ राग किसी भी थाट से मेल नहीं खाते मगर उन्हें नियमरक्षा हेतु किसी न किसी थाट के अंतर्गत सम्मिलित किया जाता है।

किसी भी राग में ज़्यादा से ज़्यादा सात व कम से कम पॉंच स्वरों का प्रयोग करना ज़रूरी है।इस तरह रागों को मूलत: ३ जातियों में विभाजित किया जा सकता है…

१) औडव जाति जहॉं राग विशेष में पॉंच स्वरों का प्रयोग होता हो
२) षाडव जाति जहॉं राग में छ: स्वरों का प्रयोग होता हो
३) संपूर्ण जाति जहॉं राग में सभी सात स्चरों का प्रयोग किया जाता हो।

राग के स्वरूप को आरोह व अवरोह गाकर प्रदर्शित किया जाता है जिसमें राग विशेष में प्रयुक्त होने वाले स्वरों को क्रम में गाया जाता है।
उदाहरण के लिए राग भूपाली का आरोह कुछ इस तरह है:

सा रे ग प ध सा।

किसी भी राग में दो स्वरों को विशेष महत्व दिया जाता है।इन्हें वादी स्वर व संवादी स्वर कहते हैं। वादी स्वर को राग का राजा भी कहा जाता है क्योंकि राग में इस स्वर का बहुतायत से प्रयोग होता है। दूसरा महत्वपूर्ण स्वर है संवादी स्वर जिसका प्रयोग वादी स्वर से कम मगर अन्य स्वरों से अधिक किया जाता है। इस तरह किन्हीं दो रागों में जिनमें एक समान स्वरों का प्रयोग होता हो, वादी और संवादी स्वरों के अलग होने से राग का स्वरूप बदल जाता है। उदाहरणत: राग भूपाली व देशकार में सभी स्वर समान हैं मगर वादी व संवादी स्वर अलग होने के कारण इन रागों में आसानी से फ़र्क बताया जा सकता है।
हर राग में एक विशेष स्वर समुह के बार बार प्रयोग से उस राग की पहचान दर्शायी जाती है। जैसे राग हमीर में ‘ग म ध’ का बार बार प्रयोग किया जाता है और ये स्वर समूह राग हमीर की पहचान हैं।

मुगल़कालीन शासन के दौरान ही शायद रागों के गाने बजाने का निर्धारित समय कभी प्रचलन में आया। जिन रागों को दोपहर के बारह बजे से मध्यरात्रि तक गाया बजाया जाता था उन्हें पूर्व राग कहा गया और मध्यरात्रि से दोपहर के बीच गाए बजाए जाने वाले रागों को उत्तर राग कहा गया। कुछ राग जिन्हें भोर या संध्याकालीन समय में गाया जाता था उन्हें संधिप्रकाश राग कहा गया। यही नहीं कुछ राग ऋतुप्रधान भी माने गए। जैसे राग मेघमल्हार वर्षा ऋतु में गाया जाने वाला राग है। इसी तरह राग बसंत को बसंत ऋतु में गाए जाने की प्रथा है।

हमारी संस्कृति का एक स्तंभ भारतीय शास्त्रीय संगीत, जीवन को संवारने और सुरुचिपूर्ण ढंग से जीने की कला है। यह आधार है हर तरह के संगीत का साथ ही ऐसी गरिमामयी धरोहर है जिससे लोक और लोकप्रिय संगीत की अनेक धाराएँ निकलती हैं जो न सिर्फ हमारे तीज त्योहारों में राग रंग भरती हैं बल्कि हमारे विभिन्न संस्कारों और अवसरों में भी उल्लासमय बनाते हुए अनोखी रौनक प्रदान करती हैं। महाभारत में 7 वर्ष वालों और गंधर्व ग्राम का उल्लेख मिलता है । रामायण में विभिन्न प्रकार के वाद्यों तथा संगीत की उपमा ओं का उल्लेख मिलता है। रावण स्वयं संगीत का बड़ा विद्वान था उसने रावण स्त्रोत नामक वाद्य का आविष्कार किया।

