शुक्रवार, दिनांक १३ मार्च, १९८७ को बंगाल के मालदा शहर से लगभग ४० किलोमीटर दूर, ‘जगजीवनपुर’ इस गांव में बारीश हो रही थी. इस क्षेत्र मे ‘वैशाख काला’ के दिनों मे वैसे भी वर्षा और तूफान आते जाते रहते हैं. किंतू यह वर्षा कुछ तेज थी. वर्षा का पानी घर मे न घुसे, इसलिए उसे दुसरी दिशा में प्रवाहित करने के लिए, जगदीश गाईन, घर के सामने जमीन मे खोद रहे थे. खोदते – खोदते उन्हे अचानक धातू की एक पट्टी मिली.
उस पट्टिका को साफ कर के देखा तो वह तांबे की बडी सी पट्टिका थी. इस के उपर पीतल की एक मुद्रा थी, जो राजमुद्रा लग रही थी. इस पट्टिका पर कुछ लिखा गया था. ठीक से देखा, तो आगे – पीछे मिलकर कुल ७२ पंक्तियां थी. लिपि कुछ अलग थी. बाद मे जब पुरातत्व विभाग ने इस पट्टिका को जांचा, तो पता चला, यह नवमी शताब्दी का ताम्रपत्र हैं, जो संस्कृत भाषा में, किंतू ‘सिध्दमात्रिका’ लिपि (देवनागरी लिपि का प्रारंभिक स्वरुप) में लिखा गया हैं।
_(यह ताम्रपत्र लगभग १२ किलो का हैं. इस ताम्रपत्र के उपर पीतल की जो राजमुद्रा बनी हैं, उसके बीचोंबीच धर्मचक्र हैं. उपर कमल का फूल तथा धर्मचक्र के दोनो ओर हिरन हैं. विक्रम संवत ९११ के वैशाख व्दितीया को यह ताम्रपत्र लिखा गया हैं)_
इस ताम्रपत्र ने भारत के पूर्व भाग के (विशेषतः बंगाल के) अज्ञात इतिहास को जीवंत कर दिया. यह ताम्रपत्र, इस बात की घोषणा करता है कि ‘पाल राजवंश के राजा महेंद्रपाल (सन ८४५ से ८६० के बीच राज्य किया) ने अपने ‘महासेनापती वज्रदेव’ को यह स्थान दिया हैं, बौध्द विहार के निर्माण के लिए. इस बौध्द विहार मे प्रवासी बौध्द भिख्खूओं के रुकने, रहने और पांडुलिपीयों की प्रतियां तैयार करने की व्यवस्था रहेगी.’
इस ताम्रपत्र ने इतिहासविदों मे भ्रम की स्थिति निर्माण कर दी. कारण, इतिहास मे, पाल राजवंश मे ‘राजा महेंद्रपाल’ नाम का कोई राजा था, इसका कही भी भी उल्लेख नही था. सन ८४५ मे राजा धर्मपाल के पुत्र, ‘राजा देवपाल’ की मृत्यू के पश्चात सीधा उल्लेख आता हैं, राजा सूरपाल (प्रथम) का. मानो, भारत के, विशेषतः बंगाल के, इतिहास के सन ८४५ से ८६०, यह पंद्रह वर्ष गुम हो गए थे, जो इस ताम्रपत्र ने ढूंढ निकाले> (बाद के शोध ने यह सत्य सामने लाया की राजा महेंद्रपाल की माताजी का नाम ‘महोटा देवी’ था. वे तत्कालिन तमिल राज्य के गुर्जर प्रतिहार राजा की इकलौती कन्या थी. सन ८६० मे उनके पिता की मृत्यू के बाद राजा महेंद्रपाल, उस गुर्जर प्रतिहार राज्य के राजा बने तथा यहां गौर मे उनके राज्य को उनके छोटे भाई, राजा सूरपाल (प्रथम) ने सम्भाला.)_
इस ताम्रपत्र के मिलने के बाद, इसी स्थान पर, भारत के पुरातत्व विभाग ने सन १९९२ से उत्खनन प्रारंभ किया. दुसरे फेज मे १९९५ – २००५ मे फिर से उत्खनन हुआ. इससे सामने आया, एक परिपूर्ण बौध्द विहार – ‘नंददीर्घिका’. बारह सौ वर्ष पुराना. अत्यंत सुव्यवस्थित, सुरचित, सारी व्यवस्थाओं से पूर्ण.
इस बौद्ध विहार मे बीच मे बराबर चौकोन के आकार मे खाली जगह हैं. खाली जगह के बाद, चारो ओर बरामदा हैं. बरामदे के बाद, उत्तर मे गर्भगृह हैं, पश्चिम मे भिख्खूओं के लिये कमरे हैं. पूर्व मे विद्यार्थियों के लिये कक्ष और उसके बाद सभी के लिये, पंक्तियों मे, सात शौचालय हैं. पानी के निकास की व्यवस्था हैं. उत्तर मे, बरामदे और गर्भगृह के बीच, गुरुजनों के कक्ष हैं.
कल इतिहास के इस विस्मृत स्थान को देखने का सौभाग्य मिला. यह स्थान पुरातत्व विभाग के स्वामित्व मे हैं. वहां एक संग्रहालय भी बन रहा हैं. किंतू यह स्थान पूरी तरह उपेक्षित हैं. न नाम की पट्टिका, और न ही साफ-सफाई. इतिहास का इतना महत्वपूर्ण स्थान यदि युरोप के किसी देश मे होता, तो इस जगजीवनपुर का भाग्य कुछ और ही होता.
इसी प्रवास मे श्री जगदीश गाईन की भी भेंट हुई, जिन्हे वह ताम्रपत्र मिला, जिसके कारण इतिहास का अज्ञात हिस्सा हम सबके सामने आया. जगजीवनपुर के शाला मे बंगाली पढाने वाले वाले एक शिक्षक ने अत्यंत रोचक शैली मे इस बौध्द विहार का और इस के पिछे के इतिहास को बताया.
पुरातत्व के यह स्थान, हम सब के, हमारे समाज के, हमारे देश के गौरव स्थान हैं।