भरत कृत नाट्य शास्त्र -“यह संगीत के महत्वपूर्ण पुस्तक है जिसकी रचना काल के विषय में अनेक मत हैं किंतु अधिकांश विद्वानों द्वारा पांचवी शताब्दी माना गया है इसके छठ में अध्याय में संगीत संबंधी विषयों पर प्रकाश डाला गया है इससे यह सिद्ध होता है कि इस समय भी संगीत का बहुत प्रचार था

नारद लिखित नारदीय शिक्षा-“इस ग्रंथ के रचनाकार में विद्या विद्वानों के अनेक मत है अधिकांश विद्वान ऐसे ग्रंथ को दसवीं से बारहवीं शताब्दी का मानते हैं।
इन सभी ग्रंथों से यह ज्ञात होता है कि उस समय संगीत का अच्छा प्रचार था।

मध्य काल – इस काल की अवधि छठवीं शताब्दी से उन तेरहवीं शताब्दी तक मानी गई है। उस समय के ग्रंथों को देखने से स्पष्ट है कि जिस प्रकार आजकल रात गान प्रचलित था उसी प्रकार प्रबंधक में उस काल में प्रचलित था। उसी प्रकार प्रबंध गायन उस काल में प्रचलित था|मध्य काल को प्रबंध काल के नाम से भी जाना जाता हैं । नवीं शताब्दी से 12वीं शताब्दी तक संगीत को बहुत महत्व मिला। उस समय रियासतों में अच्छे कलाकार (संगीतकार) मौजूद थे, जिन्हें शासक द्वारा अच्छी तनख्वाह मिलती थी

मध्य काल के महत्वपूर्ण ग्रंथः संगीत मकरंद, गीत गोविंद, संगीत रत्नाकर इत्यादि। संगीत मकरंद की रचना 12वीं शताब्दी में हुई थी जयदेव ने इसकी रचना की थी जयदेव केबल कभी नहीं अपितु एक अच्छे गायक भी थे इसमें प्रबंधों और गीतों का संग्रह भी है किंतु लिपिक ज्ञान ना होने से गायन संभव नहीं है
संगीत रत्नाकर 13वीं शताब्दी में सारंग देव द्वारा लिखी गई है यह ग्रंथ ना केवल उत्तरी संगीत में अपितु दक्षिण संगीत में महत्वपूर्ण समझा जाता है। 11वीं शताब्दी में मुगलों का आक्रमण शुरू हो गया लगभग 12 वीं शताब्दी में भारत में मुसलमानों का राज हो गया । मुसलमानों का प्रभाव भारतीय संगीत में पड़ा जिससे उत्तरी एवं दक्षिणी भारतीय संगीत धीरे-धीरे पृथक हो गये |

आधुनिक युग या आधुनिक काल -भारतवर्ष में फ्रांसीसी पुर्तगाली डच अंग्रेज आए किंतु अंग्रेजों ने भारत में अधिपत्य जमा लिया । उनका मुख्य उद्देश्य राज्य करना और पैसे कमाना था। उनसे संगीत की अपेक्षा करना व्यर्थ होगा। उस समय संगीत कुछ रियासतों में चल रहा था, किंतु दूसरी ओर संगीतकारो की भी कमी हो गई,
संगीतकार केवल अपने संबंधियों को बड़ी मुश्किल से संगीत सीखा पाते थे |धीरे-धीरे संगीत कुलटा स्त्रियों की हाथ लगा और संगीत केवल आमोद प्रमोद का कारण बन गया लोक संगीत से नफरत करने लगे कुछ अच्छे समाज में संगीत का नाम लेना पाप था। 1600 ई. के बाद अर्थात बीसवीं शताब्दी के पहले संगीत का प्रचार शुरू हुआ इसका मुख्य उद्देश्य स्वर्गीय पंडित विष्णु दिगंबर एवं पंडित विष्णु नारायण भारतखंडे को जाता है भारतखंडे जी ने संगीत का शास्त्र पक्ष लिया पंडित दिगंबर जी ने क्रियात्मक पक्ष लिया इस प्रकार दोनों ने अपना पक्ष मजबूत किया।

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